सोच सौरभ शुक्ला की : कीमतें कच्चे तेल की, कितनी पक्की...?

नई दिल्ली:

कच्चा तेल करीब छह साल के निचले स्तर पर पहुंच गया है, अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत लगभग 45 डॉलर प्रति बैरल तक पहुच गई हैं, भारत का आम आदमी भी उम्मीद लगाए बैठा है कि पेट्रोल और डीज़ल के दाम भी देश में जल्द ही और कम हो जाएंगे, तो महंगाई से कुछ हद तक निज़ात मिल सकेगी। आइए कोशिश करते हैं तेल के इस खेल को समझने की, और देखते हैं, क्या कारण है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चा तेल इतना नीचे गिर गया...

पिछले छह सालों के दौरान अमेरिका शेल आयल के उत्पादन में तेज़ वृद्धि हुई, अमेरिका का घरेलू उत्पादन दोगुना हो गया... वहां तेल का आयात काफ़ी तेज़ी से घटा, जिससे तेल निर्यातकों को दूसरे ठिकाने तलाशने पर मजबूर होना पड़ा...

सऊदी अरब, नाइजीरिया और अल्जीरिया जैसे तेल निर्यातक देश अचानक एशियाई बाज़ारों के लिए प्रतिस्पर्धा करने लगे, नतीजतन उत्पादकों को कीमत घटानी पड़ी...

दूसरी तरफ, यूरोप और विकासशील देशों की आर्थिक रफ्तार सुस्त पड़ गई है और वहां वाहन ज़्यादा एनर्जी-एफिशिएन्ट बन रहे हैं, जिससे तेल की मांग में कमी आई...

अभी तक पेट्रोलियम निर्यातक देशों का संगठन ओपेक दामों को बढ़ाने के लिए तेल उत्पादन में गिरावट कर देता था... ईरान, वेनेज़ुएला और अल्जीरिया ओपेक से इस बार भी ऐसा करने का आग्रह कर रहे हैं, लेकिन खाड़ी के अन्य देशों और सऊदी अरब ने ऐसा करने से मना कर दिया है... सऊदी अरब का कहना है कि इससे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उसकी हिस्सेदारी गिरेगी और प्रतिद्वंदियों को लाभ होगा...

कच्चे तेल के दाम घटने से भारत को काफी फायदा होगा। सरकार का आयात बिल घटेगा, सब्सिडी बिल में भी कटौती होगी। इन वजहों से रुपया मज़बूत हो सकता है। इसके अलावा पेट्रोल और डीज़ल जैसे ईंधनों के दामों में और गिरावट देखने को मिल सकती है। जून, 2014 से कच्चे तेल की कीमतें करीब 60 फीसदी नीचे आ चुकी हैं, जिससे अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में क्रूड की बिकवाली और तेज़ हुई है। हाल के महीनों में गैसोलीन के दामों में प्रति गैलन एक डॉलर से भी ज़्यादा की गिरावट हुई है। डीज़ल, तेल और प्राकृतिक गैसों के दाम तेजी से गिरे हैं। इन सबके चलते आने वाले महीनों में प्रति परिवार औसतन एक हज़ार डॉलर तक की बचत होने का अनुमान है, और यह फायदा दुनियाभर के उपभोक्ताओं को मिल सकता है।

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तेल के इस खेल में अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र के भी कयास लगाए जा रहे हैं। माना जा रहा है कि रूस और ईरान के आर्थिक हितों को प्रभावित करने के लिए सऊदी अरब, कुवैत और अमेरिका इसके पीछे हैं। यूक्रेन के मसले पर रूस, और इराक के मसले पर ईरान को घेरने के लिए ऐसा किया जा रहा है, लेकिन ऐसा होने के कोई ठोस प्रमाण नहीं मिले हैं, सो, अब चाहे जो भी हो, आम आदमी के लिए यह अच्छी खबर है...