हां, मुझे ट्रैफिक जाम अच्छा लगने लगा है

हां, मुझे ट्रैफिक जाम अच्छा लगने लगा है

प्रतीकात्‍मक तस्‍वीर

नई दिल्‍ली:

इस लेख को वे न पढ़ें जो ट्रैफिक जाम से त्रस्त हो जाते हैं। इस लेख को वे भी न पढ़ें जो अभी तक यह स्वीकार नहीं कर सकें हैं कि ट्रैफिक जाम शहर नहीं मुल्क की आत्मा है। इस लेख को वे भी न पढ़ें जो ट्रैफिक जाम के कारण रास्ते बदल लेते हैं। सिर्फ वे पढ़ें जो मेरी तरह जानबूझ कर किसी न किसी ट्रैफिक जाम में फंसना पसंद करते हैं। मैं ट्रैफिक जाम का समर्थक हूं। मैं अब घर नहीं जाना चाहता। घर से दफ्तर नहीं जाना चाहता। जाम से निकल कर जाम में रहना चाहता हूं। महानगर की ज़िंदगी से पहले मुझे ट्रैफिक जाम का इल्म नहीं था। अब तो पटना वाले भी ट्रैफिक जाम और प्रेशर हॉर्न का मज़ा लेने लगे हैं।

ट्रैफिक जाम के प्रति मेरी मोहब्बत आज की नहीं है। 2008 के साल में मैं अपने ब्लॉग कस्बा पर आश्रम जाम का रोमांस नाम से कहानियों का सिलसिला लिखने लगा। रोज़ शाम को दफ्तर से निकलता था और आश्रम जाकर फंस जाता था। घर जाने की जल्दी धीरे-धीरे न पहुंचने के सब्र में बदलने लगी। घर जाने की बेचैनी समाप्त होने लगी। लगा कि मेरी तरह बाकी भी घर नहीं जाना चाहते हैं। मैं आश्रम जाम में फंसे लोगों में अपनी कहानी के लिए किरदार गढ़ने लगा। ये वो लोग थे जो अब आश्रम से अपने घर जाना ही नहीं चाहते थे। बग़ावत होती है और मांग की जाने लगती है कि आश्रम चौक को एक आज़ाद मुल्क घोषित कर दिया जाए। वहां फंसे लोगों के बीच एक ट्रैफिक जाम का राष्ट्रवाद पनपता है। एक महिला को कार में ही बच्चा होता है जिसकी अगली कार में फंसा कोई डॉक्टर मदद करता है और बगल की कार वाला उस बच्चे का नामकरण। अफसोस मेरी कहानी पूरी नहीं हो सकी। वो कहानी अब हर दिन किसी न किसी शहर में पूरी हो रही है।

दिल्ली में कांवड़ियों के कारण जाम की समस्या से कई लोगों को परेशान देख रहा हूं। ये कैसे लोग हैं जो तीन घंटा जाम में नहीं रह सकते। जिस शिव की प्राप्ति के लिए कांवड़िये कई दिनों से कंधे पर भारी भरकम बोझ उठाए पैदल चले जा रहे हैं क्या उनके लिए शहर ट्रैफिक जाम में नहीं रह सकता। जाम से त्रस्त लोगों ने कांवड़ियों को भला बुरा कहना शुरू कर दिया है। जैसे कांवड़िया नहीं होते हैं तब गुड़गांव महरौली सड़क पर जाम नहीं लगता, ग़ाज़ीपुर से आश्रम तक जाम नहीं लगता। जाम तो तब भी लगता है। जाम तो बात बात पर लग जाता है। मुंबई में क्यों जाम लगता है। वहां तो कांवड़िया नहीं हैं।

ट्रैफिक जाम को बहाना नहीं चाहिए। उसे मौका चाहिए। मौका लगते ही वो कहीं भी लग जाता है। स्टेशन और हवाई अड्डा ही नहीं तमाम चौराहे उसके प्रिय जगहों में से हैं। हवाई जहाज़ से उतर कर लोग जाम में फंस जाते हैं। तब जाकर अहसास होता है कि हां वे अब ज़मीन पर सरक रहे हैं। किसी की कार में खरोंच आती है और वो रोक कर खरोंचने वाली कार के मालिक को उतार बहस करने लगता है। बाकी लोग अपनी अपनी कार में चुपचाप बैठे रह जाते हैं। रेडियो जॉकी सायमा, रौनक और ऋचा की मधुर आवाज़ों में खो जाते हैं। ये लोग भी मज़ा लेने लगते हैं। किस इलाके में जाम लगा है बताने पर गिफ्ट दे देते हैं।

इसलिए मुझे अच्छा लग रहा है कि कांवड़ियों ने सड़क को अपना बना लिया है। कांवड़ियों ने साबित किया है कि सड़कों पर चाहे जितनी भी कारें भर दो, वो चाहेंगे तो अपने लिए जगह बना लेंगे। लोगों को घंटों जाम में फंसाकर खुद डांस करते हुए जा सकते हैं। मुझे जाम से परेशानी होती तो मैं कांवड़िया बन कर ही आगे आगे निकल जाता लेकिन मुझे नहीं हैं। इतने विद्वान लिख लिखकर दुनिया से चले गए कि पैदल चलने वालों के लिए जगहें बनाइये लेकिन नहीं बनी। कांवड़िया आते हैं और आराम से पैदल वालों के लिए जगह बना कर चले जाते हैं। दिक्कत है कि उन विद्वानों ने आईआईटी में शोध करते हुए अपना टाइम बर्बाद किया। इसकी जगह वे हरिद्वार से जल लेकर गुड़गांव तक चल देते तो आज दिल्ली में पैदल चलने वालों के लिए अलग से ट्रैक होता।

मैं यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं प्रो-कावंड़िया हूं। महानगरों की सड़कों पर आम आदमी के अधिकार का महीना होता है सावन। बाकी साल अपने अधिकारों पर इतराने वाले कार वाले चुपचाप रीयर-मिरर में देखते रहते हैं कि कौन नाक खुजला रहा है या कौन लिप्स्टिक लगा रही है। हे कांवड़ियों से नफ़रत करने वालों, जब शादियों के मौसम में आप और आपके रिश्तेदार पूरा ट्रैफिक रोक कर सड़कों पर नागिन डांस करते हैं तब आप दूसरों के बारे में सोचते हैं? जब आप डांस नहीं छोड़ सकते तो ये अपना कांवड़ क्यों छोड़ दें। क्या उनकी तरह आप अपने अरमानों को पूरा करने के लिए ट्रैफिक जाम नहीं लगाते हैं। बैंड बाज़े का इंतज़ाम नहीं करते हैं।

दीवाली के समय सतर्कता आयोग के लाख मना करने के बाद जब असंख्य कारें गिफ्ट लेकर निकलती हैं और उन दो दिनों में भयंकर जाम लगता है तब तो आप ये नहीं कहते कि ठीक है जाओ आज से गिफ्ट बंद। धार्मिक से लेकर राजनीतिक जुलूस से लगने वाले जाम लोकतंत्र और संविधान के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के खाते में आते हैं इसलिए हम स्वीकार कर ही लेते हैं। लेकिन क्या जाम इन्हीं चंद कारणों से लगते हैं। जाम लगने के अपने कारण होते हैं। सबको पता है कि बारिश होगी तो जाम लगेगा फिर भी बारिश का इंतज़ार करते हैं। जब बारिश से नफ़रत नहीं तो कांवड़ियों से क्यों।

इसलिए कांवड़ियों को दोष न दें। हम सभी को ट्रैफिक जाम के प्रति सहनशील होना चाहिए। बल्कि सहनशीलता आ भी गई है। हम सबको कई घंटे जाम में फंसे होने का अनुभव हासिल हो चुका है। ट्रैफिक जाम से सड़कों पर एक किस्म का समाजवाद आता है। तीन लाख से लेकर एक करोड़ तक की कार एक जैसी लगती है। उनकी रफ्तार एक होती है। उन कारों में बैठे तमाम लोगों की कंडिशन भी एक जैसी होती है। न तो कोई जगुआर से उतर कर भाग सकता है और न ऑल्टो कार से। सब अपनी मंज़िल पर एक साथ पहुंचते हैं। कोई ये नहीं कह सकता है कि मेरे पास ऑल्टो थी इसलिए देर हुई। कोई किसी को हराकर नहीं पहुंचता है। सब साथ-साथ पहुंचते हैं।

ट्रैफिक जाम से पैदल चलने और कार से चलने में फर्क मिट जाता है। दोनों एक ही रफ्तार से चलते हैं। बल्कि कई बार पैदल वाला जीतते हुए लगता है। कार वाला हारते हुए गाना सुनता है। इसलिए मैं प्रो-ट्रैफिक जाम हूं। मुझे ट्रैफिक जाम पसंद हैं। अब मुझे जाम में फंसकर परमानंद की अनुभूति होने लगी है। मैंने एक जाम-टूरिज़्म का आइडिया निकाला है। मेरी एक वेबसाइट होगी। इसमें गूगल मैप से पता चलते ही कि अमुक जगह पर जाम लगा है सैंकड़ों लोगों को अलर्ट मैसेज जाएगा। ये सारे लोग अपनी अपनी कार लेकर उस जाम में जा फसेंगे। आप ग्रुप में भी वेबसाइट पर रजिस्ट्रेशन करा सकते हैं और अकेले भी।

दिल्ली में जिन-जिन स्पॉट पर नियमित जाम लगता है, वहां पर सैंकड़ों कारें पहुंच कर जाम को और जाम कर देंगी। सारे लोग पूरी रात जाम लगायेंगे और सारी कारें वहीं रुकी रहेंगी। खीर पूड़ी खायेंगे या फिर ऑर्डर देकर मंगा लेंगे। बल्कि कानून बनना चाहिए कि महानगरों में हर व्यक्ति को तीन घंटे और कस्बों में कम से कम डेढ़ घंटे जाम में रहना अनिवार्य है।

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ट्रैफिक जाम का रोना रोने का वक्त चला गया है। कोई ऐसा शहर बता दीजिए जहां ट्रैफिक जाम नहीं है। मुंबई वालों से पूछिये। उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी ट्रैफिक जाम में बिताई है। दिल्ली वाले भी बिता रहे हैं। आप इस दुनिया से चले जाइयेगा मगर ट्रैफिक जाम नहीं जाने वाला है। हम सब कारें खरीद कर जीडीपी तो बढ़ा ही रहे हैं और साथ ही साथ ट्रैफिक जाम भी बढ़ा रहे हैं। एक व्यक्ति अपने मुल्क के लिए इससे ज़्यादा और क्या कर सकता है। पूरी दिल्ली में चप्पे-चप्पे पर कार होनी चाहिए। कार के ऊपर कार होनी चाहिए और कार के लिए अलग से सरकार होनी चाहिए। जो ट्रैफिक जाम का विरोध करे उसे जेल में डाल दिया जाए। जो कार खरीदें उसे जाम में डाल दिया जाए। हे ईश्वर हर शहर को तीन तीन घंटे का ट्रैफिक जाम देना। देश का बच्चा बच्चा जाम में फंसना सीख ले। जाम से मोहब्बत करना सीख ले। मैंने जाम से प्यार करना सीख लिया है।