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'सोने की चिड़िया’: अतीत की महिमा बनाम आलोचनात्मक दृष्टि

Himanshu Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 14, 2025 08:59 am IST
    • Published On जून 14, 2025 08:57 am IST
    • Last Updated On जून 14, 2025 08:59 am IST
'सोने की चिड़िया’: अतीत की महिमा बनाम आलोचनात्मक दृष्टि

'सोने की चिड़िया' एक प्रेरक लेकिन एकतरफा किताब है. यह भारत के अतीत से जुड़ाव का भाव तो देती है, परंतु उससे जुड़े जटिल ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं का गहराई से विश्लेषण नहीं करती. यह पुस्तक उन पाठकों के लिए उपयोगी है जो भारत के इतिहास, परंपराओं और राष्ट्रगौरव में रुचि रखते हैं, परंतु गंभीर शोधार्थियों को इससे अधिक पुष्ट स्रोतों की आवश्यकता पड़ेगी.

‘सोने की चिड़िया' (प्रभात प्रकाशन) श्री अनीश और अरुण आनंद द्वारा लिखित सात लेखों का ऐसा संकलन है, जो भारत के अतीत की सांस्कृतिक, आर्थिक और बौद्धिक समृद्धि की याद दिलाता है. यह पुस्तक प्राचीन भारत की शिक्षा, कृषि, कपड़ा उद्योग और सांस्कृतिक परंपराओं की झलक देते हुए औपनिवेशिक दुष्प्रभावों की भी पड़ताल करती है. लेखकों का प्रयास है कि पाठक अपने अतीत की महिमा से प्रेरणा लें और भविष्य के लिए आत्मगौरव से भरी सोच विकसित करें.

 स्वर्णयुग की छाया में

पुस्तक के आरंभिक लेख भारत की आर्थिक समृद्धि की चर्चा करते हैं. उदाहरणस्वरूप, ‘बुनी हवा' लेख में 1851 के दौरान मलमल की एक गज कीमत को 50 से 400 पाउंड बताया गया है, यह आँकड़ा कपड़ा उद्योग की वैश्विक प्रतिष्ठा को रेखांकित करता है. लेखकों का यह दृष्टिकोण भारत को एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में पुनः कल्पित करने का आग्रह करता है.

लेखों की भाषा सरल और सहज है, जिससे सामान्य पाठक जुड़ सकता है. प्रत्येक लेख प्रभावशाली उद्घाटन व प्रेरक निष्कर्ष के साथ समाप्त होता है. तथापि, यह शैली कभी-कभी प्रचारात्मक रूप ले लेती है, जहाँ तथ्यों की पुष्टि का अभाव आलोचनात्मक पाठकों को खटक सकता है.

गौरवशाली उद्योग की चुनौतियां

‘बुनी हवा' न केवल ऐतिहासिक संदर्भ देता है, बल्कि वर्तमान में कपड़ा उद्योग की संभावनाओं पर भी रोशनी डालता है. लेखक लिखते हैं, 'ब्रिटिश लूट के बाद भी हमारे पास 136 प्रकार की बुनाई की विधियाँ आज भी जीवित हैं.' यह सांस्कृतिक जीवटता भारत के लिए संभावनाओं का संकेत है. हालांकि, यह लेख इस बात की गहराई में नहीं जाता कि समकालीन वैश्विक बाजार और उपभोक्ता संस्कृति में भारत की बुनाई परंपराएँ कैसे पुनर्स्थापित हो सकती हैं.

कृषि ज्ञान: जड़ों से भविष्य तक

‘धरती पुकारे' लेख में ‘वृक्षायुर्वेद' जैसे ग्रंथों के उल्लेख द्वारा यह दर्शाया गया है कि भारतीय कृषि केवल श्रम आधारित न होकर वैज्ञानिक रूप से उन्नत थी. परंतु यह लेख भी आधुनिक संदर्भों में कृषि-नीतियों, जलवायु संकट या किसानों की आत्महत्या जैसे ज्वलंत विषयों को छूने से बचता है. लेख में एक सतही समाधान प्रस्तुत किया गया है कि प्राचीन ज्ञान को अपनाकर आज की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है, परंतु यह कथन बिना ठोस नीति सुझावों के अधूरा लगता है.

उपनिवेशवाद का कड़वा सच

‘लूट' और ‘बोधशाला' जैसे लेखों में औपनिवेशिक शोषण और भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था का वर्णन किया गया है. लेखकों का दावा है कि 'ब्रिटिशों ने भारत से लगभग 45 खरब डॉलर लूटे' और 'नालंदा, अल-अजहर व बोलोना से पाँच शताब्दी पुराना विश्वविद्यालय था.',  यह बातें गर्व तो जगाती हैं, परंतु गंभीर इतिहासकार इन आंकड़ों की पुष्टि की मांग करेंगे. विशेषतः ‘एल्यूमिनियम के बरतनों से कैंसर फैलाने' जैसी बात बिना स्रोत के प्रस्तुत की गई है, जिससे पुस्तक की प्रामाणिकता संदिग्ध हो सकती है.

संस्कृति और विज्ञान: संतुलन की ज़रूरत

‘सांस्कृतिक धरोहर' लेख में नमस्ते, उपवास, तुलसी, और गंगा की महिमा के पीछे वैज्ञानिक तर्क देने का प्रयास किया गया है. जैसे, 'नमस्ते करने से तंत्रिकाओं पर दबाव पड़ता है और ऊर्जा का प्रवाह बढ़ता है.' इस तरह के तर्क परंपरा को वैज्ञानिक समझ से जोड़ने की कोशिश करते हैं, परंतु इनमें कभी-कभी ‘पौराणिकता में वैज्ञानिकता' थोपने की प्रवृत्ति दिखती है.

वैचारिक झुकाव और आलोचनात्मक संतुलन

पुस्तक का समग्र स्वर राष्ट्रवादी पुनर्जागरण से प्रेरित है, जो आज के सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में सामान्य है. यह दृष्टिकोण अपने आप में अनुचित नहीं, परंतु जब इतिहास को प्रेरणास्रोत के रूप में प्रस्तुत किया जाए तो उसके तथ्यों की प्रामाणिकता और आलोचनात्मक दृष्टि और अधिक अनिवार्य हो जाती है.

पुस्तक में संदर्भ सूची, नोट्स या ग्रंथ-सूची नहीं है और यह कमी इसे अकादमिक रूप से कमजोर बनाती है. हालांकि, यह पुस्तक एक आम पाठक के लिए राष्ट्रबोध और सांस्कृतिक जागरूकता का एक प्रभावी प्रवेशद्वार बन सकती है.

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