कोई भी चुनाव इतना छोटा नहीं है कि उसे नजरअंदाज किया जाए. मोदी-शाह युग में भाजपा के लिए तो कतई नहीं. हर चुनाव सहयोगियों को परखने, तैयार करने या उनकी ताकत खत्म करने का अवसर है. यह विस्तार, विस्तार और ज्यादा विस्तार है.
लिहाजा हैदराबाद के स्थानीय निकाय चुनाव में देखा जा रहा है कि भाजपा अपने बड़े सितारों को उतार रही है. ग्रेटर हैदराबाद नगर निकाय चुनाव में मतदान 1 दिसंबर को होना है. अविश्वसनीय तरीके से भाजपा के प्रचारकों में गृह मंत्री अमित शाह, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी और प्रकाश जावड़ेकर, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा युवा मोर्चा के अध्यक्ष तेजस्वी सूर्या शामिल हैं. इस दांव ने हैदराबाद की सत्तारूढ़ पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति के मन में भी कुछ संदेह पैदा कर दिया है. भाजपा ने बेहद सावधानी से अपनी “दक्षिण की ओर देखो” की योजना को बड़ी प्राथमिकता के तौर पर तय किया है. इसके लिए अभिनय से राजनीति में आईं खुशबू को कुछ दिनों पहले कांग्रेस से भाजपा में शामिल कराया गया. इस कदम की योजना को तैयार करने और उसे मूर्तरूप देने का कार्य बीएल संतोष ने किया, जो पर्दे के पीछे काम करने वाले भाजपा के बड़े नेता के तौर पर उभर रहे हैं.
आरएसएस से भाजपा में जिम्मेदारी मिलने के बाद वह संगठन के प्रभारी महासचिव का पद संभाल रहे हैं. यह बेहद महत्वपूर्ण पद उनके कद को दर्शाता है, उनकी महत्वाकांक्षा कथित तौर पर उनके गृह नगर कर्नाटक में बड़ी और सार्वजनिक तौर पर स्वीकार की गई भूमिका की ओर केंद्रित है. हालांकि वहां उन्हें अपने प्रतिद्वंद्वी और मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के मुकाबले संतोष करना पड़ेगा, जिनके पास बड़ा जनाधार है, शाह को भी इसे स्वीकार करना पड़ता है.
तमिलनाडु में सहयोगी दल एआईएडीएमके के साथ तनाव को शांत करने के लिए शाह की हालिया चेन्नई यात्रा का नतीजा यह रहा कि दोनों पक्षों ने जोश से गठबंधन जारी रखने का ऐलान किया. शाह द्वारा यहां 70 हजार करोड़ रुपये की परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाने के कदम ने निस्संदेह मदद की. तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और हैदराबाद को न केवल उस चुनाव के लिए एक कसौटी माना जा सकता है, बल्कि बंगाल के महत्वपूर्ण चुनाव के लिए भी. जहां भाजपा द्वारा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को सत्ता से हटाने के लिए बड़ा प्रयास दिखाई देगा.
यही वजह है कि हैदराबाद निकाय चुनाव में भाजपा इन सभी आजमाए मुद्दों को परख रही है: जिन्ना, बिरयानी, पाकिस्तान और सर्जिकल स्ट्राइक. चुनाव को सांप्रदायिक बनाने के प्रयास से भाजपा को वह महत्वपूर्ण निष्कर्ष मिलेंगे, जिनका इस्तेमाल वह बंगाल के लिए रणनीति को धार देने में कर सकती है, जहां मुस्लिम आबादी 30 फीसदी के करीब है. बंगाल में 300 में से 100 सीटों पर वे निर्णायक भूमिका में हैं और पारंपरिक तौर पर ममता बनर्जी के समर्थक माने जाते हैं.
हैदराबाद में प्रचार के दौरान भाषणों में हिन्दू वोटों को एकजुट करने की कोशिश हो रही है और उनका निशाना एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी हैं, जो हाल ही में बिहार में पांच सीटें जीतकर अपनी अहमियत साबित कर
चुके हैं.

आलोचक 51 साल के ओवैसी को पिछले दरवाजे से वोट काटने वाला “वोट कटुआ” और शाह का सहयोगी मानते हैं, वह भी मैदान में कूद पड़े हैं, जैसा उन्होंने बिहार में किया था और विपक्ष की रणनीति को बिगाड़ दिया था. जिस क्षण ही चार बार के सांसद ओवैसी ने बंगाल चुनाव में उतरने की अपनी रणनीति का खुले तौर पर इजहार किया था, उससे हड़बड़ाईं ममता बनर्जी ने उन्हें “भाजपा की बी टीम” करार दिया, जो बंगाल में सेकुलर वोटों का विभाजन करेंगे और वह शाह के गोपनीय मकसद को पूरा करने के मिशन पर हैं.
विचारकों के मुताबिक, भाजपा द्वारा उन पर हमला करना, मुस्लिम वोटरों के मन में उनकी प्रति भरोसा पैदा करने के लिए है, ताकि वे उन्हें चुनें, न कि अन्य गैर भाजपाई दलों को. इसे नेताओं के बीच नूरा कुश्ती (पहले से ही तय नतीजों के साथ) या डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यूएफ की फाइट कहा जाता है. शाह को ऐसी “गोपनीय समझ” पैदा करने में महारत हासिल है. उदाहरण के तौर पर बिहार में चिराग पासवान की अगुवाई वाली एलजेपी ने भाजपा के सहयोगी नीतीश कुमार को बड़ा नुकसान पहुंचाया. वह भाजपा के साथ साझेदारी में बेहद लचर प्रदर्शन के साथ दूसरे नंबर पर हैं.
ओवैसी भाजपा के साथ रिश्तों के सभी आरोपों को नकारते हैं, तो फिर एक निकाय चुनाव में कद्दावर नेताओं की फौज उतारने को लेकर संदेह से भरी टीआरएस और एआईएमआईएम सवाल क्यों. ओवैसी और चिराग के पास शाह द्वारा अपने सहयोगियों को संभालने के लिए तैयार किया गया रणनीतिक सूत्र हो सकता है, अगर ओवैसी जानते हैं तो वह बता नहीं रहे हैं. पासवान इस मामले में कुछ हद तक पारदर्शी रहे हैं, शायद अनजाने में उन्होंने ऐसा किया हो.

आरएसएस की सोच है कि भाजपा अब भारतीय राजनीति की मुख्य भूमिका में है और उत्तर भारत में वह अपनी सर्वोच्च स्थिति पर पहुंच चुकी है. जनाधार में विस्तार के लिए उसे दक्षिण, पूर्व और उत्तर पूर्व की ओर देखना होगा.
बहरहाल, टीआरएस, जो अक्सर संसद में विधेयक पारित कराए जाने के दौरान भाजपा के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है, उसे अब इस बात का पता चल रहा है कि भाजपा के साथ मिलकर काम करने का क्या मतलब होता है, जब तक कि शाह के साथ आपकी कोई “गोपनीय सहमति” नहीं हो.
स्वाति चतुर्वेदी लेखिका तथा पत्रकार हैं, जो 'इंडियन एक्सप्रेस', 'द स्टेट्समैन' तथा 'द हिन्दुस्तान टाइम्स' के साथ काम कर चुकी हैं...
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