बाल दिवस: आयोजनों की भीड़ में गुम होते सवाल

चुनाव जीतने वाले नेता और सरकारें अपनी जीत का दंभ भर सकती हैं, लेकिन जब वे अपनी अंतरात्मा को खंगालेंगी तो उनके पास मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं होगा

बाल दिवस: आयोजनों की भीड़ में गुम होते सवाल

बाल दिवस, भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जयंती. अपने आप में खास एक दिन जो बच्चों को समर्पित होता है. इस मौके पर देश भर में हजारों-हजार आयोजन होते हैं. बड़े-बड़े मंच सजते हैं. नेता, अभिनेता समाज सुधारकों, एनजीओ वालों की भीड़ उमड़ती है. मेरे हक में बड़ी-बड़ी बातें होती हैं. लोग बताते हैं कि वो मेरे जैसों की बेहतरी के लिए क्या-क्या कर रहे हैं और भविष्य में उनके क्या इरादे हैं.

मैं नकारात्मक नहीं हूं, नतमस्तक हूं, उनके आगे जो इस दिशा में इंसानी दायित्वों का निर्वहन करते हुए अपनी मनुष्यता को सार्थक कर रहे हैं. लेकिन इस मजमे में खड़ी उस भीड़ को भी मैं खूब पहचानता हूं, जो अपने निजी स्वार्थ और दिखावे के लिए यहां पहुंची है. खबरों में बने रहने के लिए, तस्वीरें खिंचवाने के लिए और खुद को बड़ा बताने-जताने के मकसद से बहुतेरे ढोंग करने वाले लोग इन आयोजनों में शामिल होते हैं. यह लोग बचपन बचाने का दावा करते हैं, आंकड़े बाजी करते हैं और इनमें वो भी शामिल हैं जो बड़े-बड़े पुरस्कारों का लबादा ओढ़े बैठे हैं.

समाज के तथाकथित सुधारको, तुमने मुझे जाना ही कब था? मेरी आंखों को पढ़ने की, मेरे जज्बातों को समझने की कोशिश भी कब की थी? तुम भी शोषक हो मेरे, क्या जानते नहीं? या फिर जानकर सच से मुंह चुराना चाहते हो? तुम जिन भवनों में रहते हो उसकी नींव की ईटें मैंने ही तो सजाई थीं. तुम भूख और तृष्णा मिटाने जिन सितारा इमारतों के सहन में पहुंचते हो, वहां किसी कोने में रखे खूबसूरत और कठोर बर्तनों को मेरे नाजुक हाथ ही तो रगड़ते हैं, वो भी मार, तिरस्कार और गालियां बर्दाश्त करते हुए. लेकिन तुम्हारे पास कब समय रहा, उन अंधेरों में झांकने का. तुम पैसों से खुशियां खरीदते रहे, मैं तुम्हारे जूठन से पेट भरता रहा. सदियों से यही सिलसिला तो है. कभी गौर करना, चूड़ियों की खनक में, साड़ियों की दमक में, जूतों की चमक में, तुम्हारी हर सजावट में मेरी मेहनत और मजबूरी का अक्स झलकता है.

तुम्हारी जमात में वो लोग भी शामिल हैं जो मेरी बेबसी को चंद सिक्कों में तौलकर चल देते हैं. मुझ पर भीख और खैरात की बारिश करने वाले यह मेहरबान जैसे लोग भी अजीब होते हैं. ऐसा करके यह अपनी नजरों में महान बनते हैं और खुदा, भगवान या ईश्वर से डरते हुए संतोष की सुखद भावना से रूबरू होने का ढोंग भी करते हैं. गोया फेंके हुए सिक्के मेरा नसीब बदल देंगे...

खैर अपनी-अपनी किस्मत है, तुम गुनहगारी के पूर्ण विराम को सिरे से खारिज भी कर सकते हो. इस असमानता को अपनी मेहनत और मेरी बदनसीबी से परिभाषित कर सकते हो, लगे हाथ मेरी बदहाली के लिए सिर्फ सरकारों को दोषी ठहरा सकते हो. लेकिन मेरा सवाल है कि तुम भी तो समाज हो? और तुम समाज का हिस्सा हो तो बताओ कि मेरे जैसे लाखों के लिए तुमने वास्तव में क्या किया?

मैं उन बच्चों को बड़े गौर से देखता हूं जो धरती पर सूरज की किरणें पड़ते ही किताब, कॉपी और बस्ते लेकर स्कूल की ओर चल पड़ते हैं. साफ-सुथरे, नहाए-धोए, धुले- धुलाए कपड़ों में अपने वो हमउम्र मुझे बहुत अच्छे लगते हैं. ठीक उसी वक्त उन्हीं बच्चों के दाएं-बाएं, आगे-पीछे मैं भी नजर आऊंगा. कूड़े में पन्नी बीनते हुए, पंक्चर जोड़ते हुए, चाय नाश्ते की दुकान पर बर्तन धोते हुए, आंखों पर आते धुंए को बर्दाश्त करते, आग की भट्टी को हवा देते हुए. जिंदा रहने के लिए, पेट की भूख मिटाने के लिए, यह सब करना मेरी मजबूरी ही तो है.

सच बताऊं तो स्कूल जाते बच्चों को देख मेरा दिल रोता है. हाथ में पानी की बोतल और पीठ पर बस्ता लेकर मैं भी इनके साथ पढ़ने जाना चाहता हूं. लेकिन इस इच्छा को समझने और मेरी अंतरात्मा में झांककर देखने की फुर्सत ही किसके पास है? याद रखना कि कागज, कलम, दवात पर मेरा भी अधिकार है और स्कूल की सीढ़ियां चढ़ने को मेरे पैर आतुर हैं. कक्षा की एक सीट मेरी भी है. लेकिन मुझे उन कक्षाओं की तरफ जाने से रोका गया. मेरे हाथों में पेन, पेंसिल की जगह कुछ और पकड़ा दिया गया.

मैं अपने चारों ओर बहुत सारे नियम-कायदे, कानून देखता हूं. यह मत करो, वो मत करो, ऐसा नहीं कर सकते, यह कर सकते हो, वह नहीं कर सकते... कहां हैं इन नियमों को बनाने वाले? मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि इनमें मैं क्यों नहीं शामिल हूं? हां, जानता हूं कि कुछ नियम कानून मेरे लिए भी हैं. लेकिन फिर एक सवाल कि वह इतने भोथरे क्यों हैं? मेरे जैसों के लिए निष्प्रभावी से क्यों हैं?

चुनाव जीतने वाले नेता और सरकारें अपनी जीत का दंभ भर सकते हैं, आत्ममुग्ध हो सकते हैं, लेकिन जब वह अपनी अंतरात्मा को खंगालेंगे तो उनके पास मेरे सवालों का कोई जवाब नहीं होगा. बड़े-बड़े भाषण वीर निरुत्तर रहेंगे.

शायद मेरे दिन तो बीत गए लेकिन तुम्हारे पास अब भी मौका है. आने वाली उन पीढ़ियों की फिक्र कर लो, जो मेरी ही तरह सबसे पिछली कतार में खड़ी होकर तुमसे सवाल करेगी. और तुम खुद को बदल नहीं पाए तो उस वक्त भी तुम्हारे होंठ सिले होंगे. फिलहाल के लिए तुम्हें तुम्हारा बाल दिवस मुबारक हो....

(शोऐब अहमद खान एनडीटीवी इंडिया में आउटपुट एडिटर हैं.)

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