बहरूप नहीं भरा मैंने
जैसा भी हूं, सामने खड़ा हूं.
अनवर शऊर
अनुपम जी का यूं पर्दा कर लेना बहुत भाया नहीं. उन्होंने जीवन में पहली बार कोई मनमानी की. मगर एक बार ऐसा करने का हक तो उन्हें भी है. हमेशा की तरह एक दिन उनका फोन आया. पहले पूछा ''भैया ! कैसे हो? सब ठीक है न! मैं अस्पताल से फोन कर रहा हूं. तकलीफ कुछ ज्यादा हो गई थी. डाक्टरों ने बताया है कि कैंसर है. कोई घबड़ाने की बात नहीं है. देखो, इसीलिए मैंने खुद फोन किया है. अपना काम करते रहना. हैं! परेशान मत होना. सरोज को स्नेह कहना. फिर फोन करूंगा. अच्छा रखता हूं.’’ आसन्न मृत्यु को इतनी सहजता और शांति से ग्रहण करने वाले को क्या संज्ञा दी जा सकती है? तब तो कुछ नहीं सूझा. फोन हाथ में जम सा गया और आंखें सूख गईं. क्योंकि उनमें पानी लाने वाला अब डूब रहा था. मगर विश्वास था कि तूफान भी उनका हौसला तोड़ नहीं पाएगा क्योंकि उनकी तो नदी से दोस्ती है.
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आज जब उनकी विदाई के तीसरे दिन लिखने बैठा हूं तो उनके नाम के पहले अक्षर ’’अ’’ से उन्हें तीन विशेषण ’’अशोक’’ जिसे कोई शोक न हो, ’’अजातशत्रु’’ जिसका कोई शत्रु न हो और ’’अजोध्या’’ जहां कभी युद्ध न हुआ हो, से विभूषित करने का मन हो आया है. भवानी बाबू ने लिखा है, ’’तुम देख रहे हो मुझको जहां खड़ा हूं / तुम देख रहे हो मुझको जहां पड़ा हूं /मैं ऐसे ही खंडहर चुनता फिरता हूं /मैं ऐसी ही जगह पला बढ़ा हूं.’’ वे असाधारण रूप से साधारण थे. वे इतने सरल थे कि अबूझ लगने लगते थे. वे इतने सहज भी थे कि कई बार असहनीय से महसूस होने लगते थे. ऐसा इसलिए था क्योंकि हम जब उनके सिद्धांतों से, उनकी आंखों से और उनके नजरिए से दुनिया को देखने समझने की कोशिश करते हैं तो हकबका से जाते हैं. सोचते हैं इतनी जटिल दुनिया और उलझते समय में भी क्या ’’अनुपम मिश्र’’ हो सकते हैं. मगर वो हैं और पूरी मजबूती से खड़े हैं.
प्रभाष जोशी ने 25 बरस पहले ठीक ही लिखा था कि उन्हें (अनुपम मिश्र) बरतना बहुत कठिन है. उनके व्यक्तित्व के दो पहलू माने जा सकते हैं, सिक्के की तरह. एक पहलू था पारस पत्थर जैसा. जिसे वह छू दें वह सोना हो जाए और दूसरा पहलू था ’’कसौटी’’ जैसा. जिस पर कसे बिना लोहा पारस पत्थर तक पहुंच नहीं सकता. और वे अपना काम यहीं पर खत्म नहीं कर देते थे. उनके संपर्क में आए सोने में यदि खोट आ जाए तो उसे वह अपनी कसौटी पर घिस के और विश्लेषण करके पुनः लोहा मान लेते थे. परंतु उनका कभी यह आग्रह नहीं होता था कि बाकी के लोग उनकी राय से सहमत हों. इसलिए उनके कई शिष्य अंततः उनसे दूरी बना गए. परंतु अनुपम जी अपनी यात्रा में नए लोगों को लगातार जोड़ते रहे. अनवर शऊर ने लिखा है, ’’मुझसे कतरा के भला क्यों जाता / शायद उसने मुझे देखा ही न हो.’’
महाभारत में कृष्ण ने अपना जो विराट स्वरूप दिखाया उसे देखने की क्षमता सिर्फ अर्जुन में ही थी. बाकी के सब उनकी विराटता को क्यों नहीं देख पाए? शायद हम अपने आसपास सहज उपलब्ध प्रतिभा की विराटता का आकलन करने में हेठी महसूस करते हैं. हम अपनी नियति के प्रति कृतज्ञता महसूस नहीं कर पाते कि उसने हमें अनुपम जी से मिलाया. वैसे सब उनकी भाषा की तारीफ करते हैं. कई कहते हैं कि यह तो उन्हें विरासत में मिली है. एक बार अमृत राय से किसी ने पूछा, ’’लेखन तो आपको विरासत में मिला है?’’ उन्होंने जवाब दिया ’’लेखन परचून की दुकान नहीं है तो विरासत में मिले.’’ ऐसा ही अनुपम जी के बारे में भी कहा जा सकता है. परंतु भवानी बाबू से उन्हीं के शब्दों में कृतज्ञता अर्पित करते हुए अवश्य कह सकते हैं कि, ’’यह /अच्छी / रचना /रची. अलग /खड़े रहने की / जगह नहीं बची.’’
बहुत कम लोग होते हैं जो अपने जीवन में ही व्यक्ति से आगे बढ़कर एक विचार और धारणा में बदल जाते हैं. अनुपम जी संभवतः गांधी, विनोबा और जयप्रकाश के बाद ऐसे एकमात्र व्यक्ति दिखाई पड़ते हैं जिनका आम भारतीय मेधा पर अगाध विश्वास था और उन्हें यह अटूट भरोसा भी था कि भारत की तमाम समस्याओं का हल उसकी अपनी देशजता से ही निकाला जा सकता है. कुओं, बावड़ियों, पोखरों, तालाबों और नदियों के साथ काम करते करते न मालूम कब वे स्वयं एक नदी में बदल गए. ऐसे तमाम गांव हमें मिलेंगे जो उनके संपर्क में आने के बाद एक परिवार हो गए. वहां आपसी प्रतिस्पर्धा बंद हो गई. उन्होंने सरकारी मदद लेना बंद कर दिया. परंतु वह कभी किसी भी बात का स्वयं श्रेय नहीं लेते थे. वह तकनीक को समझते थे. उसमें पारंगतता हासिल करने की उनमें अदभुत क्षमता भी थी. आज से चार दशक पूर्व उन्होंने जिस स्तर की फोटोग्राफी की है वह तमाम लोग आज आधुनिकतम तकनीक से भी नहीं कर पाएंगे. इसकी वजह यह भी है कि अनुपम जी के पास आंख के अतिरिक्त अपार करुणा भी है जो उन्हें बाकियों से अलग करती है. आधुनिक विकास की अवधारणा और इस विकास शब्द के खोखलेपन को सबसे पहले उन्होंने ही पहचाना था. फेसबुक और सोशल मीडिया के खतरों से वह बरसों पहले आगाह कर चुके थे.
वे पूरे जीवन तमाम संस्थाओं के साथ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े भी रहे. परंतु पिछले कुछ वर्षों का उनका विश्लेषण करते हुए उन्होंने एक बार मुझसे कहा था, ’’अपना काम खूब मन से करते रहो. संस्थाओं के साथ जुड़ने में कई बार बड़ा खतरा पैदा हो जाता है. आजकल व्यक्तियों में ही नहीं संस्थाओं में भी विचारों की कमी है.’’अनुपम जी अपनी बात पूरी विनम्रता के साथ रखते थे, अपनी असहमति भी. तभी तो वे गांधी जी की तरह शब्दों या भाषा में छिपी हिंसा से खुद को लगातार बचा पाए. परंतु उनकी टिप्पणियां अंदर तक हिला देती थीं. उनके बारे में सही ही कहा है कि उनके मुंह से निकला शब्द पूरा वाक्य भी हो जाता था. अपने सामने ध्वस्त होते मूल्यों को लेकर वह कभी बहुत विचलित नहीं हुए. उनका मानना था कि भारतीय जनमानस और संस्कृति में इतनी हिम्मत और लोच है कि वह इससे पार पा लेगी. तुम बस धैर्य सीख लो. अहमद फराज ने लिखा है,
अबके रुत बदली तो खुशबू का सफर देखेगा कौन,
जख्म फूलों की तरह महकेंगे मगर देखेगा कौन.
अनुपम जी की असामयिक बिदाई हम जैसे तमाम लोगों के लिए खतरे की घंटी भी है जो स्वयं को उनकी कसौटी पर खरा उतरा मान बैठे थे. परंतु वहीं दूसरी ओर यह भी समझ में आता है कि उनकी सलाह किसी अवसर विशेष के लिए नहीं होती थी, वह एक शाश्वत मार्गदर्शक की तरह कार्य करती रहेगी. भवानी बाबू ने लिखा है, ’’शर्म से रो भी न पाएं/खूब भीतर छटपटाएं/ आज कुछ ऐसा हुआ होगा/आज सबका मन चुआ होगा.’’ आज तमाम लोग इतनी कलफ लगी खादी पहनने लगे हैं कि पहना हुआ कपड़ा तन को ही नहीं छूता तो मन-मस्तिष्क को क्या प्रभावित करेगा? मगर अनुपम जी बिना कलफ की खादी पहनते रहे. खादी लगातार उनके बदन को छूती रही और खादी विचार जो कि मूलतः भारतीयता का विचार है, उनमें लगातार संप्रेषित होता रहा.
’’नहीं /प्यार भरे मन को /इतना तपने के बाद /यों नहीं लौटा /देना चाहिए.’’
अनुपम जी ने एक नदी की तरह निर्मल जीवन जिया. बहुत बार उन पर बांध बनाने की कोशिश भी हुई. उनकी जीवंतता और अपने आप पर विश्वास के अलावा भारतीय समाज पर अपनी अगाध श्रद्धा ने उन्हें कभी बंधने नहीं दिया. अनुपम नामक इस नदी से जिसने अपने हिसाब से जो चाहा वह लिया. नदी ने कभी किसी से कुछ भी अपेक्षा नहीं की. यह नदी मानती थी, मनुष्य वस्तुतः एक अच्छा प्राणी है और उसकी सदाशयता पर शंका नहीं करना चाहिए. वह क्या थे, क्या नहीं यह हर व्यक्ति का अपना निजी विश्लेषण हो सकता है. परंतु एक बात तय है कि वह सभी के थे और उनके हिस्से नहीं किए जा सकते. उन्हें उनकी संपूर्णता में ही आत्मसात करना होगा.
निर्मल वर्मा ने डेढ़ इंच ऊपर में लिखा था, आप अपने प्रिय व्यक्ति को जब तक मरा हुआ देख नहीं लेते तब तक उसके जीवित बने रहने का भ्रम बना रहता है. आपको लगता है कि दरवाजे की घंटी बजेगी, आप दरवाजा खोलेंगे और उसे सामने पाएंगे. मुझे भी विश्वास है मेरे फोन की घंटी भी जरूर बजेगी.
( चिन्मय मिश्र सर्वोदय प्रेस सर्विस के संपादक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं )
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This Article is From Dec 22, 2016
गांधी, विनोबा और जेपी के बाद अनुपम ही थे, जिन्हें समाज पर पूरा भरोसा था...
Chinmay Mishra
- ब्लॉग,
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Updated:फ़रवरी 10, 2017 15:58 pm IST
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Published On दिसंबर 22, 2016 17:35 pm IST
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Last Updated On फ़रवरी 10, 2017 15:58 pm IST
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