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This Article is From Dec 16, 2015

सुधीर जैन : निर्भया कांड के सजायाफ्ता नाबालिग की रिहाई से समाज में बेचैनी

Written by Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 16, 2015 20:05 pm IST
    • Published On दिसंबर 16, 2015 13:11 pm IST
    • Last Updated On दिसंबर 16, 2015 20:05 pm IST
निर्भया की चीख की बरसी पर लगभग वैसी ही सनसनी आज भी है। यह वो कांड था जिस पर मीडिया ने अपनी सनसनीखेज रिपोर्टिंग से देश के रोंगटे खड़े कर दिए थे। उसके बाद आम आदमी ने आपराधिक न्याय प्रणाली पर सीधे सड़कों पर उतरकर प्रतिक्रिया जतानी शुरू कर दी थी। कानून में फेरबदल की कवायद भी शुरू हो गई थी। अदालत की मुस्तैदी की मिसाल भी कायम हुई थी। सालभर के भीतर मामले में फैसला हुआ था। पांच में से चार मुजरिमों को फांसी की सजा सुनाई गई थी लेकिन एक नाबालिग यौन अपराधी को तीन साल की ही सजा हो पाई थी। उस किशोर अपराधी को दी गई सजा इसी हफ्ते पूरी हो रही है। और वह जेल से छूटकर समाज में वापस आने को है। इसे लेकर चौतरफा बेचैनी भरी हलचल है।

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यह भी पढ़ें : मिहिर गौतम की कलम से : निर्भया के तीन साल, लेकिन क्या खत्म हो पाए सवाल...?
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सजा काटने के दौरान ही किशोर से वयस्क हो गए उस कैदी की रिहाई की तारीख नजदीक आते ही समाज के जागरूक और सक्रिय कार्यकर्ता चिंता जता रहे हैं। उनका आक्रोश आपराधिक न्याय प्रणाली को लेकर ही है। कई सामाजिक सरोकार वाले सक्रिय विद्वान और कुछ  वकील लोग भी इस चिंता में शामिल हैं। वे चिंतित तो हैं लेकिन चिंताशील अभी भी नहीं दिखते। अगर चिंताशील होते तो उन्हें इस विषय के जानकार यानी अपराधशास्त्रियों से बातचीत करने की जरूरत पड़ती। अपराधशास्त्रियों से पूछा जाता कि इस बारे में आप लोग क्या पढ़-पढ़ा रहे हैं?और क्या रिसर्च कर रहे हैं? अवयस्कों या किशोर अपराधियों को वयस्क अपराधियों से अलग प्रकार का मानने का चक्कर क्या है?

प्रशिक्षित अपराधशास्त्रियों की नहीं ली गई राय
दरअसल, इस मामले में व्यवस्थित विचारविमर्श किसी रिटायर जज या मशहूर वकील या सामाजिक कार्यकर्ता का काम नहीं था। यह काम प्रशिक्षित अपराधशास्त्रियों का था। लेकिन तीन साल पहले  जब वारदात हुई थी न तब किसी अपराधशास्त्री से राय मशविरा हुआ और न आज जब उस भयावह कांड का एक सजायाफ्ता अपनी सजा पूरी करके जेल से बाहर आने को है। सजा पूरी होने के बाद उसे छोड़ना जेल प्रशासन की बाध्यता है। भले ही सजा के ऐलान के वक्त ज्यादातर लोगों को यह सजा कम न लगी हो, लेकिन जेल से छूटते समय लग रहा है कि ऐसे अपराधी को समाज में वापस कैसे देखा जा सकता है। यही उलझन है जिसे लेकर कोई दिलासा देने वाला तर्क या उपाय चिंतित लोगों को नहीं सूझ रहा।

यहां एक अपराधशास्त्री की हैसियत से कुछ कहना बनता है। इन बातों में मौजूदा आपराधिक न्याय प्रणाली की दुविधा दिखेगी। दंडशास्त्र के सिद्धातों में अंतर्विरोध की झलक भी मिलेगी और उसके निराकरण के लिए एक विशेषज्ञ सुझाव भी। दंड के उद्देश्‍यों के बारे में इसी साल दो अक्‍टूबर को को इसी ब्‍लॉग में 'हरिकथा अनंता बन गई है फांसी की सजा' शीर्षक से लिखा गया था। सजा के मकसद की वह सूची निर्भया कांड में सजाओं की गुत्थी समझने में उतनी ही कारगर हैं। हम यहां यह बात नहीं करेंगे कि वीभत्स और भयानक यौन अपराध के मामलों में कानून उतना ही कड़ा बना देने के बाद भी ये अपराध घटने की बजाए बढ़ क्यों रहे हैं। यहां सिर्फ आपराधिक न्याय प्रणाली की कठोर बनाम सुधारवादी व्यवस्था की दुविधाभर को ही देखेंगे। पिछले एक दो साल से यौन अपराधों के बढ़ते आंकड़ों का विश्लेषण बाद में कभी करेंगे।

दंड देने के पीछे हैं पांच मकसद
अपनी मौजूदा दंड प्रणाली में दंड के पांच मकसद हैं। अपराधी से बदला लेना, अपराध दुबारा न हो इसलिए प्रतिरोध पैदा करना, प्रायश्चित का मौका देना, अपराधी का सुधार करना और पांचवा मकसद अपराधी की सजा पूरी होने के बाद उसे समाज में पुनर्वासित करना। अपनी इस दंड प्रणाली को अपराधशास्त्र की भाषा में पेनोकरेक्शनल यानी दंडोपचारात्मक प्रणाली कहते हैं। क्योंकि आजादी के बाद हमने अपने अपराधी नागरिकों को सुधार योग्य मानते हुए जेलों में उनके सुधार के लिए या उपचार के लिए कई मानवीय उपाय शुरू किए थे। इसमें महात्मा गांधी का वह विचार खुद ब खुद शामिल है कि पाप से घृणा करो, पापी से नहीं।

बहरहाल देश में यह सुविचारित प्रणाली दशकों से चली आ रही है। लेकिन दुनिया भर में तरह-तरह की तारीफ हासिल करती हुई आज यह प्रणाली इस मुकाम पर आ गई है कि देश के सामान्य नागरिक खुलकर आपराधिक न्याय प्रणाली को और ज्यादा कठोर, और ज्यादा प्रतिरोधी बनाने की मांग कर रहे हैं। आज ऐसा क्यों हो रहा है? यह अलग से सोचविचार का मसला है। लेकिन इतना साफ है कि मौजूदा प्रणाली में अपराधी को कठोर सजा, फांसी पर चढ़ाने तक की मांग ज्यादा है और उसे सुधार योग्य मानने के हक में आने वाली आवाज दबी हुई है।  इसी दुविधा पर हमें सोचना है। इसे हम इसी आलेख में तब देखेंगे जब उपाय या समाधान की बात करेंगे। दूसरा नुक्ता अपराधिक न्याय प्रणाली में न्यायालय और जेल के बीच अंतर्विरोध का है।  

अपराध की तीव्रता पर तय होती है सजा की अवधि
हमने यह माना है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का हमारा नागरिक अपराधी सुधार योग्य है। सुधार की व्यवस्था जेल में होती है। हमने जेल में अपराधी के मनोवैज्ञानिक परीक्षण की व्यवस्था बनाई है। वहीं हम उसके लिए उपयुक्त उपचार का तरीका तय करते हैं। अलग-अलग अपराधियों का अलग-अलग मनोविज्ञान होने के कारण हर अपराधी के सुधार में समय  भी अलग-अलग ही लगता है। यानी यह तो जेल में ही तय होगा कि किस अपराधी के सुधार में कितना समय लगेगा। लेकिन सजा की अवधि अदालत में तय होती है। और वहां भी इस आधार पर तय होती है कि उसके अपराध की तीव्रता या प्रकार किस तरह का है। कानून में अपराधी की उम्र, उसके आदतन अपराधी होने या पहली बार अपराध करने को ही मुख्यत: आधार बनाया जाता है। आईपीसी में सामान्य अपवाद के रूप में जो भी प्रावधान हैं उनमें अपराधी के मनोवैज्ञानिक परीक्षण का चलन वास्तविक रूप से शुरू नही हो पाया है। इसे शुरू करने में किसी का चित्त भी नहीं लगा।

उधर हमारे पास अपराधशास्त्रियों खासतौर पर न्यायालयिक मनोवैज्ञानिकों का पूरी तरह से टोटा है,  सारा काम वकील ही कर रहे हैं। वे कानूनी नुक्तों के सहारे ही अपने-अपने मुवक्किलों को बचाने में सारा दम लगाते हैं। यानी अदालत से यह उम्मीद करना कि वह यह भी देखे  कि किस अपराधी को उसकी जरूरत के लिहाज से कितनी सजा दे, यह बड़ा मुश्किल काम है। और फिर जब अदालती फैसलों पर बेहिचक टिप्पणियों का रिवाज बढ़ता जा रहा हो तो न्यायाधीशों के विवेक पर आधारित फैसलों पर तो क्या नहीं होने लगेगा।

लिहाजा अदालतों के लिए इतनी ही गुंजाइश बचती है कि वे कानूनी नुक्तों, अपने दायरों, और संहिताओं तक ही खुद को सीमित रखें। हां, अपराधी को दोषी या निर्दोष सिद्ध करने तक का काम बेशक अदालत ही कर पाएंगी। लिहाजा यहां सुझाव यह बनता है कि क्यों न अदालत सिर्फ इतना ही करें। यानी वे अभियुक्त को सिर्फ दोषी करार देने या बरी करने का ही काम करें, बाकी सजा की मियाद जेल प्रशासन तय करे। ऐसा इसलिए हो क्योंकि जेल के पास ही यह जांचने के उपकरण है कि अपराधी सुधरा है या नहीं।

किशोर अपराधियों के सुधार को चालू कार्यक्रम ज्‍यादा कारगर नहीं
इस तरह के दंडादेश को अपराधशास्त्र की भाषा में 'इनडिटरमिनेट सैंटेंस' यानी 'अनियत दंडादेश' कहा जाता है। लेखक को अपराधशास्त्र और न्यायालिक विज्ञान में परास्नातक डिग्री के लिए जरूरी एक लघुशोध के लिए किशोर अपराधियों के उपचार के लिए विशेष संस्था बोस्टर्ल इंस्टीटयूशन नरसिंहपुर में 107 किशोर अपराधियों का अध्ययन करने का मौका मिला। इसका निष्कर्ष था कि किशोर अपराधियों के सुधार के लिए चालू कार्यक्रम उतने कारगर नहीं हैं। बाद में पीएचडी डिग्री के लिए सजायाफ्ता कैदियों के सुधारात्मक कार्यक्रमों पर शोध किया। शोध प्रबंध टाइप होने के बावजूद प्रस्तुत नहीं हो सका।

उत्तर भारत की नौ जेलों में 307 सजायाफ्ता कैदियों के इस अध्ययन से आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार के बहुत से उपायों पर राय-मशविरा हो सकता था। लेकिन राजनीतिक उथलपुथल और हर पांच साल में चुनावी हार-जीत पर ही सारा ध्यान लगा होने से आपराधिक न्याय प्रणाली को बेहतर बनाने पर गंभीरता से सोचने के लिए हम बैठ ही नहीं पाए। खैर, हो सकता है कि किसी कारण से गुस्से से भरी बैठी जनता अब हमें इन बातों पर सोचने के लिए बैठा दे।  

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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