बीजेपी के लिए विधान परिषद चुनावों में 11 सीट जीतना निश्चित रूप से उनके आकलन से अधिक था। बीजेपी के वरिष्ठ नेता मान रहे थे कि वो ज्यादा से ज्यादा 10 सीटें जीतेंगे। लेकिन उनके गठबंधन का 12 सीटें जीतना और उनके समर्थित निर्दलीय का चुनाव जीतना निश्चित रूप से उनके लिए सुषमा, वसुंधरा, शिवराज पर हो रहे हमलों और घोटाले के छींटों से एक तरह का ड्रिंक इंटरवल के सामान था।
बिहार विधानसभा चुनाव के प्रचार का श्री गणेश करने से पहले इस परिणाम ने निश्चित रूप से उनके कार्यकर्ताओं और नेताओं का मनोबल ऊंचा किया है, लेकिन दबी जुबान में बीजेपी नेता भी मानते हैं कि ये चुनाव सत्ता का सेमीफाइनल नहीं माना जा सकता। क्योंकि इसमें कुल वोटरों की संख्या मुश्किल से 2 लाख होगी और चुनाव में पार्टी के प्रचार से ज्यादा उम्मीदवारों की आर्थिक स्थिति परिणाम पर असर डालती है।
इसलिए चाहे आरजेडी हो या बीजेपी या जेडीयू सब ने टिकट देने में एक ही फार्मूला अपनाया... क्या आप करोड़पति हैं? और आप अपनी सम्पति से कितने करोड़ चुनाव पर खर्च कर सकते हैं। क्योंकि जीत और हार में चुनावी प्रबंधन के अलावा यही एक सबसे ज्यादा प्रभावी फैक्टर था। लेकिन चुनाव परिणाम अपने पक्ष में आते ही बीजेपी ने तुरंत इसे सत्ता का सेमीफाइनल बता दिया और शायद जेडीयू और आरजेडी भी अनुकूल परिणाम आने पर यही करतीं।
विधान परिषद चुनाव में धनबल का प्रभाव कितना रहा, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जीत दर्ज करने वाले 24 उम्मीदवारों में एक-दो को छोड़कर सभी करोड़पति ही हैं। ये एक संयोग हो सकता हैं, लेकिन ये सचाई है जिसका खामियाजा आने वाले विधानसभा चुनावों में सभी राजनतिक दलों के प्रत्यशियों को उठाना पड़ेगा।
चुनाव के राजनतिक विश्लेषण में सबसे ज्यादा आरजेडी अध्यक्ष लालू यादव को कठघरे में खड़ा किया जा रहा हैं। विपक्षी दलों का कहना हैं कि पटना से निर्दलीय रीतलाल यादव का जीतना इस बात को साबित करता है कि यादव वोटरों पर उनका प्रभाव नहीं रहा। इस बात पर कोई शक नहीं कि 90 के दशक में यादव वोटरों पर लालू यादव की जो पकड़ थी वो इन दिनों नहीं दिख रही।
अगर आप इस तर्क को मान भी लें तो पटना में सुशील मोदी, रामकृपाल यादव और नन्द किशोर यादव के रहने के बाबजूद बीजेपी उम्मीदवार क्यों हारे। इसी तर्क को अगर आप पटना से बहार ले जाएं तो केंद्र में रामविलास पासवान के मंत्री और दलित वोटरों पर पकड़ होने के बाबजूद हाजीपुर से उनके उम्मीदवार को क्यों हार का मुंह देखना पड़ा। आखिर उपेन्द्र कुशवाहा का लोकसभा चुनाव में 100 प्रतिशत का स्ट्राइक रेट था, इस चुनाव में तीनों सीट पर क्यों हार गए।
बीजेपी नेताओं के लालू यादव वाले तर्क से रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा दोनों की पकड़ कमजोर हो गई है और उनके गठबंधन में हाल में शामिल जीतन राम मांझी के गृह ज़िले गया की सीट पर भी जेडीयू की जीत हुई, तो क्या मांझी भी अपनी नई पहचान खो चुके हैं। पूर्व सांसद रंजन यादव जो इन चुनाव परिणाम के बाद नीतीश कुमार को लालू यादव से संबंध तोड़ने की सलाह दे रहे हैं उनसे आरजेडी के नेतोओं का कहना हैं कि क्या वो यही सलाह बीजेपी के नेतोओें को रामविलास, उपेन्द्र कुशवाहा और मांझी से संबंध तोड़ने के लिए भी देंगे।
लेकिन इस बात में कोई शक नहीं था कि बीजेपी का चुनावी प्रबंधन हर मायने में 20 था। वो दूसरी पार्टियों से उम्मीदवार तोड़ने से लेकर बूथ प्रबंधन तक सजग और सतर्क थी। आने वाले दिनों में नीतीश कुमार और लालू यादव के लिए ये सबक भी है कि अपनी दूरी कम कर साथ-साथ दोनों पार्टियों के कार्यकर्तोओें को लाएं तभी उनके वोटरों में अपने गठबंधन के प्रति विश्वास और उत्साह दोनों बढ़ेगा।
इसलिए अगर लालू यादव को ये साबित करना है कि यादव वोटरों पर उनकी पकड़ कायम है तो उन्हें न केवल अपनी पार्टी बल्कि अपने संगठन को भी संदेश देने की जरूरत है कि वो नीतीश कुमार को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाने के लिए तन-मन से लगें। दोनों पार्टियों में अब भी तालमेल का आभाव है। नीतीश, लालू व कांग्रेस जब तक ईमानदारी से तालमेल नहीं करते, तब तक शायद बिहार में बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने की कल्पना बेकार है।
This Article is From Jul 11, 2015
मनीष कुमार : बिहार विधान परिषद चुनाव परिणाम के क्या मायने हैं?
Manish Kumar
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Updated:जुलाई 11, 2015 12:58 pm IST
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Published On जुलाई 11, 2015 12:38 pm IST
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Last Updated On जुलाई 11, 2015 12:58 pm IST
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