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This Article is From Jun 28, 2016

आंकड़ों में उलझा मध्‍यप्रदेश के बच्चों में कुपोषण का सच

Sachin Jain
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 28, 2016 18:35 pm IST
    • Published On जून 28, 2016 13:05 pm IST
    • Last Updated On जून 28, 2016 18:35 pm IST
इस साल बच्चों में कुपोषण (उम्र के मान से कम वज़न) की स्थिति पर दो आंकड़े सामने आये। मध्यप्रदेश सरकार के जनवरी 2016 मासिक प्रतिवेदन के मुताबिक प्रदेश में 17 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं, किन्तु फ़रवरी 2016 में चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-चार) के मुताबिक राज्य में 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं।

इसके साथ ही वार्षिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (जनगणना संचालनालय) ने वर्ष 2014 में क्लीनिकल, एन्थ्रोपोमेट्रिक एंड बायोकेमिकल (कैब) के आंकड़े जारी किये। इसके मुताबिक मध्यप्रदेश में 40.6 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं।  इसका मतलब यह है कि राज्य में कम वज़न के लगभग 23 से 26 प्रतिशत बच्चे निगरानी और कुपोषण मुक्ति के कार्यक्रम से वंचित कर दिए गए हैं या फिर उनके बारे में जानकारी छिपाई जा रही है। इससे यह आशंका बढ़ जाती है कि ज्यादातर बच्चे कुपोषण और बीमारी के चक्र में फंसे हैं, किन्तु उनकी बेहतरी के लिए सरकार की कोशिशें सीमित रही हैं।  

कुपोषण में कमी के दावे को सही साबित करने के लिए वृद्धि निगरानी जैसे महत्वपूर्ण काम में भ्रष्टाचार किया गया। इसे हम निगरानी का भ्रष्टाचार कह सकते हैं। यह काम आसानी से किया जाता रहा है क्योंकि मध्यप्रदेश सरकार ने कभी भी कुपोषण के प्रबंधन को समुदाय आधारित, पारदर्शी और सहभागी बनाने की जमीनी कोशिश नहीं की। यह एक साबित तथ्य है कि वृद्धि निगरानी और कुपोषण प्रबंधन कार्यक्रम कभी भी एक तकनीकी और सरकारी कार्यक्रम के रूप में अपने लक्ष्य को हासिल करने में सफल नहीं हो सकता है। यह भी एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि प्रदेश में 90 हज़ार से ज्यादा आंगनवाड़ी कार्यकर्ता कुपोषण के कार्यक्रम से जुडी हुई हैं, उन्हें भी नीति-योजना-अभियानों की रूपरेखा बनाने में शामिल नहीं किये जाने की परंपरा है। आखिर में जमीनी वास्तविकताओं से दूर, तकनीकी विद्वान विशेषज्ञों के द्वारा बनायी जाने वाली रणनीतियां असफल साबित होती हैं।

यह बात साफ़ नज़र आती है कि हर महीने या तीसरे महीने राज्य सरकार और विभागीय स्तर पर होने वाले 'उच्च स्तरीय समीक्षा' में इन्ही 'कमतर' आंकड़ों को आधार बनाया जाता रहा और राज्य सरकार ने स्व-विवेक से कभी यह महसूस नहीं किया कि जब निरपेक्ष-निष्पक्ष शोध संस्थाएं राज्य में कुपोषण (कम वज़न) का स्तर ऊंचा बता रहे हैं, तब मासिक सूचना प्रबंधन प्रणाली कुपोषण के स्तर को इतना कम कैसे और क्यों बताती है?

केवल 12.23 लाख बच्चे कम वज़न के : महिला-बाल विकास
महिला एवं बाल विकास विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक 71.90 लाख बच्चों (जिनका वज़न लिया गया) में से केवल 12.23 लाख बच्चे ही कम वज़न के पाए गए। राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा बच्चों के कुपोषण पर संकलित किये गए आंकड़ों में दिखाई दे रहे ऊंचे विरोधभासों से यह सवाल उठता है कि इनमें से किन्हें सही माना जाएगा? स्वाभाविक रूप से एन एफ एच एस (4) की शोध पद्धति और तकनीकी विशेषज्ञता के मद्देनज़र केन्द्रीय लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के सर्वेक्षण को ज्यादा सटीक माना जाता है।

यह एक स्थापित तथ्य है कि मध्यप्रदेश में वृद्धि निगरानी की प्रक्रिया सवालों के दायरे में रही है।  कुपोषण का ऊंचा स्तर होने के बावजूद राज्य में मासिक आधार पर इकट्ठे किये जाने आंकड़ों में हेर-फेर किये जाने की परंपरा सी बन गयी है ताकि कुपोषण की गंभीर स्थिति को कमतर साबित किया जा सके। इसके पहले भी वर्ष 2010-11 में नेशनल इंस्टीट्यूट आफ न्यूट्रीशन (एनआईएन, हैदराबाद) द्वारा कराये गए अध्ययन में मध्यप्रदेश (ग्रामीण) में 52 प्रतिशत बच्चे की स्थिति कम वज़न की श्रेणी में दर्शाई गयी थी। उस वर्ष मासिक प्रगति प्रतिवेदनों के आधार पर राज्य में महज़ 24 प्रतिशत कम वज़न के थे। भारत में कुपोषण की स्थिति को जांचने और उसके विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष बहुत महत्वपूर्ण माने जाते रहे हैं। इसके पहले राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण का तीसरा चक्र वर्ष 2005-06 में सम्‍पादित किया गया था।  

एनएफएचएस के निष्कर्ष पेश कर रहे अलग तस्वीर
मार्च 2016 में एनएफएचएस (चार) के निष्कर्ष जारी किये गए। इनसे पता चला कि मध्यप्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वज़न (ऐसे बच्चे जिनका वज़न उनकी उम्र के मुताबिक कम है और यह कुपोषण का एक प्रकार भी है) के हैं। इसके दूसरी तरफ महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा संचालित एकीकृत बाल विकास परियोजना कार्यक्रम भी आंगनवाड़ी की व्यवस्था के तहत हर माह सभी दर्ज बच्चों की वृद्धि निगरानी करने कुपोषण की स्थिति को जांचता रहता है। यह काम इसलिए किया जाता है ताकि नियमित रूप से नज़र रखकर उन बच्चों की पहचान की जा सके जो कुपोषण के शिकार हो रहे हैं या अति गंभीर कुपोषित हो चुके हैं। वास्तव में बच्चों के सही विकास के लिए उनकी वृद्धि (खास तौर पर वज़न में बढ़ोतरी) को सुनिश्चित करना एक किस्म से अनिवार्यता ही है।

निगरानी की विश्वसनीयता पर उठे गंभीर सवाल
यह साफ़ दिखाई देता है कि मध्यप्रदेश में होने वाली वृद्धि निगरानी की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं, फिर भी मध्यप्रदेश सरकार ने इसे ठीक करने के लिए कोई तैयारीन हीं की। आमतौर पर यह कहकर बात को खारिज कर दिया जाता है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं में क्षमता का अभाव है इसलिए सही कुपोषण की सही निगरानी नहीं हो पा रही है। वास्तविकता इसके उलट है। मैदानी कार्यकर्ताओं का स्पष्ट रूप से कहना होता है कि उन्हें ये निर्देश होते हैं कि कुपोषित बच्चों की संख्या को कम करके ही दिखाया जाये। उन्हें यह संदेश दिया जाता है कि यदि उन्होंने अपने दस्तावेजों में कुपोषित बच्चों की जानकारी दर्ज की और उनमें से किसी की मृत्यु हो गयी तो इसके लिए उन्हें ही जिम्मेदार माना जाएगा और उन्हीं पर कार्यवाही होगी।     

जिला/राज्य    एनएफएचएस(चार )    एमआईएस  (मध्यप्रदेश सरकार)
बड़वानी     55.0     28.6
बालाघाट     41.5     14.1
भिंड     49.8     9.3
भोपाल     39.5     14.5
दतिया     46.9     16.5
डिंडोरी     46.6    14.9
खंडवा     46.8     18.6
मंडला     49.8     17.0
श्योपुर     55     22.6
शिवपुरी     49.6     22.1
टीकमगढ़     43.3     12.6
मध्यप्रदेश     42.8     17.0
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जिलावार स्थिति
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दो राज्यों के प्रतिशत में है बड़ा अंतर
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (4) और मध्यप्रदेश महिला एवं बाल विकास विभाग की सूचना प्रबंधन प्रणाली के तुलनात्मक अध्ययन से पता चलता है कि इन दोनों स्रोतों से प्राप्त आंकड़ों में कम से कम 36.7 प्रतिशत (जिला धार) और सबसे ज्यादा 81.4 प्रतिशत (जिला भिंड) का बड़ा अंतर पाया जा रहा है; यानी कम वज़न के इतने बच्चे मध्यप्रदेश के रिकार्ड में दर्ज नहीं हैं। इस बात का गंभीरता से संज्ञान लिया जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश सरकार कम वज़न के 60 प्रतिशत बच्चों की पहचान को कार्यक्रम में सामने क्यों नहीं लाती है? वास्तव में एकीकृत बाल विकास परियोजना कार्यक्रम के तहत वृद्धि निगरानी एक बेहद महत्वपूर्ण कार्यवाही है। इसके तहत हर माह सभी बच्चों का वज़न लिया जाता है ताकि कुपोषण की स्थिति का जल्दी पता चल सके और जरूरत के मुताबिक कुपोषण का प्रबंधन किया जा सके।

वृद्धि निगरानी के जरिये ही कुपोषित बच्चों की पहचान होती है। अब यदि मध्यप्रदेश में 25.8 प्रतिशत कम वज़न के बच्चों की पहचान ही नहीं हो रही है, तो प्रबंधन किस हद तक हो पायेगा? वर्ष 2010 में जब अटल बिहारी वाजपेयी स्वास्थ्य और पोषण मिशन का गठन हुआ तब, मिशन के दस्तावेज में लिखा गया कि अब सरकार कुपोषण के संकट को नकारेगी नहीं, बल्कि स्वीकार करेगी। यह एक महत्वपूर्ण स्वीकारोक्ति थी क्योंकि जब तक इसे स्वीकार ही नहीं किया जाता, तब तक इसमें सुधार की गुंजाइश पैदा होना संभव नहीं था।

10 साल में कम वजन के बच्चों की संख्‍या हुई है कम
पिछले दस सालों में (एनएफएचएस 2005-06 और एनएफएचएस 2015-16) के बीच कम वज़न के बच्चों की संख्या 60 प्रतिशत से घट कर 42.8 प्रतिशत आ गयी यानी लगभग 1.7 प्रतिशत वार्षिक दर से इसमें कमी आई। इस संदर्भ में हमें यह याद रखना होगा कि ये वे बच्चे हैं, जो माध्यम और अति कुपोषण की शुरुआती स्थिति में रहे हैं और थोड़े से प्रयासों से ही उनकी स्थिति में सकारात्मक बदलाव संभव था। इस दौरान स्वास्थ्य संबंधी व्यवहार में आये बदलाव के कारण भी इस स्थिति में सुधार हुआ। यह माना जा सकता है कि इस परिमाण को हासिल करने का मतलब है पेड़ पर सबसे नीचे और हमारी पंहुच में लटक रहे फलों को तोड़ लेना। दूसरी पर लगे फलों तक पंहुचने की जद्दोजहद कठिन है। हम यदि वृद्धि निगरानी को ईमानदार-विश्वसनीय रूप देकर सामुदायिक व्यवस्था में नहीं लायेंगे, तब तक आगे की यात्रा कठिन होगी।

पिछले कुछ सालों में अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी मध्यप्रदेश सरकार को पोषण-कुपोषण की चुनौती से निपटने के लिए 'तकनीकी विशेषज्ञता आधारित' मदद उपलब्ध करवाती रहीं, किन्तु वे भी 'वृद्धि निगरानी' को व्यवस्थित नहीं कर पायीं और एक स्तर के बाद 'कुपोषण के आंकड़ों में घोटाले' पर चुप्पी साधे रहीं।

कुपोषण एक संवेदनशील मुद्दा है। इसे स्वीकार करने के लिए एक खास किस्म की संवेदनशील कठोर निष्ठा की जरूरत होगी। आशंका यह भी है कि इस चुनौती को स्वीकार करने के बजाये सरकारें अपनी जिम्मेदारी को ही सीमित करने लगे और आंगनवाड़ी-बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण करने लगे। आंगनवाड़ी का संचालन गैर-सरकारी संस्थाओं और निजी मुनाफा कमाने वाली कंपनियों को देने लगे। हमें एक बुनियादी सिद्धांत याद रखना होगा कि बच्चों के जीवन की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी संविधान सरकार को देता है, निजी-गैर सरकारी संस्थाओं को नहीं। ऐसे में किसी भी बच्चे के कुपोषण और स्वास्थ्य के संकट को हल न कर पाने की जिम्मेदारी सरकार की ही होगी, वह केवल समीक्षक की भूमिका में न रह पाएगी.... ।

सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति NDTV उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार NDTV के नहीं हैं, तथा NDTV उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

 

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