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This Article is From Apr 02, 2015

शरद शर्मा की खरी खरी: एक हाथ से ताली नहीं बजती

Sharad Sharma, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    अप्रैल 03, 2015 09:50 am IST
    • Published On अप्रैल 02, 2015 22:03 pm IST
    • Last Updated On अप्रैल 03, 2015 09:50 am IST

पिछले कुछ दिनों में मैंने महसूस किया कि ऐसा कहा तो जा रहा है कि 'आप का झगड़ा', 'आप में घमासान' वगैरह-वगैरह, लेकिन प्रतीत ऐसा हो रहा है, जैसे 'केजरीवाल गुट ने पीटा' या 'केजरीवाल कैंप ने धो डाला'। क्योंकि लड़ाई या घमासान में दो पक्ष होते हैं, लेकिन यहां एक पीटने वाला और दूसरा पिटने वाला प्रतीत हो रहा है। जबकि ऐसा है नहीं, क्योंकि मेरा मानना है कि 'ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती।'

अभी तक केवल केजरीवाल और केजरीवाल गुट की गलतियां ही ज्यादा तलाशी गईं और मैंने खुद भी लगातार ये रिपोर्ट की, लेख लिखे और उसका कारण भी है कि एक आम धारणा होती है कि गलती ताकतवर की मानी जाती है जैसा कि मैंने अपने 6 मार्च के लेख में लिखा।

अरविंद केजरीवाल ने और उनके गुट ने जो किया, वह आखिर क्यों किया, ये सोचने की ज़रूरत इसलिए भी है, क्योंकि ये उनको भी पता है कि उनके झगड़े से पार्टी की बदनामी हो रही है, वॉलंटियर्स निराश हो रहे हैं और दिल्ली के वोटर में खराब संदेश जा रहा है

लड़ाई की जड़ - अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव-प्रशांत भूषण में लड़ाई क्यों हुई इसको लेकर बहुत से विचार चल रहे हैं, लेकिन पार्टी कवर करने वाले सबसे पुराने रिपोर्टरों में से एक रिपोर्टर होने के नाते मैं बता सकता हूं कि लड़ाई केवल इस बात पर है कि अरविंद केजरीवाल मानते हैं कि जब वो अपनी ज़िंदगी की सबसे मुश्किल लड़ाई या यूं कहें कि खुद अपने और पार्टी के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे, तो योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण उनको हराने में लगे थे।

लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद आम आदमी पार्टी के मर्सिये पढ़ दिए गए थे और अगर केजरीवाल दिल्ली चुनाव हार जाते, तो न सिर्फ वो समाप्त हो जाते, बल्कि पूरी पार्टी का अस्तित्व संकट में पड़ जाता। जबकि ऐसा होने पर योगेंद्र-प्रशांत पर इसका असर ज़्यादा नहीं पड़ता, क्योंकि आम आदमी पार्टी का मतलब योगेंद्र यादव या प्रशांत भूषण नहीं, बल्कि अरविंद केजरीवाल है। और इंसान का स्वभाव होता है कि अच्छे समय में किसने क्या किया ये याद रहे ना रहे, बुरे समय में किसने साथ दिया और किसने विरोध किया, वो सब याद रखता है।

बाकी सब आरोप वगैरह तो मैं पहले ही बता चुका हूं इसलिए कहानी 4 मार्च की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक से टू द प्वाइंट बताता हूं, जब दोनों की पीएसी से छुट्टी हुई थी।

1.पीएसी से दोनों नेताओं की छुट्टी - जब दोनों को 4 मार्च की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पीएसी से निकाला गया, तब ये तय था कि इन दोनों पर इससे ज़्यादा कार्रवाई नहीं होगी और पार्टी या यूं कहें कि केजरीवाल गुट मामले को यहीं खत्म करना चाहता है।

2.मीडिया में बयानबा़जी- राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह तय हुआ था कि पार्टी का कोई भी नेता मीडिया से इस बारे में बात नहीं करेगा। केजरीवाल कैंप की तरफ से कोई नेता टीवी पर नहीं दिखा, लेकिन योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के इंटरव्यू और बयान खूब टीवी पर दिखे।

3. एंटी केजरीवाल माहौल- जब एक तरफ के लोग ही टीवी पर बोलते दिखे, तो माहौल एंटी केजरीवाल कैंप बनने लगा क्योंकि पक्ष ही एक दिखेगा, तो कहानी भी एकतरफा दिखाई देगी।

4. सामने आई पार्टी- जब माहौल पार्टी के विरोध में जाने लगा तो पार्टी सामने आई, लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो गई थी। फिर आरोपों की लंबी फेहरिस्त दोनों नेताओं के खिलाफ बताई गई। यहीं से सब खुल्लम खुल्ला हुआ, जब दोनों पक्ष जनता के बीच आ गए और दोनों तरफ से आरोपों की झड़ी लग गई। ऐसा लगने लगा कि अब इन दोनों पर आगे और कार्रवाई तय है। इस बीच केजरीवाल अपना इलाज कराकर बेंगलुरू से दिल्ली आ गए।

5. प्रशांत भूषण ने समय मांगा - प्रशांत भूषण ने केजरीवाल को मैसेज भेजकर मिलने का समय मांगा। तुरंत ही मीडिया में बयान दे दिया कि मैंने समय मांगा है और मैं चाहता हूं उनसे मिलकर विवाद खत्म हो। लेकिन यहां प्रशांत भूषण की मंशा पर संदेह होता है, क्योंकि अगर मिलना होता है और वाकई मसले सुलझाने होते हैं, तो अकेले में मिला जाता है। मीडिया को बताकर तो अगले पर दबाव बनाकर यह कोशिश होती है कि जनता में संदेश दिया जाता कि हम अड़े नहीं हैं, समाधान चाहते हैं और ऐसे में जो मिलने से मना करेगा, उसके ऊपर आरोप लगेगा कि वह सुलह नहीं चाहता।

6. प्रशांत भूषण का मिलने से इनकार - जिन नेताओं को अरविंद केजरीवाल ने समझौते के काम पर लगाया था, उनमें से एक आशीष खेतान ने जब प्रशांत भूषण से मिलने का समय मांगा, तो प्रशांत ने मना कर दिया। माना आशीष खेतान प्रशांत के सामने पार्टी में बहुत जूनियर हैं, लेकिन वो सीनियर नेताओं कुमार विश्वास, संजय सिंह और आशुतोष की तरफ से मिलने का समय मांग रहे थे और ये नेता पहले ही येगेंद्र यादव से देर रात घंटों मुलाकात करके आ चुके थे। इससे सवाल उठा कि क्या वाकई प्रशांत भूषण समझौता चाहते थे?

7. स्टिंग- राष्ट्रीय परिषद की 28 मार्च की बैठक से पहले खुलेआम आरोपों की बौछार दोनों से हो रही थी। इसी बीच 27 मार्च को पार्टी नेता प्रोफेसर आनंद कुमार ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि ऐतिहासिक प्रेस कांफ्रेस होने वाली है, जिसमें 'सबसे बड़े आप नेता' का स्टिंग जारी हो सकता है। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि केजरीवाल निर्विवाद रूप से सबसे बड़े 'आप' नेता हैं।

प्रेस कांफ्रेस में स्टिंग जारी नहीं हुआ, लेकिन कुछ घंटों बाद ही राष्ट्रीय परिषद की बैठक से बस एक रात पहले ही अरविंद केजरीवाल से बातचीत का एक ऑडियो जारी हुआ, जिसमें केजरीवाल कुछ अपशब्दों का प्रयोग करते दिखे। ऐसे माहौल में इस ऑडियो के लीक होने का मतलब और शक किस पर जाएगा, ये आप समझ ही सकते हैं। फिर इसके जवाब में दूसरा क्या करेगा, ये भी बताने की ज़रूरत नहीं। मैं ये नहीं कह रहा कि आनंद कुमार ने ये स्टिंग लीक किया या ये वही स्टिंग था, जिसकी आनंद कुमार बात कर रहे थे, लेकिन ऐसे हालात सवाल तो खुद ही उठा रहे हैं।

8. नई पार्टी पर सवाल- अब खबर चल रही है कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण नई पार्टी बनाने का ऐलान कर सकते हैं। सवाल ये ज़रूर उठेंगे कि कहीं दोनों ने नई पार्टी बनाने के लिए ही ते ये सब स्क्रिप्ट पहले नहीं लिखी थी? मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं कि जब अरविंद केजरीवाल ने पार्टी बनाई, तब भी ये सवाल उठे थे। कहा ये भी जा सकता है कि अगर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पद का लालच नहीं था या इस तरह निष्कासन नहीं चाहते थे, तो उन्होंने खुद ही पीएसी या राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा क्यों नहीं दे दिया, ताकि बात इतनी ना बिगड़ती? क्या वो यही चाहते थे कि अगर खुद छोड़ेंगे तो सहानूभूति नहीं मिल पाएगी और इस तरह निकाले जाने पर शहीद जैसा दर्जा मिलेगा?

9. अरविंद की बजाय वॉलंटियर्स - मैंने लगातार एक बात कही है कि योगेंद्र यादव इस पूरे प्रकरण में बजाय सीधा अरविंद से बात करने के अपने हर बयान और इंटरव्यू मे वॉलंटियर्स की बात कर रहे थे जैसे कि 'मुझे देशभर के वॉलंटियर्स के समदेश आ रहे हैं', 'हमारे वॉलंटियर्स देख रहे हैं कि हम क्या कर रहे हैं'... इसके भी अपने मायने हैं और जो लोग राजनीति समझते हैं, वो समझ जाएंगे कि इसका मतलब और इशारा क्या है।

कौन सही है और कौन गलत इसका फैसला ना तो मैंने कभी किया ना करूंगा, क्योंकि मैं रिपोर्टर हूं, जज नहीं, लेकिन मेरा मानना है कि सभी पहलू सामने लाना मेरा काम है और इस लेख का भी मतलब सिर्फ यही है कि ताली एक हाथ से नहीं बजती यानी गलती दोनों की होगी तभी लड़ाई हुई होगी और इस मुकाम तक पहुंची।

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