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This Article is From Apr 12, 2018

उन्नाव कांड अपराध शास्त्र के नजरिए से

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अप्रैल 18, 2018 00:15 am IST
    • Published On अप्रैल 12, 2018 08:07 am IST
    • Last Updated On अप्रैल 18, 2018 00:15 am IST
उन्नाव कांड की खबर देश भर में फैल रही है. बलात्कार कांड में पीड़ित लड़की के पिता की बेरहम पिटाई से मौत के बाद तो कोई कितनी भी कोशिश कर लेता, इस कांड की चर्चा को दबाया ही नहीं जा सकता था. वैसे आमतौर पर ऐसे मामलों की चर्चा जिले स्तर पर ही निपट जाती है. लेकिन यह कांड जल्द ही पूरे प्रदेश में फैला और देखते ही देखते इसने पूरे देश में सनसनी फैला दी. मुख्यधारा की मीडिया में रोज़ कई-कई घंटे इसी कांड पर बहस हुई. मौजूदा हालात ये हैं कि इस मामले से निपटने के लिए न पुलिस को कुछ सूझ रहा है और न सरकार को. आमतौर पर देखा गया है कि जांच बैठाने के ऐलान से ऐसे कांडों की चर्चा फौरी तौर पर रुक जाया करती थी. लेकिन इस मामले में जांच का ऐलान भी बेअसर हो गया. मीडिया में इस कांड की चर्चा फिर भी नहीं रुकी. हालात इतने बदतर हो गए कि इलाहाबाद हाईकोर्ट को स्वत संज्ञान लेने का ऐलान करना पड़ा. इसका मतलब है कि उन्नाव में कुछ बड़ा ही हो गया है.

क्या हुआ?
सिर्फ बलात्कार का अपराध ही नहीं हुआ. बल्कि पीड़ित लड़की ने उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के एक विधायक पर बलात्कार का आरोप लगाया है., यह बात भी इस कांड की चर्चा को देशव्यापी बनाने के लिए काफी नहीं थी. सनसनी तब फैली जब पीड़ित लड़की के पिता की बेरहमी से पिटाई के कारण मौत हो गई और मौत भी जेल में हुई. सो देश में सबको यह पता चला कि पीड़ित के पिता पर ही दबिश के लिए मामले बनाए गए थे और लड़की के पिता को जेल तक पहुंचा दिया गया था. वैसे बिगड़ी कानून व्यवस्था के लिए कुख्यात किसी प्रदेश में जेल में मौतें भी अनसुनी नहीं हैं लेकिन इस  कांड ने जोर तब पकड़ा जब इतना सब कुछ होने के बावजूद आरोपी विधायक के खिलाफ एफआईआर लिखने की प्रकिया ही अंजाम तक नहीं पहूंच पाई. यानी उन्नाव कांड अपराधिक न्याय प्रणाली की मौजूदा हालात पर सवाल उठाते हुए चैतरफा चर्चा में जरूर है लेकिन यह कांड हद से ज्यादा बड़ा बना है कथित राजनीतिक दखल के कारण.

कानून व्यवस्था का राजनीतिक पहलू
कोई भी राजनेता कितना भी कहता रहे कि कानून अपना काम करेगा, लेकिन हम ऐसा इंतजाम कर नहीं पाए हैं कि कानून का पालन कराने वाली एजेंसियां राजनीतिक दबाव से मुक्त हो सकें. कौन नहीं जानता कि पुलिस के अधिकारी की तैनाती और  जब चाहे तब उनके तबादले राजनीतिक इच्छा से ही होते हैं, और फिर देश का सबसे कारगर समझे जाने वाली जांच एजेंसी सीबीआई तक को जब सरकार का तोता कहा जा चुका हो तो एक प्रदेश के दरोगा की हैसियत का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. यानी उन्नाव कांड के इस राजनीतिक पहलू को समझने के लिए किसी को अपराधशास्त्र का अध्ययन करने की जरूरत नहीं है.

उन्नाव कांड का अपराधशास्त्र
इस कांड को सोच-विचार के लिए अगर किसी प्रशिक्षित अपराधशास्त्री को पकड़ा दिया जाए तो वह अपनी किताबी ज्ञान के आधार पर इसे श्वेतपोश अपराध कहेगा. अपराधशास्त्र में श्वेतपोश अपराध की परिभाषा कभी यह थी कि उच्च सामाजिक, उच्च आर्थिक और उच्च राजनीतिक हैसियत वाले लोगों द्वारा किया गया वह अपराध जिसे पकड़ा न जा सके. सन 1939 में अपराधशास्त्री एडविन सदरलैंड ने अपने अघ्ययन में श्वेतपोश अपराध को उच्च सामाजिक वर्ग तक सीमित माना था. चालीस साल पहले तक श्वेतपोश अपराध के अकादमिक अध्ययन में यह विमर्श भी शामिल रहा है कि श्वेतपोश अपराधी पकड़े क्यों नहीं जा पाते. और जब श्वेतपोश अपराधी को पकड़ने में ही अड़चन दिखाई दी तो आधुनिक अपराधशास्त्र में इसके निराकरण पर शोध की गुंजाइश ही नहीं बनी. बहरहाल आधुनिक अपराधशास्त्र में इस प्रकार के अपराध की परिभाषा बदलकर इसे उच्च आर्थिक स्थिति के अपराधियों द्वारा किए जाने वाले आर्थिक अपराधों तक ही सीमित कर दिया गया. आज के अपराधशास्त्री बड़ी माली हैसियत वाले आर्थिक अपराध को ही श्वेतपोश अपराध समझते हैं. बहरहाल श्वेत पोश अपराध को परिभाषित करने में जैसी अड़चन है लगभग वही स्थिति आज राजनीतिक अपराधों और युद्ध अपराधों को परिभाषित करने में है. खैर, ये दोनों प्रकार के अपराध फिलहाल हमारे आलेख के विषय नहीं हैं. लिहाजा इसका जिक्र किसी उपयुक्त अवसर पर ही ठीक होगा.

इस समय उन्नाव कांड की स्थिति
इस कांड में उलझाव और गंभीरता का अदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाईकोर्ट को इस मामले में स्वतः संज्ञान लेना पड़ा. जाहिर है कि अब यह मामला बाकायदा आपराधिक न्याय प्रणाली में पहुंच गया है. ऐसा होना एक तरह से सब पक्षों के लिए अच्छा रहा. क्योंकि पुलिस, सरकार और आरोपी सभी को यही दिक्कत थी कि इसकी चर्चा देशभर में हो रही है और तीनों की फजीहत हो रही है. अब यह कहते हुए कि मामला अदालत में है, तीनों को जवाब देने से छुटकारा मिल गया. मीडिया को भी ज्यादा चर्चा रोकने में सहूलियत हो जाएगी. उधर पीड़ित पक्ष की चिंता थी कि उन्हें दबाने के लिए अब और हमले होंगे. लेकिन अब अदालत की तरफ से पीड़ित की सुरक्षा के इंतजाम के निर्देश जारी हाने की संभावना बन गई है. यानी एक दो रोज़ में मीडिया भी इस कांड की अदालती सुनवाई की अगली तारीखों को बताने तक सीमित हो जाएगा. हालांकि यह मानना ठीक नहीं होगा कि हालात बहाल हो जाएंगे. क्योंकि इस कांड से बहुत से लोगों को स्थायी नुकसान भी पहुंचा है.

क्या कर गया यह कांड
यूपी की कानून व्यवस्था काबू में होने का जो ताबड़तोड़ प्रचार किया जा रहा था उस पर पलीता लग गया. बहुत दिनों के लिए प्रदेश सरकार और उसकी पुलिस की छवि चैपट हो गई. सबसे बड़ा नुकसान यह कि 2019 के आमचुनाव के लिए हो रही तैयारियों में कुछ दिन की अड़चन आ गई. उप्र में सत्तारूढ़ दल के नेता और प्रवक्ताओं को तब तक आक्रामक चुनाव प्रचार करने में दिक्कत आएगी, जब तक यह उन्नाव कांड जनता के दिमाग में धुंधला नहीं पड़ जाता. 

बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून का असर?
तीन-चार साल से बलात्कार के मामलों में कड़ाई की बातें ज्यादा हो रही थीं. सन 2012 के निर्भया कांड के बाद जो भी कानूनी उपाय किए गए थे उनके बेअसर होने का सबूत बन गया यह कांड. तब ही तो यह इंतजाम किया गया था कि पीड़ित पर फौरन ध्यान दिया जाएगा, आरोपी से कड़ाई से निपटा जाएगा. लेकिन इस कांड से लग रहा है कि कड़ाई बरतना या कानून को सख्ती से लागू करना अभी भी आसान नहीं बना है. नए सिरे से सोचना पड़ेगा.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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