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This Article is From Aug 06, 2023

स्मॉल इज ब्यूटीफुल : भारत को स्मार्ट गाँवों की भी जरूरत

Deborah Darlianmawii and Keyoor Pathak
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    अगस्त 06, 2023 10:16 am IST
    • Published On अगस्त 06, 2023 09:20 am IST
    • Last Updated On अगस्त 06, 2023 10:16 am IST

कल्चर ऑफ़ लेबर : पलायन- यानि जीवन को बेहतर बनाने, या जीवन को बचाने के लिए अपने घर, गांव, समाज से दूर निकल जाना. आमतौर पर ग्रामीण बिहारियों के लिए यह जीवन को बचाने की एक अंतहीन प्रक्रिया है, न कि जीवन में ऐश्वर्य पाने का जरिया. अक्सर पलायन के बाद जिन राज्यों में वे जाते हैं, वहाँ वे खेती करते हैं या मजदूरी, और यह पलायन का सबसे कुरूप चेहरा है. वे अपना घर छोड़ते हैं, क्योंकि उनके लिए वहां रहते हुए बुनियादी जरूरतों को पूरा करना भी संभव नहीं रह जाता. औपनिवेशिक काल से शुरू हुई उनकी यह यात्रा अबतक ठहरने का नाम ही नहीं ले रही. भारत का शायद ही ऐसा कोई कोना होगा, जहां बिहारी मजदूर आपको काम करते हुए न मिले. भारत के दक्षिणी हिस्सों के सुदूरवर्ती गाँवों में भी हमने उन्हें मजदूरी करते देखा. यह हमारे लिए आश्चर्यजनक था, क्योंकि आमतौर पर हमारा सोचना था कि वे पलायन के बाद बड़े शहरों में ही काम करते हैं. उनका जीवन मजदूरी करते हुए शुरू होता है और फिर मजदूरी करते हुए ही समाप्त हो जाता है. जीवन को बेहतर बनाने का उनका सपना बस सपना ही रह जाता है. ऑस्कर लेविस ने समाजविज्ञान में एक चर्चित सिद्धांत दिया था- ‘कल्चर ऑफ़ पॉवर्टी', यानि ‘गरीबी की संस्कृति', इसके अनुसार, गरीबी ऐसी परिस्थितयां, मूल्य, या विचार पैदा करती हैं, जो गरीबी के चक्र को अगली पीढ़ी तक जारी रखती है. बिहार में इसे ‘कल्चर ऑफ़ लेबर' के रूप में देखा जा सकता है. इन मजदूरों की पीढि़यां भी आमतौर पर मजदूर ही रह जाती हैं. पिता के साथ-साथ पुत्र भी मजदूरी ही करता रह जाता है.

संस्थागत पलायन: अगर हम कहें कि बिहारियों का पलायन संस्थागत है, तो इसे आपत्तिजनक नहीं माना चाहिए, क्योंकि सरकारी और गैरसरकारी स्तरों पर तमाम ऐसी संस्थाएं चलती रही हैं, जिसने पलायन को बढ़ाने में मदद किया. और इसे एक तरह से राज्य द्वारा रोजगार न उपलब्ध करवाने की विफलता के रूप में देखा जाना चाहिए. टिकेट ब्रोकर, जॉब प्रोवाइडर ब्रोकर, कुरियर एजेंसी, ट्रेवल एजेंट, जैसी अनगिनत संस्थाएं हैं जो पंजीकृत या गैर-पंजीकृत तरीके से इन मजदूरों को अन्य राज्यों में मजदूरी दिलाने का कार्य करती आई हैं. इनका नेटवर्क राष्ट्रीय स्तर का होता है. इसके अलावा सरकारी स्तरों से भी पलायन किये हुए, या करने वाले लोगों के लिए तमाम सरकारी योजनायें, या सेवाएं या सुविधाएं चलती आई हैं. जैसे- मजदूर स्पेशल ट्रेन, दुर्घटना से सम्बंधित योजनायें, प्रवासी संगठनों को राजनेताओं द्वारा दी जानेवाली नैतिक या अन्य आर्थिक सहायतायें आदि. कई ट्रेनों के तो नाम भी मजदूरों को ध्यान में रखकर ही रखे गए हैं जैसे- श्रमजीवी, गरीब रथ, श्रम शक्ति, आदि. भारत में ऐसे राज्य शायद ही होंगे, जो अपने यहाँ के नागरिकों को अन्य राज्यों में मजदूर के रूप में भेजने के लिए इस तरह आतुर हो! अन्य राज्यों में जब कभी बिहारियों के साथ हिंसा हुई, तो बजाये इसके कि बिहार के राजनेता अन्य राज्यों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाये उन्हें चाहिए था कि वे ऐसी स्थिति न आने दे कि इतनी विशाल संख्या में यहां से लोग मजदूरी के लिए अन्य राज्यों में जाने को बाध्य हों.  

पलायन की प्रेरणा: ऐसा नहीं है कि बिहार के इन ग्रामीणों को अन्य राज्यों में कुछ शानदार-सा अवसर मिलता है, तो वे वहाँ जाते हैं, बल्कि क्रूर तथ्य तो यह है कि अन्य कारणों के अतिरिक्त वे मुख्यतः तीन कारणों से पलायन को मजबूर होते हैं-
पहला, भूमि का अभाव या असंतुलित वितरण. बिहार में एक बहुत बड़ा ग्रामीण वर्ग है जो भूमिहीन है. इनके पास जीवन यापन के लिए न्यूनतम भूमि भी नहीं होने के कारण इन्हें केवल अपना श्रम बेचकर जीना पड़ता है. भूमि सुधार की संभावना भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, क्योंकि इससे खूनी संघर्षों के बढ़ जाने का खतरा बना रहता है, और फिर इसका जातीय कनेक्शन भी है. भूमि सुधार के लिए विनोबा भावे जैसे लोगों या भूदान जैसे आन्दोलन को खड़ा करने की जरूरत है, लेकिन निकट भविष्य में ऐसी किसी योजना की कोई सुगबुगाहट भी नहीं दिखती, और न ही कोई ऐसा राजनीतिक या सामाजिक चेहरा है जिसकी स्वीकृति उस स्तर की हो. 

दूसरा, बेरोजगारी- वहां न तो नब्बे के दशक की आर्थिक उदारीकरण का कोई बड़ा प्रभाव पड़ा और न ही परंपरागत ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समुचित सरकारी संरक्षण मिला जिसके कारण रोजगार का बड़ा संकट पैदा हुआ जो अबतक जारी है. मनरेगा का अगर सही तरीके से क्रियान्वयन किया जाता, तो बिहार के गांव एक मॉडल स्थापित कर जाते. लेकिन मनरेगा की योजनायें कागजी अधिक हैं, व्यवहार में इसका फायदा पहले से ही साधन संपन्न लोग अधिक उठा रहें हैं, और यह सब अधिकारी और क्षेत्रीय जनप्रतिनिधियों की सांठ-गांठ से हो रही है. तेलंगाना में एक बिस्कुट फैक्ट्री में मजदूरी करने वाले एक ग्रामीण बिहारी ने बताया, “मुखिया मशीन से काम करवा लेता है और हमारा पैसा खा जाता है". इसी तरह कार्य करने वाले एक दूसरे मजदूर ने बताया, "मैंने करीब एक महीने मनरेगा में कार्य किया, लेकिन ठेकेदार ने मुझे पैसा नहीं दिया. उसने कहा कि जब सरकार पैसा भेजेगी, तो पैसा मिलेगा और अबतक मुझे कुछ नहीं मिला". 

तीसरी बड़ी वजह कर्ज भी है, जिसे वो अपने आर्थिक या अन्य स्वास्थ्य आदि संकट के समय किसी “सूदखोर” या महाजन से लेते हैं. आर्थिक उदारीकरण के बाद विकसित हुई इतनी बड़ी बैंकिंग व्यवस्था के बाद आज भी बिहारी मजदूरों के लिए इन बैंको से कर्ज लेना आसान नहीं होता, जिस कारण वे गांवों में मौजूद “सूदखोरों” के चंगुल में फंस जाते हैं. बिहार के लगभग तमाम गांवों में सूदखोरी एक बड़े व्यवसाय का रूप ले चुका है. एक तीसरे मजदूर ने हमसे कहा, "मैं बीटेक कर रहा था. मेरे पिता के पास करीब दो बीघे जमीन थी, लेकिन बहन के विवाह में उन्हें दहेज़ देने के लिए करीब तीन लाख रुपये महाजन से लेने पड़े थे और फिर उसे चुकता करने के लिए जमीन बेचना पड़ा. मेरे पिता की मृत्यु के बाद मुझे अपनी बीटेक की पढ़ाई छोड़नी पड़ी और अब मजदूरी कर रहा हूं". उसकी आवाज में स्मृति की पीड़ा थी.              

भविष्यहीन वर्तमान: "हम यहां सदा के लिए नहीं हैं. आज यहां हैं कल कहीं और काम करने जा सकते हैं. परिवार को भी साथ नहीं रख सकते. मेरा बच्चा और परिवार जैसे-तैसे वहां रह रहा है. ऐसा भी नहीं है कि इसमें हमें बहुत पैसा मिल रहा है. बस इतना ही है कि पेट भर जाए. सोचा था पैसे जमा करके घर बनाऊंगा, लेकिन इस वेतन से तो कुछ भी नहीं होने वाला. आगे का कुछ पता नहीं..यहां कितने खराब तरीके से रह रहें हैं ये आप देख ही रहें हैं...इन फैक्ट्री के आवासों में गंदगी, बीमारी, असुरक्षा सबकुछ है". फैक्ट्रियों की कार्य संस्कृति बदल चुकी है. हैदराबाद के औधोगिक क्षेत्र कट्टीदन में हमने देखा कि वहाँ या तो मजदूर संगठन नहीं हैं या फिर प्रभावहीन स्थिति में है. इन संगठनों के कमजोर होने से अंततः मजदूरों के वेतन, अधिकारों, सुविधाओं, और अन्य सेवाओं में भी गंभीर गिरावट आ चुकी है. आर्थिक उदारीकरण में अधिकारों के सांगठनिक स्वरूप को भी सुनियोजित तरीके से ध्वस्त किया जा चुका है.  

स्मॉल इज ब्यूटीफुल: हमने उनसे बात किया कि आखिर वे किस तरह का जीवन चाहते हैं, तो उनका जवाब ऐसा था जैसा गांधी का दर्शन, या जर्मन दार्शनिक इ.एफ. सोमैकर के शब्दों में कहें तो ‘स्मॉल इज ब्यूटीफुल' की फिलोसफी. जिसे बीटेक की पढ़.ई छोड़नी पड़ी थी, उस मजदूर ने कहा, "मैं गांव जाना चाहता हूं. वहां मुझे थोड़ी-सी जमीन दी जाए, जिसमें हम मोटे अनाज उपजा सके. बीच-बीच में गाँव के आसपास ही मजदूरी कर लूँगा, उससे कुछ कैश इनकम हो जायेगा, सब्जियों के लिए. गाँव के नदी, तालाब और पोखरे सार्वजनिक किये जाएं, ताकि उसमें हम मछलियाँ मार सके. घर में कुछ गाय या बकरियाँ पाला करेंगे उससे भी अतिरिक्त आय आ जायेगी. ये काफी है शांति से जीने के लिए. परिवार के साथ तो रहेंगे अपने गाँव में....वहां दिक्कतें आएंगी भी तो अपने लोग होंगें".

कितना छोटा, सुन्दर और धारणीय जीवन दर्शन है! लेकिन सरकारों के लिए उनकी इन जरूरतों को पूरा करना भी कठिन है! इससे सरकारों की नियत और कार्यप्रणाली दोनों पर ही सवाल खड़े हो जाते हैं. इन्होने मॉल, रेस्टोरेंट, अजायबघर, पार्क, बड़ी इमारतें, कुछ भी नहीं माँगा! गाँवों को मजबूत कीजिये. भारत को स्मार्ट सिटिज की जरूरत नहीं, भारत को स्मार्ट गाँवों की जरूरत है. "थिंक बिग" से जीवन छोटा हो जाता है, ये बात इन मजदूरों को मालूम है, लेकिन सत्ता को नहीं.  

(केयूर पाठक-  सीएसडी, हैदराबाद से पोस्ट डॉक्टरेट करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.
देबोराह दार्लियनमवई- आईआईटी, कानपुर से पीएचडी करने के बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. )

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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