अख़बारों और TV की बताई बातों को सही मानने के अलावा हमारे पास चारा ही क्या है...? गुज़र-बसर के लिए काम में व्यस्त लोगों के पास देश के हालात जानने का इकलौता जरिया मीडिया ही है, और ज़्यादातर TV चैनल और अख़बार दिन-रात बताने में लगे हैं कि देश की माली हालत मस्त है. लेकिन एक वक़्त आता है कि लोग खुद भी बहुत कुछ महसूस करते हैं. लोग जब काम पर जाने के लिए घर से निकलते हैं, तो रास्ते में उनकी नज़र भी देश के माहौल पर पड़ती है. आजकल इक्का-दुक्का बचे ऐसे अख़बारों को भी लोग देख लेते हैं, जो देश के वास्तविक हालात बताने से बाज़ नहीं आते. कुछेक TV चैनल भी माहौलबाजों के झांसे से बचाते रहते हैं. यानी ऐसा नहीं है कि हकीकत देर तक छिपी रह सके - चाहे खुद की हो, चाहे देश की, देरसबेर माली हालत खुद भी बोलने लगती है.
बोलने लगी है माली हालत : देश की पतली माली हालत के लक्षण पचासों है. फिलहाल एक बड़ा लक्षण सामने है. मंदी सड़क पर निकल आई है. मसलन, कार और बाइक बनाने वाली कंपनियों से कर्मचारियों की छंटनी होने लगी है. खोजी किस्म के मीडियाकर्मी उन शोरूमों की तस्वीरें लेकर आए हैं, जिनमें ताले पड़ गए. उन कर्मचारियों से बात करके आए हैं, जो चार-छह महीने से खाली बैठे हैं या बेगार पर लगे हैं. दरअसल, अपने देश में बेरोज़गारी को नापने का थर्मामीटर आजकल गुम है, सो, पता नहीं चलता कि बेरोज़गारी का बुखार कितने महीनों से चढ़ा हुआ था, इस समय यह मरीज़ किस हालत में है. फिर भी एक मोटा अनुमान है कि देश में अकेले ऑटोमोबाइल क्षेत्र के लाखों कामगार फैक्टरियों और शोरूम से बाहर हो गए. आटोमोबाइल उद्योग का कच्चा माल और बना सामान इघर-उधर लाने-ले जाने वाले हजारों ट्रक अपनी जगह खड़े हो चुके हैं. इन ट्रक ड्राइवरों को कुछ नहीं सूझ रहा है कि देश में अचानक हो क्या गया. दरअसल वे मंदी के शिकार हो गए हैं. ऑटोमोबाइल के अलावा दूसरे क्षेत्रों की हालत भी कमोबेश ऐसी ही है. इसे समझने के लिए ढुलमुल शेयर बाजार पर नज़र डाल लेना काफी है.
रोज़मर्रा के सामान की खपत घटी : बाज़ारों में खरीदार बहुत पहले से घटते आ रहे थे. नई बात यह पता चली है कि रोज़मर्रा के सामान तक की मांग घटने लगी है. जल्दी-जल्दी बिकने वाले सामान, यानी बिस्कुट, डबलरोटी, तेल, साबुन जैसे रोज़मर्रा के सामान की खपत घटने से FMCG क्षेत्र के उद्यमी चिंता में हैं. FMCG, यानी फास्ट मूविंग कंज़्यूमर गुड्स का यह क्षेत्र देश की माली हालत का बैरोमीटर माना जाता है. सबसे ज़्यादा हैरत की बात यह है कि देश के ग्रामीण इलाकों में इस तरह के सामान की खपत घट गई. गांव के लोग ही हैं, जो वही सामान खरीद पाते हैं, जो बहुत ज़रूरी हो. देश की आधी से ज़्यादा आबादी वाले ये लोग अगर रोज़मर्रा का जरूरी सामान भी नहीं खरीद पा रहे हैं, तो समझ लेना चाहिए कि गांव की जेब किस मुकाम पर पहुंच चुकी है. यह मंदी का एक लक्षण तो है ही, इस हालत को मंदी का एक कारण भी समझा जा सकता है.
बहुत पहले से परेशान है रीयल एस्टेट : देश में सबसे ज़्यादा पैसा घुमाने वाला क्षेत्र रीयल एस्टेट माना जाता है. वैसे भी रोटी, कपड़े के बाद मकान भी बुनियादी ज़रूरतों की लिस्ट में शामिल है, लेकिन पिछले चार साल से इस क्षेत्र की हालत यह है कि जो मकान पहले से बने पड़े हैं, वे ही नहीं बिक रहे थे. उसी दौरान नोटबंदी ने कमर तोड़ दी थी. GST और चौतरफा मंदी की मार ने मकानों के ज़रूरतमंदों को चुप बिठा दिया था. आंकड़ों को छिपाने के नए युग में बिल्कुल भी अंदाजा नहीं लगाया जा सकता कि इस समय निर्माण मजदूरों की बेरोज़गारी का क्या आलम है. सिर्फ सरसरी निगाह ही काफी है. उसका इस्तेमाल किया जाए, तो कस्बों-शहरों के लेबर चौकों पर मजदूरों की भारी भीड़ बढ़ती जा रही है.
NPA की हकीकत पर एक नज़र : देश की अर्थव्यवस्था में बैंकों के फंसे कर्ज़ का मसला हद से ज़्यादा बड़ा है. पिछले एक साल में इस NPA को सुधारने का दावा किया जा रहा है, लेकिन फॉरेंसिक एकाउंटेंसी के नज़रिये से इस पर अभी भी गौर नहीं हो रहा है. एक चर्चा यह है कि जो कर्ज़दार कर्ज़ वापस नहीं कर पा रहे थे, वे दो-चार दिन के लिए बाज़ार से ऊंचे ब्याज पर कर्ज़ लेकर बैंक को दे रहे हैं और हाल के हाल उसी बैंक से पहले से ज़्यादा कर्ज़ लेकर निजी कर्ज़दाता को लौटा रहे हैं. बिल्कुल भी नहीं देखा जा रहा है कि कर्ज का पैसा उत्पादक गतिविधि में लग रहा है या नहीं. अगर वाकई ऐसा हो रहा हो, तो तय है कि देश में औद्योगिक गतिविधि नहीं बढ़ रही है, बल्कि NPA में सुधार का भ्रम पैदा हो रहा है. गौरतलब है कि यही प्रवृति कर्ज़ की रीस्ट्रक्चरिंग के नाम से की गई थी और उसने NPA की समस्या को भीतर ही भीतर बढ़ाया था. इस बात को ज़िक्र साढ़े तीन साल पहले NDTV के इसी स्तंभ में एक आलेख देश की माली हालत को लेकर ऊहापोह में तो नहीं है सरकार...? में किया भी गया था. बहरहाल, यहां अपराधशास्त्रीय नज़रिये से इसे दोहराना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि यही वह मामला है, जो आने वाले दिनों में एक हादसा बनकर सामने आ सकता है. इस मामले की हकीकत को उजागर करने मे खोजी पत्रकार सरकार की बहुत बड़ी मदद कर सकते हैं.
अर्थव्यवस्था के आकार की रेस में पिछड़ना : बहुत से बहसबाज़ बहस कर सकते हैं कि देश की माली हालत नाजुक होने के अभी पर्याप्त लक्षण नहीं हैं, सो, उन्हें देश की माली हालत का वह आंकड़ा याद दिलाया जा सकता है कि हाल ही में अर्थव्यवस्था के आकार के लिहाज़ से हम अचानक पांचवें से गिरकर सातवें नंबर पर आ गए हैं. वैसे अभी यह कोई खास बात नहीं है, लेकिन यह बात ज़रूर चिंता की है कि तिमाही दर तिमाही हमारी आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार सुस्त पड़ रही है. सरकारी तौर पर ही इस साल देश की GDP का अनुमान सात फीसदी से कम का लगा है. गैरसरकारी अनुमान हद से हद छह से साढ़े छह फीसदी का ही है. और इतनी रफ़्तार का दावा भी इसलिए विवादों में है, क्योंकि इसे रोजगारविहीन आर्थिक वृद्धि साबित किया जा चुका है.
बेरोज़गारी का विस्फोटक रूप : अत्याधुनिक प्रवृत्ति के मीडिया ने लाख कोशिश कर ली कि बेरोजगारी की बात कर सरकार को मुश्किल में न डाला जाए, लेकिन पिछले साल सांख्यिकी विभाग के ताले में रखे गए आंकड़े उजागर हो ही गए थे. हालांकि तब भी सरकार का तरफदार मीडिया बेरोजगारी की हकीकत को छिपाए रखने के काम में कामयाब रहा. लेकिन अब बेरोजगारी के मोर्चे पर पानी सिर से ऊपर है. किसी को नहीं सूझ रहा है कि इतनी बड़ी हो चुकी बेरोज़गारी की आफत को कम कैसे करें. दरअसल सारा मामला देश की माली हालत का है. पैसा हो, तो कारोबार बढ़े, काम-धंधे बढ़ें. इसीलिए दुनियाभर के विद्वान कहते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक और न्यायिक तंत्रों से बड़ा कुछ होता है, तो वह अर्थतंत्र ही होता है. राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र और न्यायशास्त्र से भी ऊपर माने जाने वाले अर्थशास्त्र को व्यवस्थाओं का संप्रभु यूं ही नहीं माना जाता है.
कहां गुम है अर्थशास्त्र : अर्थशास्त्र की जितनी भी शाखाएं हैं, उनमें आजकल सबसे महंगी शाखा राजनीतिक अर्थशास्त्र कही जाती है. इस विषय की अच्छी पढ़ाई करने वालों को दुनिया में कहीं भी ऊंची नौकरी मिल जाती है. उधर अपने देश का समाजशास्त्र आज तक आर्थिक प्रभुत्व से छिटककर बाहर नहीं आ पाया. न्याय व्यवस्थाएं भी आर्थिक न्याय देने में तत्परता दिखाती हैं. कोई गौर से देखे, तो यही दिखेगा कि धर्मशास्त्र और राजनीतिशास्त्र की सहचरी भी आर्थिक कारणों से होती है. यानी हर तरह से अर्थशास्त्र ही संप्रभु है और अपने देश में इसी का पता नहीं चल रहा है कि वह कहां गुम है.
कहने की एक ज़रूरी बात यह बचती है कि अख़बारों और TV के शौकिया, यानी गैरपेशेवर अर्थशास्त्रियों से ज़्यादा कुछ हो नहीं पा रहा है. आहट भयावह मंदी की है. जैसी हालत है, वह खुशगवारी के प्रचार से सुधर नहीं सकती. याद करने का मौका है कि कोई चार साल पहले इसी स्तंभ में फीलगुड को लेकर आगाह किया गया था. चार साल पहले के इस आलेख (फील गुड में तो नहीं फंस रहा देश...) में मंदी की आहट का भी ज़िक था. अनुभवी अर्थशास्त्री बताते रहते हैं कि फीलगुड एक हद तक ही काम करता है. वह हद पार होती नज़र आ रही है. यह वक़्त अनुभवी और हुनरमंद अर्थशास्त्रियों की मदद लेने का है.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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