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This Article is From Nov 27, 2015

राकेश कुमार मालवीय : 'असहिष्णुता' पर भारी हैं, कुछ और भी शब्द... हम उन पर कब सोचेंगे ?

Written by Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    नवंबर 27, 2015 14:11 pm IST
    • Published On नवंबर 27, 2015 13:47 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 27, 2015 14:11 pm IST
देश में सहिष्णुता है, नहीं है, खत्म हो रही है... अनुपम खेर से लेकर आमिर खान तक की बहस जाने किस नतीजे पर पहुंचेगी...? पहुंचेगी भी या नहीं...! लेकिन इस देश में कुछ और भी शब्द हैं जो समाज के असहिष्णु हो जाने सरीखे ही भयंकर और खतरनाक हैं। बावजूद इसके बीते सालों में ये शब्द कभी-कभी ही वैचारिक पटल पर गंभीरता से उठाए गए। 'भुखमरी', 'कुपोषण', 'बेरोजगारी', 'किसान आत्महत्या', 'भ्रष्टाचार' - यूपीए से लेकर एनडीए तक इन शब्दों के प्रभाव से भली-भांति वाकिफ होते हुए भी सुधारने के लिए क्या गंभीर कोशिश कर पाए हैं, देश की मौजूदा हालत देखकर समझ आता है, क्योंकि समस्याएं तो जस की तस हैं।

देश के किस प्रधानमंत्री ने आखिरी बार 'कुपोषण' शब्द का प्रयोग किया था - डॉक्टर मनमोहन सिंह ने, सबसे कम बोलने वाले प्रधानमंत्री। यह नांदी फाउंडेशन का एक कार्यक्रम था, जहां उन्होंने 'कुपोषण' को 'राष्ट्रीय शर्म' बताया था। और अब... जब सरकार बदली, विख्यात वाकशैली और पूरे दम से अपनी बात कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो अपने डेढ़ साल के कार्यकाल में भी एक बार भी कुपोषण पर प्रकाश नहीं डाला।

...और अब जबकि सहिष्णु-असहिष्णु जैसे कठिनतम शब्दों पर भारतीय समाज प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकता है तो उम्मीद बनती है कि समाज के बाकी गंभीर सवालों पर (जिन्हें सड़ा-गला, शाश्वत अंग या परिणति मान लिया गया हो) पर भी एक ज़ोरदार बहस होगी।

'सहिष्णुता' ने बैचेन क्यों किया... पुरस्कार लौटाने से लेकर आमिर खान के बयान तक यह शब्द सहमति और असहमति की धारा में कैसे सफर करता रहा...? इससे पहले समाज के बुनियादी सवाल, जो किसी भी धर्म, किसी भी जाति से बिलकुल समान रूप से जुड़े हुए हैं, पर हम ठीक सहिष्णु-असहिष्णु जैसे आक्रामक ढंग से क्यों नहीं सोच पाए, इस पर विचार करना बेहद ज़रूरी है।

जब हम मीडिया पर सनसनीखेज़ होने का आरोप लगाते हैं और उसे कठघरे में खड़ा करते हैं, तब क्या यह प्रकरण इस ओर इशारा नहीं करता कि हमारा समाज भी सनसनीखेज़ ही सोचता है, सनसनी ही ग्रहण करता है। (मैं इस विषय पर मीडिया का पक्ष नहीं ले रहा, उसकी अपनी एक अलग बहस है), लेकिन शब्दों की ऐसी बहस एक सत्ता की स्थापना या उसकी अस्थापना में किस तरह प्रायोजित होती है, यह प्रकरण उसका उदाहरण बनकर सामने आता है।

क्या यह दृश्य आपकी रूह नहीं कंपा देता कि रेलवे स्टेशन पर एक आदमी अब भी डस्टबिन से लोगों की फेंकी हुई सामग्री बीनकर अपना पेट भरता नज़र आता है। क्या आपने दिल्ली से चलकर देश की अलग-अलग राजधानियों में जाने वाली शताब्दियों का हाल देखा है। नहीं, तो एक बार जाकर देखिए, बचे हुए समोसों-कचौरियों पर बच्चे कैसे टूटते हैं। क्या आपको पता है, देश में गरीबी का क्या हाल है और 27 रुपये या 32 रुपये में एक आदमी अपना दिन कैसे निकाल सकता है...? क्या आप देश में बच्चों के भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, जिसके 48 फीसदी बच्चे किसी न किसी तरह के कुपोषण के शिकार हैं, जिनका जिक्र हमारे पूर्व प्रधानमंत्री ने 'राष्ट्रीय शर्म' के रूप में किया...? क्या आपको नौकरी के लिए चप्पल घिसते नौजवान नज़र आते हैं...? क्या आपको देश में हज़ारों किसानों की आत्महत्याएं सहिष्णु या असहिष्णु के सवाल की तरह चिंतनीय नहीं लगतीं...?

यह सवाल दोनों ही पक्षों से है। वे, जो समाज में बढ़ती हुई असहिष्णुता को प्रमाणित करने में लगे हैं, और उनसे भी, जो इसे सिरे से खारिज कर सब कुछ ठीक होने का दावा कर रहे हैं। हमें इन सवालों के जवाब भी चाहिए।

...और ऐसे में, जबकि हमारे ही समाज द्वारा निर्मित एक नायक के देश छोड़ देने का घरेलू बातचीत में आया विचार-भर बवाल मचवा देता है। भावनाएं डोल जाती हैं, खून खौल जाता है... खौलना ही चाहिए, लेकिन खून उस बात पर भी तो खौले, जब मानव विकास के सूचकांकों पर हमारी वैश्विक पटल पर थू-थू होती है। जब हम विश्व बैंक और ऐसी ही दानदाता संस्थाओं के सामने कटोरा लेकर विकास की गिड़गिड़ी बजाते हैं तो हमारा स्वाभिमान कहां चला जाता है। ...और यह केवल अभी की ही बात नहीं है, यह असहिष्णुता से पहले के बुनियादी सवाल हैं।

तो क्या हम ऐसा समाज बनाएंगे, जो देश छोड़ने के विचारों को मन में आने ही न दे।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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