क्या बेरोज़गारी के मुद्दे की राजनीतिक मौत हो गई है? 

जब भी बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिलता है मुझे लेकर मीम बनाए जाते हैं और ताने दिए जाते हैं कि बेकारी, महंगाई, नौकरी और तमाम तरह की नाइंसाफियों के सवाल उठाना अब बंद कर दो, जनता हमारे साथ है.

होली और दीवाली के अगले दिन अख़बार का दफ्तर खुलता है तब ख़बर की कमी हो जाती है. कई बार विदेश समाचारों से पन्ना भर दिया जाता है और कुछ रूटीन टाइप की बैठकों की खबरों को हेडलाइन बनानी पड़ती हैं कि इन्होंने इनसे मुलाकात की है और उन्होंने उनसे मुलाकात की. मतों की गिनती के दिन टीवी का मानव संसाधन थक जाता है. अखबारों में सारी समीक्षाएं हो चुकी होती हैं तो कुछ कहने के लिए ख़ास बचता भी नहीं और राजनीति शपथ ग्रहण समारोह की तरफ शिफ्ट हो चुकी होती है. अभी-अभी चुनाव हुआ तो सवाल करने के लिए सामने सरकार भी नहीं होती है. बनने की प्रक्रिया में होती है. तो रास्ता एक ही है कि क्या या तो सिर्फ पन्ना को भरा जाए या कुछ ऐसे सवालों को लेकर हाज़िर हुआ जाए जिस पर नए तरीके से सोचने का मौका भी मिले. ऐसा नहीं है कि एकदम से मीडिया स्पेस में कंटेट का ख़ालीपन है. 

गनीमत है कि प्रधानमंत्री मोदी के होते कटेंट का संकट नहीं होता है. वे अपने आप को ख़बर के रूप में उपस्थित कर देते हैं. प्रचंड जीत के अगले दिन वे अहमदाबाद में रोड शो कर रहे हैं और विक्ट्री साइन बना रहे हैं. उनके लिए सीरीयल की तरह राजनीति का सेट हर जगह बना होता है. प्रधानमंत्री यूपी नाम की फिल्म के सेट से निकल गुजरात नाम की फिल्म के सेट पर पहुंच गए हैं. राजनीति में नेता को फिल्म के अभिनेता की तरह भी जीना पड़ता है. यह ध्यान रखते हुए कि कोई फिल्म फ्लॉप न हो वर्ना आगे फिल्म नहीं मिलेगी और अगर फ्लाप हो जाए तो भी काम करते रहना है ताकि प्रीमियर में बुलाने की होड़ मची रहे. यहां प्रधानमंत्री की सुरक्षा का कोई मुद्दा नहीं है. जीप को फूलों से सजा दिया गया है और रास्तों को गुब्बारों से. 

उत्तर प्रदेश अपने आप में देश के भीतर एक देश है. दस मार्च को जिन लोगों को पता चला कि बीजेपी साल भर औऱ दिन रात चलने वाली चुनावी मशीन है, उनके लिए 11 मार्च को ही बता रहा हूं कि अगर इस तरह की कोई मशीन है तो ये उसका चलता फिरता वीडियो है. गुजरात में विधानसभा चुनावों की तैयारी हो गई है. दिव्य भास्कर अखबार की खबर है कि बीजेपी 59 विधायकों के टिकट काट देगी और जिनके टिकट कटेंगे, उनमें पूर्व मुख्यमंत्री और पूर्व उप मुख्यमंत्री के भी नाम हैं. पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी का बयान छपा है कि पार्टी कहेगी तो लड़ूंगा, न बोलेगी तो नहीं लड़ूंगा. पार्टी बोलेगी कि दूसरों को जिताना हो तो उनको जिताने के लिए काम करूंगा. अखबार ने इसे सूत्रों के हवाले से लिखा है, लेकिन रूपाणी का बयान भी है. समझा जा सकता है कि चुनाव का पहिया अब गुजरात में घूमने लगा है. विपक्षी दल ट्वीट भी नहीं कर पा रहे हैं और प्रधानमंत्री ने गुजरात की तैयारी शुरू कर दी है. हमारी समस्या का संबंध इस सवाल से है कि पत्रकार को क्या करना चाहिए.

जब भी बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिलता है मुझे लेकर मीम बनाए जाते हैं और ताने दिए जाते हैं कि बेकारी, महंगाई, नौकरी और तमाम तरह की नाइंसाफियों के सवाल उठाना अब बंद कर दो, जनता हमारे साथ है. दूसरी तरफ जिन्हें लगा कि बीजेपी को हारना चाहिए वे भी ठीक इसी तरह की बात करने लगे. बीजेपी के समर्थक ताना दे रहे हैं तो विरोधी उलाहना. उम्मीद है आप ताना और उलाहना का फर्क समझते होंगे. तो उलाहना देने वालों का कहना है कि मैं बेकारी, महंगाई, गरीबी के मुद्दे उठाना बंद कर दूं, इस देश की जनता ही ऐसी है. उसे इन मुद्दों से कोई फर्क नहीं पड़ता है. जो जीता है और जो हारा है दोनों पक्ष अपने अपने तरीके से एक पत्रकार औऱ उसके काम का मज़ाक उड़ा रहे हैं जबकि पत्रकार का काम है सवाल करते रहना. तब भी जब जनता उसे इस काम को कोई महत्व न दे. आज पूरे दिन दोनों पक्षों से इस तरह के मैसेज आते रहे. एक ने कहा महंगाई और कोरोना में अपनों की लाश लिए भाग रहे लोगों की आवाज़ उठाकर मैं माहौल बना रहा था और दूसरे ने कहा कि मरने दीजिए जनता को, आप जीवन में कुछ और कीजिए. 

यह सवाल बेहद गंभीर हैं. दोनों पक्षों की तरफ से आ रहे ताने और उलाहने में एक बात मैंने नोट की कि सब चाहते हैं कि मैं जनता की बात न करूं. उनसे नफरत करूं. क्या यह गंभीर नहीं है. क्या एक पत्रकार जनता की समस्या और सवालों से नफरत कर सकता है? उठाना कैसे बंद सकता है? रोज़गार के मुद्दे पर वादा अखिलेश यादव को भी करना पड़ा औऱ दूसरे दलों को भी. दोनों हार गए, लेकिन ऐसा नहीं था कि बीजेपी रोज़गार के मुद्दे पर हिसाब नहीं दे रही थी. चुनाव शुरू होने से पहले रोज़गार के दावों को लेकर करोड़ों रुपये के विज्ञापन देकर दावे किए गए. बीजेपी के संकल्प पत्र में लिखा भी है कि सरकार ने पिछले पांच साल में तीन करोड़ रोज़गार या स्व रोज़गार दिए हैं और अगले पांच साल में हर परिवार में एक रोज़गार या एक स्व रोज़गार देंगे. इसका मतलब है कि अगले पांच साल तक रोज़गार एक बड़ा सवाल रहेगा. हर परिवार से रोज़गार या स्व-रोज़गार देने का वादा कोई छोटा वादा तो नहीं है. इसलिए हमने सोचा कि आज से ही बेरोज़गारी के सवाल को लेकर बात शुरू कर देते हैं. तो हमने यूपी के ही अलग-अलग शहरों से इस मुद्दे पर लेकर नौजवानों से बात की. गोरखपुर के कुछ नौजवानों से पूछा कि क्या बेरोज़गारी नाम के मुद्दे का राजनीतिक अंत हो चुका है.  

छात्रों की आवाज़ों को ध्यान से सुनेंगे तो पता चलेगा कि चुनाव खत्म हुआ है, रोजगार का सवाल खत्म नहीं हुआ है. बीजेपी को मौका मिला है तो रोज़गार के सवाल पर भी मिला है. एक छात्र ने बताया कि योगी आदित्यनाथ ने पूर्वांचल में आकर हर घर में रोज़गार देने की बात की, इसलिए करनी पड़ी क्योंकि यहां मुद्दा था. इस इलाके में पश्चिम की तुलना में ज्यादा गरीबी थी.

बेरोज़गारों में भाजपा के भी उतने ही समर्थक हैं, कुछ का सब्र टूट गया तो कुछ एक और मौका देना चाहते थे. एक छात्र ने कहा कि कोरोना के कारण दो साल काम करने का मौका नहीं मिला इसलिए एक और मौका दिया है लेकिन रोज़गार का सवाल वे भूले नहीं हैं. चुनाव शुरू होने से पहले रेलवे की परीक्षा को लेकर छात्रों ने बिहार और यूपी में बड़ा आंदोलन शुरू कर दिया. उस आंदोलन से नाराज़गी का पता चला तो बीजेपी ने उसे मैनेज भी किया. आप याद करें कि सुशील मोदी सक्रिय हो गए. जनवरी महीने में लौट कर देखिए, दूसरे हफ्ते में रेलवे की परीक्षा का रिजल्ट निकला, उसके बाद उम्मीदवार इस बात को लेकर सवाल करने लगे कि जो रिजल्ट निकला है वो भर्ती की संख्या से 20 गुना से ज्यादा नहीं है जबकि रेलवे बोर्ड ने कहा कि बीस गुना ही है. छात्रों ने अपनी तरफ से डेटा दिया, ट्विटर पर ट्रेंड कराया, मीडिया ने कवर नहीं किया. जब छात्र सड़क पर उतरे तब जाकर सबका ध्यान गया. चूंकि चुनाव था इसलिए सरकार भी सतर्क हो गई. छात्रों की मांगों पर विचार करने के लिए एक हाई पावर कमेटी बना दी गई. इसी 5 मार्च को रेल मंत्री का ट्वीट है कि कमेटी के सामने तीन लाख सुझाव आए. दस मार्च को सुशील मोदी ने रेल मंत्री को धन्यवाद दिया औऱ कहा कि सभी मांगें मान ली गई हैं. इसके जवाब में रेल मंत्री का एक ट्वीट है कि छात्र हित राष्ट्र हित. क्या यह कोई छोटी समस्या थी? क्या इसका कवरेज कर, छात्रों की बातों को सामने लाकर हमने कोई गलती की? 

राजनीति अपने रास्ते चलती है. चुनाव कैसे जीता है इससे जुड़ी अगर सौ जानकारियां हैं तो पत्रकार और जनता को केवल तीन से चार जानकारियों का सिर्फ पता चलता है. इलाहाबाद में हमारे सहयोगी ने छात्रों से इन्हीं सब सवालों को लेकर पूछा कि क्या रोज़गार का मुद्दा मर गया. इसकी बात बंद कर देनी चाहिए. उन्होंने कहा कि डिप्टी सीएम हार गए हैं. इसका मतलब लोग प्रभावित हुए हैं. 

आप कैसे किसी पत्रकार को जनता से नफरत करने की सीख दे सकते हैं. अगर आप किसी की जीत के बाद जनता से नफरत करते हैं तो समस्या आप में हैं. मुझमें नहीं. इसलिए दस मार्च को जब बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला है तो उसके अगले दिन बेरोज़गारी को लेकर मैं प्राइम टाइम कर रहा हूं जिस तरह प्राइम मिनिस्टर अगले दिन अहमदाबाद में अपनी राजनीति को लेकर काम करने चले गए. यह बात दर्शक के बीच रखनी चाहिए. बहुमत का सम्मान और सरकार से सवाल दोनों दो अलग चीज़ें हैं.

अब इस राशन योजना को ही लीजिए. इसका एक पक्ष है कि सरकार ने यूपी के 15 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया. एक किलो नून दिया, एक किलो दाल दी, एक किलो तेल दिया. सबको दिया. लेकिन एक दूसरा पक्ष है. जिस प्रदेश में विकास के इतने दावे किए जा रहे हैं, उसकी अर्थव्यवस्था को नंबर दो पर पहुंचाने का दावा किया जा रहा है. वहां पर 24 करोड़ की आबादी में से 15 करोड़ ग़रीब क्यों हैं, तब क्या ऐसी आर्थिक नीतियों पर सवाल नहीं करने चाहिए? जिन 15 करोड़ लोगों को आप इस हालत में पहुंचा दें कि वे एक किलो तेल न खरीद सकें तो उनकी हालत और इस हालत के कारणों पर चुनाव के पहले और बाद में बात होती रहेगी? सिर्फ इसलिए कि इन्होंने बीजेपी को वोट किया है इनकी बात बंद नहीं की जा सकती.

आर्थिक उदारीकरण और विकास के तमाम दावों के इसी दौर में यह सवाल उतना ही महत्वपूर्ण है कि इससे कम सैलरी वाली नौकरी पैदा हो रही है, कम सैलरी में ज्यादा काम करने वाली नौकरी पैदा हो रही है औऱ ग़रीबी पैदा हो रही है. योगी सरकार ने दावा किया कि तीन करोड़ लोगों को रोज़गार दिया गया है. तब फिर 15 करोड़ को मुफ्त अनाज देने की नौबत क्यों आई, किसी ने भी तीन करोड़ रोज़गार को लेकर सवाल पूछा? हज़ारों करोड़ का गोदी मीडिया उद्योग दिन रात सरकार का गुणगान ही तो कर रहा है, तब भी शिकायत इस बात से है कि बेरोज़गारी और महंगाई को लेकर बात क्यों हो रही है? मीडिया के स्पेस में इसकी बात करने वाले कितने पत्रकार हैं? सरकार का गुणगान करने वाले कितने चैनल और कितने पत्रकार हैं? तराजू पर तौल लीजिए, स्थिति साफ हो जाएगी. 

आज बिहार के मगध विश्वविद्यालय के एक छात्र ने पत्र लिखा है कि वह 2018-21 सत्र का छात्र है. 2021 में ही ग्रेजुएशन हो जाना चाहिए, लेकिन अभी तक दो वर्ष के ही इम्तिहान हुए हैं. ऐसे सवालों से देश के तमाम राज्य भरे पड़े हैं. मुमकिन है यह छात्र बीजेपी का ही वोटर है, लेकिन क्या यह सवाल अहम नहीं है कि उसका करियर बर्बाद किया जा रहा है. इसे उठाना गलत कैसे हो जाता है. आप चाहेंगे कि आपके बच्चे जहां पढ़ रहे हैं वहां दो तीन साल तक इम्तिहान ही न हो, रिजल्ट ही न आए. कोरोना की दूसरी लहर के कवरेज पर सवाल उठाए जा रहे हैं लेकिन क्या उसका जवाब जनादेश से मिल जाता है? अभी तक दुनिया भर के देशों में कितने लोग मरे इसे लेकर रिसर्च हो रहे हैं, नए नए आंकड़े आ रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट की पहल पर भारत में कोरोना से मरे लोगों के परिजनों को पचास हज़ार करोड़ का मुआवज़ा मिल रहा है तो यह सब कैसे हो रहा है. किसी के सवाल करने से ही चीज़ें बेहतर हो रही हैं. 

आज ही लांसेंट का अध्ययन आया है कि 2020 और 2021 में कोविड से मरने वालों की संख्या जितनी रिपोर्ट हुई है, उससे तीन गुना अधिक लोगों की मौत हुई है. 191 देशों में सरकारी आकड़ों से ज्यादा लोग मरे हैं. भारत के बारे में लांसेट के अध्ययन में पाया गया है कि सरकारी आंकड़े की तुलना में 8 गुना ज्यादा मौत हुई है. यानी आठ लोग मरे हैं और दर्ज किया गया है एक. भारत का मीडिया जनादेश का बहाना बनाकर ऐसे सवालों की तफ्तीश नहीं करता है. जनादेश के बाद जानना बंद नहीं हो सकता. लांसेट के अध्ययन के अनुसार, भारत में कोविड की पहली और दूसरी लहर में मरने वालों की संख्या 40 लाख से अधिक हो सकती है जबकि आधिकारिक आंकड़े के अनुसार भारत में कोविड से 4 लाख 89 हज़ार लोगों की ही मौत हुई है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार एक लाख की आबादी पर 18 से अधिक की मौत हुई है, लेकिन लांसेट का अनुमान है कि एक लाख की आबादी पर मरने वालों की संख्या 152 से अधिक हुई. 

बिहार में तो जो सरकारी आंकड़े हैं उसका 26 गुना ज्यादा मौतें हुई हैं. यूपी में आधिकारिक संख्या से 22 गुना अधिक मौतें हुई हैं. असम में 19 गुना और छत्तीसगढ़ में 11 गुना अधिक मौत हुई है. अगर इस देश में मीडिया होता, कोई स्वतंत्र संस्था होती तो घर-घर से मरने वालों की सूची तैयार कर देती लेकिन, ऐसे प्रयास नहीं किए गए. कहां तो कहना चाहिए कि ऐसा क्यों नहीं हो रहा है, लेकिन ताने दिए जा रहे हैं कि जनादेश आया है, कोरोना की दूसरी लहर का कवरेज क्यों किया. 

जानने की प्रक्रिया बंद नहीं हो सकती. लांसेट का यह अध्ययन बता रहा है कि हमारे दौर की सबसे बड़ी आपदा के बारे में कितना कुछ जानना बाकी है. दुनिया में इस वक्त तेल के बढ़ते दामों की भारी तबाही है. पिछले साल जब युद्ध नहीं था तब सबने तेल के दाम झेले हैं. दबाव इस बार भी है. 

दिल्ली में 31 जनवरी से आंगनवाड़ी वर्कर हड़ताल पर हैं. 38 दिनों से इनकी हड़ताल चल रही है. अब उप राज्यपाल ने एस्मा लगा दिया है, जिसके बाद हड़ताल नहीं कर सकेंगी, लेकिन आज जंतर मंतर पर आंगनवाड़ी वर्कर ने फिर से प्रदर्शन किया है. इनकी मांग है कि आंगनवाड़ी वर्कर का वेतन 25000 हो और हेल्पर की सैलरी 20,000 हो. पक्के कर्मचारी का दर्जा मिले और पेंशन भी. जिन 27 कर्मचारियों को निकाला गया है उन्हें वापस लिया जाए. केजरीवाल सरकार ने इस आंदोलन के बाद वेतन बढ़ाया भी. 9500 से 12,000 रुपये किया और हेल्पर का 4000 से 6000 किया. दिल्ली सरकार का कहना है कि हरियाणा में 12000 रुपया मिलता है जबकि दिल्ली में 12,700 दिया जा रहा है. देशभर से उठ रही ऐसी मांगों से एक आवाज़ आ रही है कि कम सैलरी वाले लोगों का घर नहीं चल पा रहा है. काम ज्यादा है और वेतन कम है. इस दबाव से अलग अलग वर्ग परेशान हैं. ऐसी मांगों को सरकारें कब तक अनदेखा कर पाएंगी, आखिर छत्तीसगढ़ और राजस्थान में पुरानी पेंशन की बहाली हुई है, अन्य राज्यों में भी मांग उठ रही है. 

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