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This Article is From Aug 08, 2018

अब किसान के उत्पाद की कीमत घटाने की कवायद...?

Sudhir Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 08, 2018 11:08 am IST
    • Published On अगस्त 08, 2018 11:08 am IST
    • Last Updated On अगस्त 08, 2018 11:08 am IST
रिज़र्व बैंक ने कर्ज़ को महंगा करने का फैसला किया. खास बात यह कि यह काम दो महीने में दूसरी बार किया गया. इसका मुख्य कारण यह समझाया गया है कि महंगाई बढ़ रही है. लिहाज़ा महंगाई को काबू में रखने के लिए बाज़ार में पैसे की मात्रा कम करने की ज़रूरत है. दरअसल, अर्थशास्त्र का नियम है कि बाजार में पैसा कम होगा, तो मुद्रास्फीति, यानी महंगाई कम होगी, लेकिन रिज़र्व बैंक के फैसले के कारणों में एक बड़ा कारण यह बताया गया कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोतरी के कारण खाद्य महंगाई बढ़ने का अंदेशा है. यानी रिज़र्व बैंक के ज़रिये कर्ज़ को महंगा करने के फैसले का एक मकसद कृषि उत्पाद के दाम को बढ़ने से रोकना है. यानी एक तरफ MSP के ज़रिये किसानों के उत्पाद के दाम बढ़ाना और कुछ ही दिन बाद किसानों के उत्पाद के दाम घटाने की जुगत करना, क्या परस्पर विरोधी बात नहीं है - इस मामले में गौर करना बनता है. 

न्यूनतम समर्थन मूल्य का मकसद क्या है आखिर...? किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाने का नारा था, इसीलिए MSP को इतना प्रचारित किया गया. यह काम किसान को उसके उत्पाद के वाजिब दाम दिलाए बिना और हो भी कैसे सकता है. लेकिन अब अगर समर्थन मूल्य से महंगाई बढ़ने के अंदेशे को कम करने के लिए कृषि उत्पाद के दाम कम करने का काम होने लगे, तो क्या इसे समर्थन मूल्य के फैसले से उलट काम नहीं कहा जा सकता...? सरकार के पक्ष वाले लोग एक तर्क दे सकते हैं कि सरकार तो अपने वादे के मुताबिक समर्थन मूल्य पर ही किसान का उत्पाद खरीदेगी, लेकिन क्या यह सभी को पता नहीं है कि सरकार की कूवत या इरादा ही नहीं होता कि वह किसान की पूरी उपज खरीद ले. मौजूदा हालात यह है कि किसान का एक तिहाई उत्पाद ही सरकार खरीदती है. बाकी दो तिहाई उसे खुले बाजार में औने-पौने दाम पर ही बेचना पड़ता है. इसके अलावा भी वह किस्सा अभी बाकी ही है कि MSP तय करने में किसान की लागत का आकलन कितना सही या गलत हुआ. बहरहाल, रेपो रेट के ज़रिये खुले बाज़ार में कृषि उत्पाद के दाम घटाने की सरकारी कवायद पर गौर क्यों नहीं होना चाहिए...?

महंगाई से आम आदमी पर बोझ का तर्क...आम आदमी पर बोझ एक बना-बनाया नारा है, लेकिन इस बात पर ईमानदारी से गौर कभी नहीं हुआ कि यह आम आदमी है कौन...? यहां एक औपचारिक विचार-विमर्श का हवाला ज़रूरी है. पांच साल पहले दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक आयोजन हुआ था, जिसका विषय था - आम आदमी के मायने. विमर्श का निष्कर्ष यह था कि आम आदमी का मतलब देश के औसत नागरिक से है. औसत नागरिक वे लोग निकलकर आए थे, जिनकी आबादी देश की आबादी में आधी से ज़्यादा है, यानी जो किसान हैं. इसीलिए यह सवाल बनता है कि पचास फीसदी से ज़्यादा गरीब परेशान आबादी, यानी किसान के उत्पाद के वाजिब दाम तय होने से आम आदमी का बोझ कम होगा या बढ़ेगा...? वैसे यह सरकारी और गैर-सरकारी विद्वानों के बीच एक ईमानदारी से बहस कराए जाने का विषय बन सकता है.

कम बारिश के अंदेशे का पहलू... रिज़र्व बैंक ने कर्ज़ को महंगा करते समय एक और मुस्तैदी दिखाई है. हफ़्ता-भर पहले दिखाई गई इस मुस्तैदी में कम बारिश पर चिंता जताई गई थी. हालांकि उस समय तक देश में सात फीसदी कम बारिश रिकॉर्ड हुई थी, जो आज दिन तक दस फीसदी कम हो गई है. मतलब कि इस साल अनाज कम उपजने का अंदेशा है. यानी अनाज के महंगा होने का अंदेशा है, और इसीलिए रिज़र्व बैंक को लग रहा है कि किसी तरह किसान के उत्पाद के दाम बढ़ने से रोकना ज़रूरी है. अब सोचने की बात यह है कि अगर किसान का उत्पादन कम होगा, तो क्या उसे अर्थशास्त्र के नियम के लिहाज़ से अपने उत्पाद का उतना ही ज़्यादा दाम नहीं मिलना चाहिए.

रिज़र्व बैंक बनाम मौसम विभाग...कम बारिश का यह पहलू हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए. भले ही मौसम विभाग देश में अच्छी बारिश का पूर्वानुमान जताता आ रहा हो, लेकिन उसी के बताए आंकड़ों की हकीकत यह है कि अगस्त के महीने के भी सात दिन गुज़रने के बाद देश में अब तक बारिश 10 फीसदी कम हुई है. सरकारी सरोकार की मौजूदा स्थिति यह है कि रिज़र्व बैंक कम बारिश पर चिंता जता रहा है और सरकार का ही मौसम विभाग अभी भी इसे अच्छी बारिश बता रहा है. उससे भी ज़्यादा हैरत की बात है कि मीडिया में कम बारिश की खबरें गायब हैं. बल्कि सिर्फ ज़्यादा बारिश और बाढ़ की खबरें हैं. मॉनसून का अब सिर्फ 40 फीसदी समय बाकी है. मौसम विभाग को तो अभी भी उम्मीद है कि इस बाकी बचे समय में ज़्यादा बरसात होकर अब तक कम गिरे दस फीसदी पानी की कमी पूरी हो सकती है. लेकिन वैसी स्थिति में देश में क्या बाढ़ की तबाही नहीं मच जाएगी...? बहरहाल, इस समय जो वास्तविक स्थिति है, उसका ईमानदारी से विश्लेषण किए जाने की दरकार है.

चुनावी साल का पहलू...कोई कह सकता है कि चुनावी साल में सरकारें कुछ समय के लिए महंगाई घटाने का जुगाड़ करती ही रहती हैं. वे सिर्फ अपना आज देखती हैं. बाद में जो खराब होगा, उससे बाद में निपटने का चलन मौजूदा राजनीति का विशेष लक्षण है. लेकिन यहां गौर करने की बात यह है कि आर्थिक मामले में इस समय देश पर चौतरफा दबाव है. अर्थव्यवस्था के सबसे ठोस खंभे, यानी विनिर्माण के क्षेत्र में गिरावट से देश परेशान है. चावल का निर्यात घटने से किसान भारी अंदेशे में हैं. उद्योग व्यापार में यथास्थिति का आलम है. निवेशक फूंक-फूंककर पूंजी निवेश कर रहे हैं. लिहाज़ा अभी से सोचकर रख लेना चाहिए कि ऐसे माहौल में बाज़ार में पैसा जाने से रोकना, आर्थिक विकास की रफ़्तार पर कितना असर डालेगा...? गौरतलब है कि चुनावी साल में अभी सिर्फ खरीफ की फसल पर नज़र है, जबकि चुनावी साल में ही रबी की भी एक फसल आनी है. गौरतलब यह भी है कि चुनावी साल के अभी नौ महीने बचे हैं, लिहाज़ा यह अंदेशा लगातार बना रहेगा कि कृषि उत्पादों के दाम घटाने की सरकारी कवायद का अनचाहा असर कहीं वक्त से पहले न हो जाए.

सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्‍त्री हैं...

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