सिनेमा हमेशा सिनेमा के टूल से नहीं बनता है. उसका टूल यानी फ़ॉर्मेट यानी औज़ार समय से भी तय होता है. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के छात्रों के लिए बनी इस फ़िल्म को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के चश्मे से मत देखिए. व्हाट्सऐप ने हमारा आपका क्या हाल कर दिया है, उससे देखिए. एक फ़िल्मकार तय करता है वह उसी के फ़ॉर्मेट में जवाब देगा. वह जवाब देकर निकल जाता है. उतनी ही चालाकी और साहस के साथ. इस दौर में बोलने पर संपादक एंकर निकलवा दिए जाते हों, उसी दौर में कोई सुना के निकल जाता है. सेंसर सर्टिफ़िकेट लेकर!
अनुभव सिन्हा की फ़िल्म 'मुल्क' की बात कर रहा हूं. शाहिद और गोड्से को आमने सामने रख देती है. चौबे जी और मोहम्मद अली को रख देती है. दोनों के गुमराह बच्चों को सामने रख देती है. फिर इन सबको दर्शकों के सामने रख देती है. दर्शक जो व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से पहले उल्लू बन चुका है, वो उल्लू बनकर बैठा है. हंस रहा है. फ़िल्म में भी और हॉल में भी. फ़िल्म उन चैंपियनों को भी मौक़ा देती है जो मुसलमानों के एक्सपर्ट हो चुके हैं कि ‘वो’ लोग कैसे कैसे होते हैं और उनको भी रख देती है जो जानते हैं, उनके साथ जीते हैं मगर इन चैंपियनों के बहकावे में आ जाते हैं. सारे उल्लू इसी फ़िल्म में जमा हैं. दानिश भी उल्लू है.
मुख्यधारा का मीडिया इन सवालों से नहीं टकराएगा. डर गया है. तो कोई तो आगे आएगा. यह फ़िल्म है या नहीं या फिर टीवी से निकली फ़िल्म है जो वापस टीवी में घुस जाना चाहती है, आप देखिए. इसका एक गाना है ठेंगे से. याद रखिए. कुछ सवाल दोनों तरफ़ भी छोड़ जाती है कि भाई देखो अपना अपना. कुछ बेहद ज़रूरी हिस्सा तब गुज़र जाता है जब आपको लगता है कि ये तो आप जानते हैं और बेख़बर हो जाते हैं. व्हाट्सऐप चेक करने लगते हैं! उसी पर तो फ़िल्म है. अब जज आजकल एंकरों की तरह देखे जाने लगे हैं. वही कि जिधर धारणा होगी, भीड़ होगी, सरकार होगी, उधर जज भी होंगे. यह बात जजों ने ख़ुद कही है. इसलिए कोई जज इस व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी की फैलाई धारणा के ख़िलाफ़ फ़ैसला दे दे, फ़ेयर रहे, वो भी अजीब लगता है! काम करने से पहले हर कोई शक के दायरे में है. मुल्क ही सवालों के दायरे में है. झूठ को सच की तरह बड़ा किया जा रहा है. उसके सामने लोगों को प्यादा बनाया जा रहा है. देखकर बताइयेगा 'मुल्क' कैसी लगी. आपका मुल्क कैसा लगा? कभी हो सके तो भारत में बनी 'मुल्क़' और पाकिस्तान में बनी 'ख़ुदा के लिए' दोनों को साथ रखकर देखिएगा.
हां साहस की बात तो भूल ही गया. ध्वनि के हिसाब से, शब्दों के उच्चारण से संस्कृत निष्ठ हिन्दी न विद्वान बनाती है और न अच्छा वक़ील. इस एरोगेंस (अहंकार) को खोखला और पंचर कर देती है 'मुल्क'. क़ौम और धर्म की बहस का हिसाब नहीं हो सकता मगर क़ौम के चिरकुट रखवालों की कान तो उमेठी ही जा सकती है. सो उमेठी गई है. वेल डन अनुभव.
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This Article is From Aug 04, 2018
व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी का मुल्क, साहस भी कोई चीज़ होती है
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:अगस्त 04, 2018 19:05 pm IST
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Published On अगस्त 04, 2018 19:05 pm IST
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Last Updated On अगस्त 04, 2018 19:05 pm IST
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