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This Article is From Oct 24, 2020

तेजस्वी ने साबित किया, नहीं हैं वो 'बिहार का पप्पू'

Swati Chaturvedi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अक्टूबर 25, 2020 09:26 am IST
    • Published On अक्टूबर 24, 2020 21:19 pm IST
    • Last Updated On अक्टूबर 25, 2020 09:26 am IST

बिहार के मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल की अगुवाई कर रहे तेजस्वी यादव को कुछ हफ्तों पहले तक (उनके पिता लालू प्रसाद यादव जेल में हैं) खानदानी राजनेता कहकर खारिज कर दिया गया था, बहरहाल पूरी तरह अनिश्चितकाल तक के लिए नहीं.

31 साल के तेजस्वी यादव को मध्यम वर्ग की उम्मीदों के अनुरूप चलने वाले और अधिकारप्राप्त नेता के तौर पर देखा गया था. नीतीश कुमार के साथ राजद के गठजोड़ के दौरान जब 2015 में गठबंधन सरकार बनी थी तो वह मंत्री थे. हालांकि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यादव परिवार के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का बोझ ज्यादा देर तक सह नहीं सके. नीतीश कुमार राजद और कांग्रेस के साथ अपने नए गठबंधन से बाहर आ गए और मौके का बेसब्री से इंतजार कर रही भाजपा के साथ हाथ मिला लिया. भाजपा के साथ उनकी करीब तीन दशकों तक लंबी साझेदारी रही थी.

नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री रहने के दौरान, तेजस्वी ने जमीनी और बड़े जनाधार वाले नेता की काबिलियत होने की शान दिखाने की कोशिश नहीं की, जबकि उनके पिता लालू प्रसाद यादव ऐसे नेताओं की फेहरिस्त में सबसे अलग माने जाते हैं. न ही उन्होंने समर्पित होने का दंभ भरा, वह अक्सर बड़ी और महत्वपूर्ण बैठकों से नदारद रहते थे. इनमें उनके मंत्रालयों की बैठकें भी शामिल थीं. तथ्यों के साथ यह नतीजा निकालना बेहद आसान था कि उस वक्त लालू के पास नीतीश से कहीं ज्यादा सीटें होने के कारण उनके बेटों को सुविधानुसार राजनीति करने का मौका मिला.

लालू के जेल जाने के बाद मार्च 2018 में इस पारिवारिक पार्टी की कमान तेजस्वी के हाथ में आ गई. पहले ही लड़खड़ा रही राजद को संभालने में तेजस्वी की असमर्थता का अंदेशा जताते हुए पार्टी के भीतर और बाहर उनकी आलोचना की गई. हालांकि इस मुहिम के बीच तेजस्वी यादव ने नए तेवर दिखाए हैं. उनमें कोई थकावट नजर नहीं आ रही है और एक दिन में वह 12 रैलियां तक कर रहे हैं. रैलियों में वह भारी भीड़ जुटा रहे हैं, जैसे कि बिहार का चुनाव उनके राजनीतिक भविष्य का फैसला करने वाला हो. उनकी रैलियों में जनसैलाब इस कदर उमड़ रहा है कि नीतीश कुमार की पार्टी और बीजेपी को बयान देना पड़ा कि यह महज सियासत के नए खिलाड़ी को देखने के लिए मतदाताओं में उत्सुकता मात्र है.  

जब यह पूछा गया कि क्या लालू इस तरह की प्रतिक्रिया को लेकर उत्साहित नहीं हैं? क्या यह नीतीश कुमार की जीत के सिलसिले का अंत नहीं है? तो निजी तौर पर, दोनों दलों की ओर से पूरी छूट दी गई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की साझा रैली में ज्यादा से ज्यादा भीड़ जुटाई जा सके. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बिहार चुनाव में पहली रैली थी.

तेजस्वी ने इस हफ्ते की शुरुआत में एनडीटीवी से कहा था, अगर दूसरा पक्ष वास्तव में यह यकीन करता है कि वह अनुभवहीन और अपरिपक्व हैं तो बड़े नेताओं को हेलीकॉप्टर लेकर उन इलाकों में उनका पीछा करने की जिम्मेदारी क्यों दी गई है, जहां वह प्रचार करने जाते हैं. वे जानते हैं कि तेजस्वी एक बड़ा खतरा बनकर उभरे हैं, जबकि पहले यह एकतरफा चुनाव के तौर पर प्रतीत हो रहा था.

ओपिनियन पोल अमूमन नीतीश की अगुवाई वाले गठबंधन की आसान जीत दिखा रहे हैं, लेकिन इन्हीं में से एक ने दिखाया है कि मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार के बाद तेजस्वी दूसरा सबसे पसंदीदा विकल्प बनकर उभरे हैं.

अपने पिता लालू की तरह तेजस्वी भी नीतीश की कमजोरियों पर प्रहार करते हैं. मुख्यमंत्री की हालिया कई रैलियों में छोटे समूहों ने लालू और राजद के पक्ष में नारेबाजी की है, समझा जा रहा है कि इन बातों ने नीतीश को असहज कर दिया है.

मां और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी द्वारा बनाया गया नाश्ता करने के बाद प्रचार पर तेजस्वी बार-बार यह दोहराना नहीं भूलते कि नीतीश कुमार थक गए हैं. तेजस्वी राज्य भर में अपने समर्थकों को यह भी बताते हैं कि बिहार में लगातार सत्ता की कमान हाथ में होने की भरोसे के कारण नीतीश ने लॉकडाउन के दौरान प्रवासियों की मदद के लिए कुछ नहीं किया. लिहाजा लाखों बिहारी बेरोजगार हो गए और घर लौटने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं रहा.

नीतीश, जो प्रायः चुनाव प्रचार में मुद्दों पर बात करते हैं. वह भी अब तेजस्वी के आरोपों के जवाब में निजी हमले करने से नहीं चूकते. इससे यह संकेत जाता है कि इस सियासी खेल में युवा नेता ही तय कर रहा है कि कब कौन सी चाल चलनी है. 

विश्लेषकों के लिए यह पहचान करना आसान है कि सियासत से कभी खारिज कर दिया गया नेता वापसी कर रहा है. बीजेपी की आईटी सेल ने कमतर आंकने के लिए उन्हें “बिहार का पप्पू” करार दिया है, ताकि उन्हें परिवार का नाकारा उत्तराधिकारी बताकर अपने पसंदीदा टारगेट राहुल गांधी से तुलना की जा सके.

तेजस्वी को अभी बहुत कुछ साबित करना है और उनका पिछला रिकॉर्ड ज्यादा उल्लेखनीय नहीं रहा है. जब प्रवासियों ने दिल्ली और अन्य शहरों से पैदल घरों की ओर लौटना शुरू किया, तो वह केवल ट्विटर पर दिखाई पड़ रहे थे. कथित तौर पर वह दिल्ली में अपने परिवार के फॉर्महाउस पर ठहरे हुए थे. लेकिन अपने पिता की तरह और राहुल गांधी से उलट, उनके भीतर जनता की जुबान पर चढ़ जाने वाले नारे गढ़ने और मतदाताओं से सीधे जुड़ने की कला है.

विशेष तौर पर, विषम आर्थिक परिस्थितियों के इस दौर में युवा दस लाख सरकारी नौकरी देने के उनके वादे को लेकर जोश में हैं. इस वादे को पूरा करने के खर्च और व्यावहारिकता पर सवाल खड़े करने के बाद बीजेपी ने कहा है कि वह इससे बेहतर कर सकती है. उसने 19 लाख रोजगार और बिहारवासियों को मुफ्त कोरोना वैक्सीन देने का वादा किया, जिस पर विवाद भी हुआ. 

प्रधानमंत्री की अपनी लोकप्रियता पहले की तरह मजबूत बनी हुई है. ऐसी पूर्व धारणा बनी हुई है कि चुनाव के बाद भाजपा कमान संभालेगी. इन सबने सत्ता विरोधी मजबूत स्वरों का सामना कर रहे नीतीश को और किनारे पर ला दिया है.

भाजपा ने भरोसा दिया है कि अगर वह ज्यादा सीटें जीतती भी है तो भी वह अपने किसी नेता को कमान सौंपने की बजाय नीतीश के फिर से मुख्यमंत्री बनने के समझौते को नहीं तोड़ेगी. लेकिन किसी के लिए भी आशय को समझना मुश्किल नहीं है. बिहार की जनरेशन नेक्स्ट के एक अन्य नेता चिराग पासवान, जो अपने बलबूते चुनाव मैदान में उतरे हैं. उन्होंने नीतीश को हराने की हुंकार भरी है, या कम से कम ऐसा करने के लिए अपना पूरा दमखम दिखा रहे हैं. 

चिराग भी भाजपा के सहयोगी हैं. नीतीश को दुश्मन नंबर एक करार देने में उनके फायदे में किसी का नुकसान नहीं है.चिराग बीजेपी को बिहार की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने में परोक्ष मदद कर रहे हैं. वह नीतीश के वोट में सेंध लगा रहे हैं. बीजेपी लगातार इससे इनकार कर रही है.  वह खुले तौर पर उन्हें फटकार लगाने का असफल प्रयास भी कर रही है. चिराग तेजस्वी से छह साल बड़े हैं और अपने पिता राम विलास पासवान की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं. 

चिराग का बॉलीवुड करियर तो परवान नहीं चढ़ पाया, लेकिन वह खुद को ऐसा कहने से रोक नहीं सके कि उनके हृदय में प्रधानमंत्री मोदी बसते हैं और वह अंतिम सांस तक उनके साथ रहेंगे. इन सबसे नीतीश को उधेड़बुन में बनाए रखने में बीजेपी को मदद मिल रही है. अपने अन्य सहयोगियों की तरह भाजपा अब जदयू के साथ गठबंधन में भी बढ़त बना चुकी है. चिराग औऱ तेजस्वी भी लंबे समय तक दोस्त रहे हैं, जिनका कभी क्रिकेट को लेकर भी जुड़ाव रहा है. अब दोनों का एक साझा हित नीतीश कुमार को चक्रव्यूह में घेरने का है.

साजिशों का दायरा इस कदर बढ़ गया है कि नीतीश को यह संदेह भी है कि एक वक्त उनके रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर का भी इसके पीछे हाथ हो सकता है. हालांकि चिराग और प्रशांत किशोर दोनों इससे इनकार कर चुके हैं. 

अपनी रैलियों में असहाय दिख रहे नीतीश कुमार चौथी बार सत्ता में आने की कोशिश के तहत मतदाताओं को जंगलराज की याद दिलाना नहीं भूलते, जो कि लालू प्रसाद यादव के शासन के वक्त चरम पर था. यह तय नहीं है कि इन सबका कितना असर पड़ेगा. ऐसा लगता है कि मतदाता नीतीश से उनके 15 साल के शासन का हिसाब मांगना चाहते हैं.

हमारे पास राजनीतिक विरासत के दो उत्तराधिकारी हैं, जो कुछ बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं. दूसरी ओर अनुभवी नीतीश कुमार, जो राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए सहयोगियों के बीच पाला बदलते रहते हैं. और बीजेपी भी है, जिसने नीतीश को दोबारा मुख्यमंत्री बनाने का वादा भी किया है. दांव बहुत बड़ा है.

स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...

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