देर से ही सही कई बार कोई काम ठीक भी हो जाता है। 16 जुलाई को दिल्ली में जब प्रधानमंत्री ने अंतर राज्यीय परिषद की बैठक बुलाई, तो संख्या के हिसाब से तो ये ग्यारहवीं बैठक थी, मगर हुई दस साल बाद। पिछली बार केंद्र और राज्यों के मुख्यमंत्री दिसंबर, 2006 में मिले थे। इससे आप समझ सकते हैं कि केंद्र और राज्य दोनों ही अंतर राज्यीय परिषद को लेकर कितने गंभीर हैं। जबकि बैठक में जिस तरह से खुलकर बातें हुईं, उससे लगता है कि केंद्र और राज्यों के संबंधों को मज़बूत करने के लिए कितना ज़रूरी और गंभीर मंच है। भारत के संविधान के आर्टिकल 263 में लिखा है कि इंटर स्टेट काउंसिल का गठन हो। ये कोई स्थायी संस्था नहीं है। जब भी राष्ट्रपति को लगे कि यह जनता के लिए ज़रूरी होगा तो इसका गठन कर सकते हैं। इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं और सभी राज्यों के मुख्यमंत्री सदस्य। केंद्र शासित प्रदेशों के उप राज्यपाल भी इसके सदस्य होते हैं। प्रधानमंत्री से मनोनित कैबिनेट रैंक के 6 मंत्री भी इसके सदस्य होते हैं। परिषद राज्यों से संबंधित किसी भी मुद्दे पर चर्चा कर सकती है।
बैठक के दौरान केंद्र के सामने राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने जो बातें कही हैं उससे अंदाज़ा लगता है कि राज्य और केंद्र के बीच सबकुछ ठीक नहीं है। सहयोगी संघवाद कहिये या टीम इंडिया कहिये, इन नारों से अलग हकीकत कुछ और है। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की बातों में ज़मीन-आसमान का अंतर बता रहा था कि कई राज्यों का केंद्र के प्रति राजनीतिक अविश्वास कितना गहरा है। कुछ के असंतोष का आधार आर्थिक भी था और कुछ का नीतिगत भी। इस बैठक में मुख्यमंत्री की कही कुछ बातों को यहां रखना चाहता हूं, ताकि पता चले कि राज्यों के पास केंद्र को लेकर क्या शिकायतें हैं, अपेक्षायें हैं और केंद्र, राज्यों से क्या चाहता है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता की तरफ से पन्नीर सेल्वन ने उनका भाषण पढ़ा और कहा कि एनडीए का सहकारी संघवाद का नारा खोखला रह जाएगा, अगर राज्यों को समुचित शक्तियां और वित्तीय संसाधन नहीं दिए गए। एक सशक्त केंद्र सशक्त राज्य से ही बन सकता है। सहकारी संघवाद देश भर के राज्यों में एक जैसे प्रशासनिक तरीके लागू करने का बहाना नहीं होना चाहिए।
जयललिता की टिप्पणी से अंदाज़ा मिल सकता है कि राज्य, केंद्र से क्या चाहते हैं और केंद्र के टीम इंडिया की बात को लेकर उनका अनुभव कैसा है। यह भी कहा गया कि केंद्र लगातार राज्यों की सूची से विषयों को निकाल कर समवर्ती सूची में डाल रहा है। जैसे शिक्षा को राज्य की सूची से निकालकर समवर्ती सूची में डाला गया है। केंद्र को शिक्षा के मामले में राज्यों को अधिकार वापस करना चाहिए। तमिलनाडु महसूस करता है कि केंद्र राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का अतिक्रमण कर रहा है। इंटर स्टेट काउंसिल के बारे में भी तमिलनाडु का कहना है कि यहां चर्चा तो होती है, मगर कार्रवाई नहीं होती है। इस संस्था को और मज़बूत किया जाना चाहिए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि आपने दस साल बाद अंतर राज्यीय बैठक का आयोजन किया है, तो आपने ही राज्यों से पूछा तक नहीं कि एजेंडा क्या होना चाहिए। योजना आयोग में हमें बोलने का मौका मिलता था, मगर खत्म हो गया है। नीति आयोग में भी हम एक बार बैठक में हिस्सा लेते हैं। वे हमारी नहीं सुनते, नीति आयोग में कुछ भी नहीं है।
पंजाब में अकाली दल बीजेपी की सरकार है। वहां के उप मुख्यमंत्री को भी केंद्र से तमाम शिकायतें रहीं। उप मुख्यमंत्री सुखबीर बादल ने कहा कि राज्यों की स्थिति भिखारियों जैसी हो गई है। राज्यों को और ज़्यादा शक्तियां मिलनी चाहिए। बादल ने भी कहा कि केंद्र संविधान की भावना और प्रस्तावों के ख़िलाफ़ राज्यों के अधिकार और इकबाल पर कब्ज़ा कर रहा है। सबकी आम राय है कि सत्ता के केंद्रीकरण का ट्रेंड बना हुआ है।
ज़ाहिर है यह बदलाव एक दिन का तो नहीं है। लेकिन जिस तरह से मौजूदा प्रधानमंत्री कोऑपरेटिव फेडरलिज़्म और टीम इंडिया का नारा देते हैं, उससे लगता है कि राज्यों को अधिकार दिये जाने की प्रक्रिया में बदलाव नहीं आया है। बीजेपी 14वें वित्त आयोग के तहत राज्यों को अधिक फंड दिये जाने की बात करती है, मगर राज्य इसे पर्याप्त नहीं समझते हैं। उनकी शिकायत वित्तीय संसाधन के बंटवारे को लेकर जस की तस बनी हुई है। राज्य अपनी बात सिर्फ वित्तीय संसाधनों को लेकर नहीं कह रहे, बल्कि अन्य विषयों में अधिकारों पर हो रहे हमले को लेकर बोल रहे हैं।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत ने कहा कि 14 वें वित्त आयोग ने राज्यों को मिलने वाले फायदे कम कर दिये हैं। लेकिन इस बैठक में सबसे ज़्यादा आवाज़ उठी राज्यपाल के ख़िलाफ। अगर आप सभी के भाषणों से अलग अलग तत्वों को लेकर राज्यपाल की छवि बनाएं तो कुछ इस तरह उभरेगी। राज्यपालों के बारे में उनके बयानों को पढ़ते हुए,
मुझे लगा कि राज्यपाल राज्यों में केंद्र की तरफ से लगाया जाने वाला सीसीटीवी कैमरा है। जिसका काम है कि मुख्यमंत्री के दफ्तर में कौन मिलने आ रहा है और कौन वहां से निकलकर उनसे मिलने आ रहा है। इन सबका वीडियो फुटेज रिकार्ड करना और उसकी सीडी केंद्र को भेजना राज्यपाल का काम रह गया है। हाल के कई मामलों में विधायक अपनी सरकार और नेता से नाराज़गी और अविश्वास की चिट्ठियां राज्यपाल को भी लिखते रहे हैं और राज्यपाल स्वीकार भी करते रहे हैं। अरुणाचल प्रदेश के मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने राज्यपाल नामक सीसीटीवी कैमरे से साफ-साफ कहा है कि वो केंद्र का एजेंट नहीं है। लिहाज़ा मुख्यमंत्रियों को लगता है कि यह सीसीटीवी कैमरा उनके कमरों में कुछ ज्यादा ही दखल देने लगा है। इसलिए इस सीसीटीवी कैमरे को ही हटा देना चाहिए ताकि मुख्यमंत्रियों को लगे कि वे किसी निगरानी में नहीं हैं। नीतीश कुमार ने कहा कि जब तक इसे हटाया नहीं जाता, इसके लगाने की प्रक्रिया पारदर्शी हो और अरविंद केजरीवाल ने कहा कि मुख्यमंत्री से पूछकर इसे लगाया जाए। जयललिता ने कहा कि राज्यपाल नाम के इस सीसीटीवी को महाभियोग के बाद ही हटाया जाना चाहिए न कि राष्ट्रपति की मर्ज़ी से। नीतीश ने कहा कि जब लगा ही रहे हैं तो कैमरे का रिमोट मुख्यमंत्री के पास हो और यह राज्य मंत्रिमंडल की सहायता और परामर्श से काम करे।
अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने और कोर्ट में इसे ग़लत साबित होने के बाद कई राज्य राष्ट्रपति शासन लगाने की धारा 356 को लेकर काफी आशंकित दिखे। खासकर गैर भाजपा सरकारों के मुख्यमंत्री। भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों ने केंद्र द्वारा राज्यों के अतिक्रमण का सवाल नहीं उठाया। आखिर वो अपनी ही केंद्र सरकार से कैसे कह सकते थे कि राज्यों के अधिकार का अतिक्रमण हो रहा है। लगता है बीजेपी शासित राज्यों में राज्यपाल काफी अच्छा काम कर रहे हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि सोशल मीडिया के गलत इस्तेमाल पर रोक लगाने की ज़रूरत है। कट्टरवाद को रोकने के लिए कई कदम उठाने होंगे। राज्य और केंद्र के बीच रियल टाइम में खुफिया सूचनाओं की साझीदारी होनी चाहिए।
हो सकता है कि अखबारों ने भाजपा विरोधी दलों की सरकारों के मुख्यमंत्रियों की शिकायतों को ही ज्यादा रिपोर्ट किया वर्ना जितनी भी रिपोर्टिंग हुई है उससे यही लगता है कि बीजेपी के मुख्यमंत्रियों को न तो नीति आयोग से दिक्कत है, न उन्हें किसी मामले में फंड मिलने से दिक्कत है, न उन्हें राज्यों की सूची के विषय को समवर्ती सूची में डालने से दिक्कत है। समवर्ती सूची का मतलब यह हुआ कि उस मामले में केंद्र और राज्य दोनों ही कानून बना सकते हैं, मगर केंद्र ने बना दिया तो संसद का बनाया कानून ही मान्य होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस अवसर पर कहा कि
14 वें वित्त आयोग के कारण केंद्रीय करों में राज्यों की हिस्सेदारी 32 प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गई है। 2015-16 में राज्यों को केंद्र से 2014-15 की तुलना में 21 प्रतिशत अधिक राशि मिली है। कोयला खदानों की नीलामी से राज्यों को आने वाले वर्षों में करीब साढ़े तीन लाख करोड़ राशि मिलेगी। जो भी राज्य केरोसीन की खपत में कमी करेगा, उसकी सब्सिडी का 75 फीसदी हिस्सा केंद्र उसे देगा।
प्रधानमंत्री यानी केंद्र की बात कुछ और, मुख्यमंत्री यानी राज्यों की बात की दिशा कहीं और। प्रधानमंत्री ने धारा 356 के बेज़ा इस्तमाल, राष्ट्रपति शासन को लेकर राज्यों की आशंका को लेकर कुछ नहीं कहा। यह ज़रूर कहा कि खुले माहौल में चर्चा हो और सभी अपना सुझाव दें। प्रधानमंत्री इस बैठक को Cooperative Federalism की भावना का प्रतीक बता रहे थे, कई राज्य इसी कोऑपरेटिव फेडरलिज्म की भावना के पालन नहीं होने पर सवाल उठा रहे थे। इन सबके बीच इस तरह की बैठक 10 साल बाद हुई यह भी अपने आपमें कम स्वागत योग्य नहीं है, जो फिर से हमें केंद्र और राज्यों के बीच के संबंध को खूबसूरत नारों की जगह व्यावहारिक आधार पर सोचने समझने का मौका देती है। कोऑपरेटिव फेडरलिज़्म पर जब अच्छी अच्छी बातें कही जा रही थी, उसी वक्त अरुणाचल में एक बर्खास्त सरकार फिर से बहाल हो रही थी।
This Article is From Jul 18, 2016
प्राइम टाइम इंट्रो : क्या राज्यपाल का पद खत्म किया जा सकता है?
Ravish Kumar
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 18, 2016 21:26 pm IST
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Published On जुलाई 18, 2016 21:24 pm IST
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Last Updated On जुलाई 18, 2016 21:26 pm IST
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