उनके लिए कोई उपमा नहीं सोची जा सकती. वह वाकई अनुपम थे. उनसे मेरी पहचान प्रभाष जोशी ने करवाई थी. दरअसल प्रभाष जी की इच्छा थी कि मैं सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के लिए भारतीय जल प्रबंधन पर शोध करूं और अपने शोध आलेख 'जनसत्ता' के संपादकीय पेज के लिए लिखूं. इसी सिलसिले में अनुपम जी से पहली मुलाकात हुई, और फिर उनसे राग हो गया.
चंदेलकालीन जल प्रबंधन के अध्ययन के लिए जब मैं महोबा जा रहा था, उनकी इच्छा मेरे साथ अपना कैमरा लेकर चलने की हुई. हम एक हज़ार साल पुराने चंदेल तालाबों को कई दिन तक जानते-समझते रहे. बाद में उन्होंने चंदेल तालाबों की उन तस्वीरों का एक स्लाइड शो भी तैयार किया था. उनके ज़्यादातर मित्र उन्हें एक पर्यावरणविद के रूप में ही पहचानते हैं, लेकिन उनके कई और भी सुंदर रूप थे.
साहित्यकार...
वह एक ऐसे सिद्ध साहित्यकार थे, जिन्होंने पर्यावरण, खासतौर पर जल प्रबंधन, को अपनी साहित्य रचना का विषय बनाया. वह भावप्रवण थे. यही कारण रहा होगा कि सामाजिक व्यथाओं के प्रति वह फौरन व्यथित हो जाते थे. सन 1988 में बुंदेलखंड दौरे में महोबा से चरखारी के रास्ते में मिट्टी की झोंपड़ी के बाहर अपने बच्चों को दूध-रोटी खिलाती मां दिखाई दी. उस दृश्य की एक तस्वीर लेने के बाद वह भावुक हो गए थे. कुएं और गांव के छोटे-छोटे तालाबों की तस्वीरें लेते समय उनकी नज़र इस बात पर ज्य़ादा रहती थी कि तस्वीर के फ्रेम में आगे-पीछे दाएं-बाएं जीता-जागता समाज ज़रूर दिखे.
एक समन्वयक...
गांधी शांति प्रतिष्ठान में वह लंबे समय तक पर्यावरण कक्ष के समन्वयक की भूमिका में रहे. उस दौरान उन्होंने देश की स्वयंसेवी संस्थाओं के दस्तावेज़ी-करण का ऐतिहासिक कार्य किया था, और इसी दौरान देश के पर्यावरण पर उनकी बहुचर्चित पुस्तकें प्रकाशित हुईं. इन पुस्तकों के उच्चकोटि के मुद्रण और कलात्मक रेखांकन की कल्पना उन्हीं की होती थी. उनकी संकल्पना को साकार करने के लिए उन्हें चित्रकार दिलीप चिंचालकर का सान्निध्य उपलब्ध था. बहुत ही कोमल स्वभाव के अनुपम जी की पूर्ण गुणवत्ता की असीमित चाह को पूरा करने में कोई परेशान और नाराज़ भी नहीं होता था. उनके मृदु स्वभाव के कारण उनके सहयोगी और सहकर्मी कितना भी घाटा और परेशानी उठाकर भी प्रसन्न रहते थे.
धुली हुई भाषा...
बहुत संभव है कि भाषा उन्हें अपने पिता और स्वतंत्र भारतवर्ष के प्रसिद्ध कवि भवानीप्रसाद मिश्र से विरासत में मिली हो, लेकिन पर्यावरण जैसे भौतिक जगत पर अनुपम जी ने जो गद्य लिखा, वह अनुपम है. बहुत संभव है कि उनके व्यक्तित्व की भावप्रवणता ही उनके लेखन को इतना प्रभावी बनाती हो. अस्सी के दशक में दिल्ली के आईटीओ के पास साइकिल वाले रिक्शा चलते थे. उनका दफ्तर, यानी गांधी शांति प्रतिष्ठान और उनके घर गांधी निधि के बीच कोई दो किलोमीटर की दूरी थी. कोटला होते हुए दफ्तर से घर आमतौर पर वह पैदल ही जाते. उनमें यह दुविधा भी दिखती कि रिक्शावाले पर अपना बोझ क्यों डालूं और उसी क्षण यह भी कि उसके रोज़गार का एक मौका कम तो नहीं कर दिया. लेकिन अपनी किसी भी दुविधा का वह उच्चारण नहीं करते थे. अपने दुख और दुविधाओं को वह बस अपना ही मानते थे.
सत्य को प्रिय बनाने में सिद्ध...
'न ब्रूयात सत्यं अप्रियं' कहने-सुनने में बड़ा अच्छा लगता है, लेकिन व्यवहार में इसे साधना सिद्धों के बूते की ही बात होती है. अनुपम जी वैसे ही दुर्लभ गद्य लेखक थे. पर्यावरण के लिए विनाशकारी योजनाओं और परियोजनाओं की आलोचना करते समय रौद्र, वीभत्स और भयानक रस का प्रयोग उन्होंने कभी नहीं किया. उनके लिए ऐसा न करना इसलिए संभव हो पाता होगा, क्योंकि वह संस्कारी भाषा संपन्न थे. व्यंग्य का इस्तेमाल किए बिना भी सत्ता प्रतिष्ठान का वह कारगर तरीके से विरोध कर पाए. पत्र-पत्रिकाओं में उनके आलेखों की मांग रहती थी. बाद के दिनों में उन्होंने मासिक पत्रिका 'गांधी मार्ग' का संपादन भी किया. इस तरह शुरू से आखिर तक उन्होंने एक पत्रकार की भूमिका भी खूब निभाई.
परंपरानिष्ठ रुझान...
परंपरा और आधुनिकता के बीच होने वाले हिंसक विवाद में वह कभी नहीं उलझे, लेकिन उनका अपना रुझान परंपरा के संरक्षण में ही था. इस बात को इस तरह से भी कहा जा सकता है कि उन्हें यांत्रिकता रास नहीं आती थी. हालांकि पूरी तौर पर ऐसा भी नहीं कह सकते, क्योंकि पारंपरिक प्रौद्योगिकी के संरक्षण के किसी भी आयोजन में सक्रिय भूमिका के लिए उनमें नित्य तत्परता थी. आधुनिक संगीत का कोलाहल उन्हें पसंद नहीं था.
फोटो जर्नलिस्ट...
उनके घनिष्ठ मित्रों में भी बहुत कम को पता चल पाया होगा कि अनुपम जी को अपना फोटो जर्नलिस्ट रूप बहुत अभिभूत करता था. 30 साल पहले जब उन्हें बुंदेलखंड लेकर गया था, उस दौरान महोबा से 90 किलोमीटर दूर रानीपुर कस्बे में हथकरघे से कपड़ा बुनने वालों की बस्ती में ले गया था. रात का समय था. कमर पर एक छोटा-सा गमछा लपेटे नंगे बदन एक कृशकाय बुनकर लालटेन की रोशनी में अपने दोनों पैर और दोनों हाथ चलाते हुए कपड़ा बुन रहा था. हमारे लिए वह एक करुण दृश्य था. अनुपम जी ने 400 एएसए की प्रकाश संवहदी एक्टाक्रोम फिल्म कैमरे में लगाई और उतनी ही रोशनी में कई कोणों से तस्वीरें ली थीं. कनॉट प्लेस में मिडास के यहां से फिल्म की स्लाइड जब धुलकर मिलीं तो अपनी खीचीं उस स्लाइड को उन्होंने दुकान पर ही खोलकर धूप की रोशनी में बड़े शौक से मुझे दिखाई थी. चंदेलकालीन तालाबों पर मेरे शोध आलेखों के साथ अपनी खीचीं तस्वीरों को लगाने का उन्होंने बालसुलभ आग्रह किया था. कई बार वह अपने फोटोग्राफर रूप पर रीझ भी जाते थे.
समरस जीवन...
उनका पहनावा और उनका रहन-सहन जिन्होंने पास से देखा होगा, वे बताएंगे कि जैसा उन्हें पिछली सदी के अस्सी के दशक में देखा गया, बिल्कुल वैसे ही वह इस सदी के दूसरे दशक में भी दिखते थे. उन्होंने हमेशा मोटी खादी पहनी. एक और बात. वह जब गांधी शांति प्रतिष्ठान के सचिव बने, उन्होंने अपना कक्ष नहीं बदला. वह वहीं से सारा कामकाज निपटाते थे, जहां पहले बैठा करते थे. ऐसा वही कर पाता है, जिसे समरस जीवन का महत्व पता हो. वाकई वह अनुपम थे.
सुधीर जैन वरिष्ठ पत्रकार और अपराधशास्त्री हैं...
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This Article is From Dec 20, 2016
जीवित आदर्श का साथ अचानक छूट जाना...
Sudhir Jain
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 20, 2016 13:34 pm IST
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Published On दिसंबर 20, 2016 13:06 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 20, 2016 13:34 pm IST
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