विज्ञापन
This Article is From Jul 08, 2019

बेहतर लाइब्रेरी और शिक्षकों की मांग को लेकर पिथौरागढ़ के छात्रों का अनोखा आंदोलन...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 08, 2019 23:42 pm IST
    • Published On जुलाई 08, 2019 23:42 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 08, 2019 23:42 pm IST

कुछ दिन पहले दिल्ली के नज़फ़गढ़ से एक छात्र ने लिखा था कि उसके गांव में लाइब्रेरी नहीं है. लाइब्रेरी जाने के लिए उसे दिल्ली में ही 40 किलोमीटर का सफ़र करना पड़ता है. शायद वह पहला मौका था या पहला दर्शक था जिसने लाइब्रेरी के लिए हमें पत्र लिखा था. पिछले कुछ दिनों से उत्तराखंड के पिथौरागढ़ से छात्रों के मैसेज आ रहे थे कि वे लाइब्रेरी और किताबों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं. ऐसा कब सुना है आपने कि छात्र अपने कॉलेज की कबाड़ हो चुकी लाइब्रेरी को बेहतर करने के लिए आंदोलन कर रहे हों. ज़ाहिर है इस पर ध्यान जाना ही चाहिए. अच्छी बात है कि छात्रों ने पहले संघर्ष किया. कई दिनों से संघर्ष किया ताकि वे स्थानीय स्तर पर अपनी यह लड़ाई जीत सकें. अगर उनकी मंशा लाइब्रेरी के नाम पर प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी के लिए रीडिंग रूम तक सीमित है तो फिर कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन किताबों की दुनिया में खोए रहने के लिए वे एक बेहतर लाइब्रेरी मांग रहे हैं तब फिर इस हफ्ते का यह सबसे शानदार जन आंदोलन है.

हमें हर दिन संघर्ष करते रहना चाहिए ताकि मानवता के प्रति प्रेम एक सच्चाई बना रह सके. मैं इस पोस्टर को कई बार देख चुका हूं. अगर यह मकसद है तो फिर इस आंदोलन में एक कविता भी है. जिस किसी ने किताबों की मांग के साथ इस नारे को गढ़ा है वो अपने पिथौरागढ़ का ज़्यादा भला कर रहा है. इस पोस्टर को देखिए. शिक्षक पुस्तक लेके रहेंगे. इसी नारे को यहां स्थानीय भाषा में लिखा है. हमुन की चौ किताब और मासाब. शिक्षक पुस्तक आंदोलन. यह पोस्टर आपसे ही सवाल कर रहा है. शिक्षक नहीं, पुस्तक नहीं, क्या आपको कोई फर्क नहीं पड़ता. इस कमरे में ज़मीन पर एक पोस्टर है जिस पर लिखा है धैर्य की परीक्षा जारी है. 20 दिन से पिथौरागढ़ में लाइब्रेरी और कॉलेज में शिक्षकों के लिए आंदोलन चल रहा है. बीस दिन से दिल्ली बेखबर है कि भारत में एक ऐसा आंदोलन भी हो रहा है. 15-20 छात्र हर दिन धरने पर बैठे थे. रविवार को भी धरना देते हैं.

79spt0p

पिथौरागढ़ ज़िला भारत चीन और नेपाल से लगी सीमा पर है. लक्ष्मण सिंह महर राजकीय स्नतकोत्तर महाविद्यालय. 1963 में जब यह कॉलेज बना था तब आगरा यूनिवर्सिटी का हिस्सा था. 70 के दशक में पर्वतीय यूनिवर्सिटी की मांग को लेकर आंदोलन चला था जिसमें दो नौजवान सज्जन लाल शाह और सोबन सिंह नेपाली पुलिस की गोली से मारे गए थे. उसके बाद 1973 में कुमाऊं और गढ़वाल के लिए अलग-अलग यूनिवर्सिटी बनती है. पिथौरागढ़ कुमाऊं यूनिवर्सिटी का हिस्सा है.

वहीं के छात्र शिवम ने एक वीडियो हमें भेजा है. वीडियो में पोस्टर बैनर लेकर छात्र शहर में मौन मार्च निकाल रहे हैं. शहर भी कितना चौकन्ना हुआ होगा कि इन नौजवानों को हो क्या गया है. किताब और शिक्षक के लिए आंदोलन कर रहे हैं. आखिर आपने किस शहर में लाइब्रेरी को लेकर मार्च देखा है. शहर के कॉलेजों में लाइब्रेरी की हालत खराब है मगर छात्रों ने व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी को ही अपना भाग्य समझ लिया. पिथौरागढ़ के इन छात्रों ने समझ लिया है कि किताबें मिलेंगी तो उनकी ज़िंदगी बनेगी. कम से कम यह एक ऐसा मामला है जिससे समझौता नहीं किया जा सकता है. 7000 छात्र पढ़ते हैं इस कॉलेज में. छात्रों ने बताया कि दर्जनों पद ख़ाली हैं. 19 दिनों के समर्थन में एक दिन इनकी माएं भी उसी बैनर को लिए आ गईं जिस पर लिखा था शिक्षक चाहिए. पुस्तक चाहिए. 8 अक्तूबर 2018 को भी यहां के ज़िलाधिकारी को ज्ञापन दिया गया था ताकि वे छात्रों की बात मंत्री तक पहुंचा दें. 5 बार ज़िलाधिकारी के कार्यालय को ज्ञापन दिया गया है. छात्रों ने नैनिताल का भी चक्कर लगाया. किसी ज्ञापन का जब जवाब नहीं आया तो छात्र खुद ही धरने पर बैठ गए. पिथौरागढ़ की सड़क पर छात्र छात्राओं की माओं ने भी मार्च किया है. अपने बच्चों के बनाए पोस्टर बैनर लेकर उन्होंने उनके बेहतर भविष्य के लिए मार्च किया. काश कि ऐसा आंदोलन हर शहर में बड़ा हो जाए. इस मां के हाथ में जो पोस्टर है उसे पढ़िए। कालेज में न शिक्षक है न किताबें हैं, मेरा बच्चा पढ़ेगा कैसे.

ebsclcts

जो आंदोलन दिल्ली में नहीं हो सका, पटना में नहीं हो सका, कोलकाता में नहीं हो सका, वो पिथौरागढ़ में हो रहा है. पिछले साल कोलकाता की नेशनल लाइब्रेरी गया था. विशाल रीडिंग रूम में प्रतियोगिता परीक्षा के लिए छात्र बैठे नज़र आए मगर वहां पड़ी किताबों में भटकने वाला कोई छात्र नहीं मिला. सबकी मेज़ पर बाहर से लाई गईं कंपटीशन की किताबें थीं. उसी के कैंपस में आशुतोष मुखर्जी कलेक्शन भी है. 87,000 किताबों का उनका संग्रह था. इतनी किताबों के लिए नेशनल लाइब्रेरी के कैंपस में अलग से लाइब्रेरी है. अरबियन नाइट्स के 30 संस्करण हैं. कई भाषाओं की डिक्शनरी है. 1881 में कैंब्रिज में गणित पर उनका रिसर्च पेपर छपा था. कानून की पढ़ाई के बाद आशुतोष मुखर्जी कोलकाता हाईकोर्ट के जज भी बने. 1924 में उनका निधन हो गया. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के पिता थे आशुतोष मुखर्जी. भारत में ऐसे कितने पाठक होंगे जिनके पास दुनिया भर से लाई गई और मंगाई गई 87,000 से अधिक किताबें थीं. ऐसे पाठक के देश में आज़ाद भारत के नौजवान लाइब्रेरी में किताबों के लिए आंदोलन कर रहे हैं. छात्रों का कहना है कि लाइब्रेरी में जो किताबें हैं वे सब पिछली सदी की हैं. कॉलेज की प्रयोगशाला बेहद ख़राब हालत में है. इसलिए 17 जून से छात्रों ने धरना प्रदर्शन शुरू कर दिया. यह आंदोलन देश के युवाओं से भी कह रहा है कि वे अपनी लाइब्रेरी में जाएं और देखें कि नई किताबें आईं हैं या नहीं.

दीवार पर तो डिजिटल लाइब्रेरी लिखा है. लिख दिया है ताकि कभी प्रधानमंत्री गुज़रें तो उनका डिडिटल इंडिया दिख जाए. छात्रों ने कहा कि नाम की ही डिजिटल लाइब्रेरी लिखा हुआ है. 7000 छात्रों के इस कॉलेज की लाइब्रेरी में जो रीडिंग रूम है वो 30 से अधिक छात्रों के बैठने भर के लिए है. लाइब्रेरी की रैक पर ये किताबें पिछली सदी की आई हुई हैं. उन किताबों से आगे दुनिया बहुत बदल गई है. सीलन भरी इन किताबों में अब वो कोर्स भी नहीं मिलता है जो इन्हें पढ़ाया जाता है. इतिहास हो या विज्ञान की किताब हो. सब पुरानी हो चुकी है. यहां किताब ना मिलना, किताब के लिए पहाड़ से उतरना और फिर चढ़ना है. उन्हें या तो हलद्वानी आना पड़ता है या दिल्ली. या किसी से मंगानी पड़ती है.

छात्रों का कहना है कि साइंस की किताबें हैं वो 1987 की छपी हैं. इतिहास बदल गया मगर किताबें नहीं बदली हैं. परीक्षा के सवाल इन किताबों से भी मेल नहीं खाते हैं. होम साइंस की किताब ही नहीं मिलती है. लाइब्रेरी में नहीं मिलती है तो फिर छात्रों को हलद्वानी या दिल्ली जाकर किताब लेनी पड़ती है या मंगानी पड़ती है. पिथौरागढ़ से हल्द्वानी तक आने में 8 से 10 घंटे लग जाते हैं.

1990 के बाद कस्बों के कॉलेज जानबूझ कर खत्म किए गए. उनकी बिल्डिंग तो चमका दी गई मगर मास्टर नहीं हैं. कॉलेज की लाइब्रेरी खत्म कर दी गई. ऐसा नहीं था कि नौजवानों ने पहले किताबें छोड़ दी बल्कि एक सिस्टम के तहत किताबों को उनसे दूर कर दिया गया. हमने जब यूनिवर्सिटी सीरीज़ की थी तब कहीं कोई ऐसी प्रतिक्रिया नहीं हुई. छात्रों को फर्क ही नहीं पड़ा कि उनके कॉलेज में शिक्षक नहीं हैं, किताबें नहीं हैं. न बिहार में न यूपी में न राजस्थान में. पिथौरागढ़ के छात्रों ने पहल की है तो अब राज्य में उनसे समर्थन मिलने लगा है. जैसा कि मैंने कहा कि इस हफ्ते का यह सबसे खूबसूरत जनआंदोलन है. शिक्षक पुस्तक आंदोलन नाम है इसका. देहरादून में भी मंगलवार को शहीद स्मारक पर सामाजिक कार्यकर्ता इस आंदोलन के समर्थन में बैठेंगे.

भारत में लाइब्रेरी की स्थिति बहुत ख़राब है. इंडिया स्पेंड ने इसी 30 जून को भारत की लाइब्रेरी पर एक विस्तृत रिपोर्ट छापी थी. इसके अनुसार 2011 की जनगणना में पहली बार पब्लिक लाइब्रेरी की भी गिनती हुई है. तब पता चला कि भारत के गांवों में 70 हज़ार से अधिक लाइब्रेरी है और शहरों में 4580. एक अरब की आबादी के लिए छोटी बड़ी लाइब्रेरी की कुल संख्या 80,000 भी नहीं है. अमरीका में पब्लिक लाइब्रेरी सिस्टम आबादी के 95 फीसदी हिस्से की सेवा करता है. हर साल एक अमरीकी नागरिक पर 36 डॉलर खर्च करता है, करीब 2500 रुपये. यहां पर एक नागरिक पर 7 पैसा लाइब्रेरी के नाम पर खर्च किया जाता है.

जब हम अमरीका जाते हैं तो वहां के लोग मोहल्ले या अपने शहर की लाइब्रेरी दिखाने ले जाते हैं. बहुत शान से बताते हैं कि आप दुनिया की कोई भी किताब का रिक्वेस्ट दीजिए लाइब्रेरी मंगा कर देगी. हिन्दी की किताब हो या बांग्ला की. यहां तो पिथौरागढ़ के छात्रों को किताबों के लिए धरना देना पड़ रहा है. पिथौरागढ़ के छात्रों को भी नहीं पता कि अगर उनसे प्रेरित होकर हर कस्बे के छात्र जाग गए तो पढ़ने पढ़ाने का कितना सुंदर माहौल बन जाएगा.
पिथौरागढ़ के बाद हम आपको ले चलते हैं पोकरण. भारत इस जगह का नाम कितना गर्व से लेता है. पोकरण परमाणु परीक्षण के संदर्भ में. अब आप इस पोस्ट को देखिए. एक दिन वहां से किसी ने व्हाट्स एप कर दिया था.

'ये प्राइवेट लाइब्रेरी का पोस्टर है. रीडिंग रूम समझिए इसे. स्वाध्याय के लिए खुली है. एसी है. लैपटाप चार्ज की सुविधा है. इनवर्टर है. न्यूज़ पेपर. 5 घंटे पढ़ने की फीस 350 है. 10 घंटे के लिए 450 और 15 घंटे के लिए 550 रुपये लगेंगे. आप सोचिए आम छात्र पढ़ने के लिए कितना पैसा खर्च कर रहा है. पब्लिक लाइब्रेरी होती तो उसे कितनी राहत मिलती. ये और बात है कि छात्रों को हिन्दू मुस्लिम में ज्यादा मन लगता है और उनके लिए भी यह सब मुद्दा नहीं है. पिथौरागढ़ के छात्र थोड़े अलग हैं.

लाइब्रेरी न होने का दर्द दिल्ली को भी झेलना पड़ रहा है. दूसरे राज्यों से आए छात्रों को पढ़ने के लिए लाइब्रेरी जाना पड़ता है. गली मोहल्ले में इतनी लाइब्रेरी खुल गई है कि हिसाब नहीं. रीडिंग रूम के कारण उनका बजट बढ़ गया है लेकिन राजनीतिक चेतना की इतनी कमी है कि अगर उनसे दुगना पैसा भी ले लिया जाए तो मां बाप यही कहेंगे कि हां चुपचाप पढ़ो. लाइब्रेरी के लिए संघर्ष मत करो. तुम पढ़ने गए हो. खैर उनकी चिन्ता मत कीजिए लेकिन कस्बों से लेकर गांवों में ज्ञान का एक अंतर तो बना है. लोगों को मालूम होना चाहिए कि अच्छी लाइब्रेरी का होना और वहां जाना सबकी ज़िंदगी बदल सकती है. मैं जिस किसी के घर जाता हूं, ज़रूर देखता हूं कि उनकी लाइब्रेरी कैसी है. वे कौन कौन सी किताबें पढ़ते हैं. वो इसलिए कि किताबों ने उनकी ज़िंदगी बदली है. वे किताबों को ज़ेवर की तरह संभाल कर रखते हैं.

किताबों की इतनी बातचीत हो गई. इस वक्त प्रकाशक इस बात से नाराज़ हैं कि सरकार ने बजट में विदेशी किताबों पर 5 प्रतिशत आयात शुल्क लगा दिया है. पहले से ही कागज महंगे दर पर आयात करना पड़ रहा है. वो भी यह वृद्धि तब हुई है जब कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने भी मन की बात में किताबों का ज़िक्र किया है. कहा है कि जो किताब पढ़ें उसे आपस में साझा करें. मैं भी एक किताब का नाम आपसे साझा करना चाहता हूं. जार्ज ओरवेल की 1984 ज़रूर पढ़िए. पेंसिल से एक एक लाइन अंडरलाइन करते हुए पढ़ते चले जाइये. जब किताब ख़त्म होगी तो आज के समय को देखने और समझने में बहुत मज़ा आएगा. आपको लगेगा कि 1949 के साल में कैसे एक लेखक हमारे आज को देख रहा था. तब आप तेज़ी से समझेंगे कि सोशल मीडिया कैसे आपकी ज़िंदगी पर नज़र रख रहा है और दिल्ली में जो सैकड़ों सीसीटीवी कैमरे लग रहे हैं वो आने वाले समय में दिल्ली को कैसा बना देंगे. जार्ज ओरवेल की किताब का नाम है 1984 और अंग्रेज़ी में है. कई प्रकाशन ने इसे छापा है.

पानी की हालत इतनी गंभीर है कि जहां भी जितना भी पानी बचा है उसकी जगह बची है अब उससे छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है. भले ही कुछ राज्यों में बारिश हो रही है, मानसून में सुधार हुआ है लेकिन बिहार के 33 ज़िलों में सूखा घोषित हो चुका है. मणिपुर में सूखे की नौबत आ गई है. राज्य सरकार ने नदियों के सूख जाने के कारण नल के पानी को बंद कर दिया है. 2009 में भी मणिपुर में सूखा पड़ा था. पूर्वोत्तर के राज्यों में पिछले साल भी कम बारिश हुई थी. डाउन टू अर्थ ने लिखा था कि मेघालय जो बारिश का क्षेत्र माना जाता है उसके कई क्षेत्र में 45 प्रतिशत तक बारिश कम हुई थी. इस साल जून महीने में मणिपुर में 41 प्रतिशत बरसात कम हुई है. यह सब मौसम समाचार नहीं है बल्कि जलवायु संकट के समाचार हैं. देश भर में बारिश कम होने के कारण खरीफ फसलों की बुवाई कम हो गई है. धान और दाल की बुवाई 36 लाख हेक्टयर कम भूमि पर हुई है. एक डॉलर की कीमत 68 रुपये 65 पैसे हो गई है. 8 जुलाई को रुपया 24 पैसे और कमज़ोर हुआ है. शुक्रवार को बजट पेश हुआ था. उसके बाद सोमवार को जब मार्केट खुला तो दो दिनों में निवेशकों को पांच लाख करोड़ का चूना लग चुका है. छपरा से बीजेपी के सांसद राजीव प्रताप रूडी सत्ता पक्ष के सांसदों के लिए उदाहरण पेश कर रहे हैं. वे अपने क्षेत्र के लिए सरकार से सवाल कर रहे हैं. मंत्री को जवाब देने में मुश्किल हो रही है. संसद के भीतर सांसद अपने क्षेत्र का प्रतिनिधि होता है. रूडी को लगता है वो काम करने में खूब आनंद आ रहा है. विपक्ष के लिए भी अच्छा है. कम से कम उनके भीतर भी बोलने का साहस आएगा. रूडी अपनी ही सरकार को एक्सपोज़ कर रहे हैं कि पर्यटन के मामले में बिहार की किस तरह उपेक्षा हो रही है.

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com