यह आलेख एक ऐसे विषय पर है, जिस पर सचमुच तो किसी तरह के विश्लेषण की जरूरत नहीं है. सब लोग केवल इसे जानते और समझते ही नहीं हैं, बल्कि इसे एक संकट के रूप में पिछले कुछ सालों से लगातार भोग भी रहे हैं. मैं जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत दाल और रोटी के बारे में कुछ लिख रहा हूं. जिस समय में यह आलेख लिख रहा हूं तब मेरे शहर भोपाल में चना दाल की कीमत 104 रुपये, तुअर दाल की कीमत 168 रुपये, उडद दाल की कीमत 155 रुपये और मसूर दाल की कीमत 102 रूपए प्रति किलो है.
स्वस्थ जीवन के लिए पोषण की जरूरत को जानते हुए और इस विषय पर सघन रूप से शोध-विश्लेषण-प्रशिक्षण का काम करते हुए हमने जाना है कि भारत जैसे देश में जहां दाल प्रोटीन का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है, वहां इसकी जरूरत 30 ग्राम से 100 ग्राम तक होती है. यदि दाल को प्रोटीन का सबसे अहम स्रोत मान लिया जाए तो संभवतः प्रोटीन की दो-तिहाई जरूरत दाल से ही पूरी होती है. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के मुताबिक, एक व्यक्ति को औसतन 65 ग्राम दाल प्रतिदिन (1950 ग्राम मासिक) मिलना चाहिए. इस जरूरत को पूरा करने के लिए एक व्यक्ति को कम से कम 8.28 रुपये प्रतिदिन व्यय करना होगा. यह राशि हमने सभी दालों की कीमत का औसत निकाल कर हासिल की है; लेकिन क्या भारत के लोग इतनी राशि खर्च कर पाने की स्थिति में हैं? निश्चित रूप से नहीं! अगर लोगों को हर रोज एक समय दाल खाना हो तो पांच सदस्यों वाले परिवार को एक महीने में वर्तमान कीमतों पर 1242 रुपये खर्च करने होंगे.
नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन की रिपोर्ट (क्रमांक 558, वस्तुओं और सेवाओं पर पारिवारिक व्यय) के मुताबिक ग्रामीण भारत में प्रति व्यक्ति दाल का मासिक उपभोग 783 ग्राम और शहरी भारत में 901 ग्राम है, जो उनकी जरूरत को पूरा करने लायक दाल की मात्रा का 35 से 40 प्रतिशत ही है. यह तथ्य याद रखें कि दालों में लगभग 32 से 35 प्रतिशत प्रोटीन होता है, जबकि गेहूं और चावल में बहुत कम प्रोटीन–लगभग 8 प्रतिशत, ही होता है.
छह राज्य करते हैं दाल का का 80 फीसदी उत्पादन
भारत के छह राज्य – मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और उत्तरप्रदेश 80 प्रतिशत दाल का उत्पादन करते हैं. वास्तव में हरित क्रांति ने दाल के उत्पादन को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया क्योंकि उस क्रांति में देशज तकनीक, स्थानीय सामाजिक जरूरतों और कुदरती व्यवस्थाओं को तोड़ फेंकने की नीति थी. हरित क्रांति के दौरान गेहूं और चावल और नकद फसलों के उत्पादन को प्रोत्साहित किया गया. यही कारण है कि उत्तर भारत के किसानों ने दाल के बजाय अन्य अनाजों को महत्व देना शुरू कर दिया क्योंकि एक हेक्टेयर में 3000 किलो गेहूं के उत्पादन की बात ने उन्हें आकर्षित किया जबकि एक हेक्टेयर में 500 से 800 किलो दाल का उत्पादन होता है.
दाल उत्पादकों किसानों को नहीं मिला संरक्षण
वास्तव में तब जरूरत थी कि भारत सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की नीति के जरिये दाल उत्पादक किसानों को संरक्षण देती; परन्तु उसने ऐसा नहीं किया. गेहूं और चावल की खरीदी सरकार ने की और न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया, इससे इनका उत्पादन भी बढ़ा, लोगों की अनाज तक पहुंच सुनिश्चित हुई और बाजार में कीमतें भी नियंत्रण में रहीं. सरकार ने दाल की खरीदी नहीं की, इससे दाल उपजाने वाला किसान संकट में पड़ा, बाज़ार में कीमतें बेतहाशा बढ़ीं, बिचौलियों ने कमी को बढ़ाया और सरकार को आयात के लिए तैयार किया. उत्पादन को प्रोत्साहन नहीं मिला और दाल के आम लोगों की पंहुच से दूर हो जाने के कारण प्रोटीन की कमी वाला कुपोषण भी बहुत बढ़ा.
मोज़ाम्बिक से अनुबंध लेकिन किसानों को उचित मूल्य देने को तैयार नहीं
आज जबकि खुले बाजार में दालों की कीमतें आसमान को छू चुकी हैं, तब भी भारत सरकार किसानों से हास-परिहास करने में मशगूल है. एक तरफ तो भारत सरकार मोज़ाम्बिक से 1 लाख टन दाल खरीदने का अनुबंध कर रही है, पर भारत के किसानों को उचित और प्रोत्साहित करने वाली कीमतें देने के लिए तैयार नहीं है. जानते हैं सरकार ने दलहन की इस साल क्या कीमतें तय की हैं? – तुअर की 50.50 रुपये, मूंग की 52.25 रुपये, उडद की 50 रुपये प्रति किलो; पर बाजार की वास्तविक कीमतें क्या हैं? क्या सरकार खुद मुनाफाखोरों के पाले में खड़ी है! बहरहाल एग्रीवाच के मुताबिक चना दाल की थोक कीमतों में एक साल में 57 प्रतिशत, उड़द की कीमतों में 46 प्रतिशत और तुअर में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। फुटकर की कीमतें को सरकार देखती भी नहीं है, वो तो लोग भोगते हैं!
कहां से आती है हमारी दाल
भारत अपनी जरूरत का आधा हिस्सा ही दलहन पैदा करता है. हम बहुत सारी दाल आयात करते हैं. मटर (कनाडा से 61 प्रतिशत और रूस 15 प्रतिशत), चना (ऑस्ट्रेलिया से 74 प्रतिशत और रूस से 16 प्रतिशत), मूंग/उड़द (म्यांमार से 70 प्रतिशत और कीनिया से 7 प्रतिशत), मसूर (कनाडा से 90 प्रतिशत और अमेरिका से 7.5 प्रतिशत), अरहर/तुअर (म्यांमार से 47 प्रतिशत, तंजानिया से 19 प्रतिशत और मोज़ाम्बिक से 16 प्रतिशत).
भारत जो दालें आयात करता है, उनमें से लगभग 40 प्रतिशत मटर, 18 प्रतिशत चना और 22 प्रतिशत मसूर होती है.
दाल के दो महत्वपूर्ण पहलू हैं. एक तो इसका बाज़ार और दूसरा पोषणयुक्त भोजन के रूप में इसकी जरूरत. बिलकुल ताज़ा स्थिति से चर्चा की शुरुआत करते हैं. भारत की केन्द्रीय स्वास्थ्य संस्था भारतीय चिकित्सा अनुसन्धान परिषद के मुताबिक प्रोटीन की जरूरत को पूरा करने के लिए दाल सबसे महत्वपूर्ण भोज्य सामग्री है. यदि भारत की मौजूदा जनसंख्या 128 करोड़ मान ली जाए, तो परिषद की मानकों के मुताबिक हर व्यक्ति (चूंकि शारीरिक श्रम करने वाले ज्यादा है) के लिए 80 ग्राम दाल की जरूरत प्रतिदिन होगी. यदि हम इस जरूरत को पूरा करना चाहें तो हमें हर साल देश को सुरक्षित भंडार की मात्रा मिलकर लगभग 3.5 करोड़ टन दाल का उत्पादन करना होगा. लेकिन हम वास्तव में कितना उत्पादन कर रहे हैं? भारत सरकार के आर्थिक और सांख्यिकी विभाग-कृषि विभाग के मुताबिक वर्ष 2015-16 में भारत में 1.706 करोड़ टन दाल का ही उत्पादन हुआ. जो कि देश की जरूरत का केवल 50 प्रतिशत है यानी जरूरत का आधा!
देश के सांस्कृतिक व्यवहार में शामिल है दाल
भारत के हर कोने में दाल का उपयोग सांस्कृतिक व्यवहार सरीखा होता है. कहीं ढोकला बनेगा, तो कहीं सांबर-बड़ा और कहीं कढ़ी, दाल का हलुआ भी बनता है और नमकीन भी; दाल की जोड़ी चावल के साथ तो बनती ही है. जब दाल इतनी महत्वपूर्ण हो, और उसका उत्पादन देश में कम होता हो, तब मुनाफाखोर तो सक्रिय होंगे ही. बस यह याद रखिये कि दाल के धंधे में मुनाफाखोर छोटे-मोटे नहीं हैं, वे बड़ी-बड़ी कम्पनियां हैं, जो पूंजी के जरिये नीति और उत्पादन दोनों को नियंत्रित करती हैं. आप जानते ही होंगे कि भारत में बंदरगाहों का भी निजीकरण हुआ है और भारत से प्रभावशाली धंधेबाज अडानी समूह का दाल के धंधे पर ख़ासा नियंत्रण है. अडानी बंदरगाह और विशेष आर्थिक प्रक्षेत्र का गुजरात, ओडिशा और आंध्रप्रदेश के समुद्री यातायात केन्द्रों पर नियंत्रण है.
अक्टूबर 2015 में अडानी समूह ने इंडिया पल्सेस एंड ग्रेन एसोसियेशन (आईपीजीए) के साथ करार किया कि वह अपने सभी बंदरगाहों पर दाल का प्रबंधन करेगा. अडानी समूह खाने की सामग्री का व्यापार करने वाली सबसे बड़ी कंपनियों में से भी एक है. इसके बाद आप देख लीजिए कि भारत की सरकार दाल की आयात के लिए किस तरह की व्यवस्था पर सक्रिय हो गयी? भारत सरकार का राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन भी दाल उत्पादन में निजी कंपनियों के लिए ही माहौल बनाने में सक्रिय है. इस धंधे में टाटा और डू-पौंट सरीखे समूह भी सक्रिय हैं.
उत्पादन और जरूरत में बड़ा अंतर
यह तय है कि भारत को दाल का आयात करना ही है; क्योंकि हमारा उत्पादन 1.7 से 1.9 करोड़ टन है, जबकि जरूरत 4 करोड़ टन की है. बहरहाल चूंकि देश का बड़ा तबका ऊंची कीमतों के कारण दाल खा नहीं सकता है, इसलिए इसका उपभोग 2.5 से 2.7 करोड़ टन के बीच रहने की संभावना है. यानी इस साल 60 से 80 लाख टन दाल का आयात किया जाना है. दाल के आयात के व्यापार में निजी कंपनियों की भी बड़ी भूमिका होती है. अनुमान है कि वे यदि एक किलो दाल पर कम से कम 40 रुपये का लाभ अर्जित करेंगे. इसका मतलब है कि वे एक साल में कम से कम 32 हज़ार करोड़ रुपये का मुनाफा कमा सकते हैं. यह तथ्य जान लें कि वर्ष 2005-06 में भारत ने 19.94 लाख टन दाल का आयात किया था, वर्ष 2015-16 में भारत ने 57.9 लाख टन दाल का आयात किया था और इस साल 47.6 लाख टन आयात का निर्धारण हो चुका है.
सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश है भारत फिर भी...
यह तथ्य नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दाल उत्पादक देश भी है और सबसे बड़ा उपभोक्ता भी; लेकिन फिर भी जरूरत पूरी नहीं होती है इसलिए वह दुनिया का सबसे बड़ा दाल आयातक देश भी बन जाता है. दाल उत्पादन का 33 प्रतिशत क्षेत्र भारत में है जबकि 22 प्रतिशत उत्पादन भारत करता है. विश्व की पूरी तुअर दाल का 90 प्रतिशत, 65 प्रतिशत चना दाल और 37 प्रतिशत मसूर दाल का क्षेत्र भारत में पड़ता है; ऐसा होने के बाद अब सवाल यह है कि भारत में दाल की कीमतें 100 से 200 रुपये के बीच कैसे और क्यों पंहुची? जरा सोचिये कि जब दाल का उत्पादन पिछले साल केवल 12 प्रतिशत कम हुआ, तो कीमतें दोगुना हो गयीं.
सरकार में नहीं दिखती इच्छाशक्ति
दाल की कीमतों को कम करने के लिए सरकार बहुत तत्पर नहीं रही; यह उदाहरण देखिये कि वर्ष 2008 में जन राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन शुरू किया गया, तब लक्ष्य तय था कि वर्ष 2012 तक दालों के उत्पादन में 20 लाख टन की वृद्धि होगी और दलहन का रकबा 40 लाख हैक्टेयर बढ़ाया जाएगा; पर हुआ क्या? वर्ष 2010-11 में यह रकबा 2.64 करोड़ हैक्टेयर था, वह 2014-15 में घटकर 2.31 करोड़ हैक्टेयर पर आ गया यानी दलहन का 33 लाख हैक्टेयर रकबा कम हो गया. वास्तव में किसान तो पैदावार करना चाहता है, और कर भी रहा है, पर सरकार और कंपनियों के वेश में बिखरे बिचौलिए उनका शोषण करने में मशगूल है. ताज़ा उदाहरण महाराष्ट्र का है, जहां राज्य सरकार 50 रूपए में खरीदी हुई दाल को 120 रुपये में बेचने जा रही है; वह भी गरीबों को मदद करने के नाम पर!
वर्ष 2005 में तुअर दाल की कीमत 28 रुपये, मूंग दाल की कीमत 33 रुपये, मसूर दाल की कीमत 24 रुपये और चना दाल की कीमत 23 रुपये थी. इन कीमतों में 300 से 690 प्रतिशत की वृद्धि हुई. सभी सरकारें इस वृद्धि को स्वीकार नहीं करती है. उनके विशेषज्ञ झूठे आंकड़े गिनाने लगते हैं. पिछले 4 सालों से भारत के उन क्षेत्रों, जहां दाल का उत्पादन ज्यादा होता है, वहां सूखे की स्थिति निर्मित हुई. पानी का सूखा दाल को बहुत प्रभावित करता है, लेकिन नीति बनाने वालों की आँखों का सूखा आज सबसे बड़ी चुनौती है.
दालों का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष है यह साल
इस साल यानी 2016 को “दालों का अंतर्राष्ट्रीय वर्ष” घोषित किया गया है. इस विषय पर वर्ष 2011 से ग्लोबल पल्स कन्फेडरेशन (जो कि दालों का वैश्विक व्यापार करने वाले समूहों का गठजोड़ है) ने संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य और कृषि संगठन को प्रेरित किया कि वह 2016 को दालों का साल घोषित करे. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा ने भी ऐसा ही किया. जो समूह दालों के साल के लिए वकालत कर रहे थे, वास्तव में उस कान्फेडरेशन के 600 में से ज्यादातर सदस्य तो दालों की बीजों का व्यापार करने वाले हैं, और इसका मकसद निजी संगठित क्षेत्र को और ज्यादा अधिकार/स्थान दिलाना है.
दालों की कीमतों में वृद्धि से एक माहौल बन रहा है कि उत्पादकता बढ़ाने के लिए इसमें भी कंपनी उत्पादित बीजों को बढ़ावा दिया जाए और रसायनों को उपयोग में वृद्धि की वकालत की जाए, जो कि हरित क्रांति के दौर से चली आ रही नीति और रणनीति है.
सरकार की तय कीमत से पांच गुना ज्यादा दाम
जरा अपने आसपास नज़र डालिए और देखिये कि अब बाज़ार में जो दाल उपलब्ध है, वह कहां से आई है? वह किसानों के यहां से आई है या किसानों से वह कंपनियों के पास से आई है! उस पर कुछ नए प्रचार बिंदु जोड़े गए (जैसे ज्यादा प्रोटीन, आयरन, बिना पालिश, बिलकुल शुद्ध आदि) और सरकार द्वारा तय कीमत से 5 गुना ज्यादा कीमत की छाप के साथ आपके सामने पहुंची? वास्तव में बाज़ार किसान को हमारी नज़रों से दूर कर रहा है और यह बताता है कि हमारी कंपनी दाल पैदा कर रही है. वे अपनी रणनीति में सफल हैं; जरा सोचिये कि किसानों के संकट के वक्त हमारा समाज उनकी साथ क्यों नहीं खड़ा होता? क्यों वह प्याज, आलू, टमाटर या गन्ने की फसल की कीमत न मिलने पर रोते हुए किसान के आंसू पोंछने नहीं जाता; क्योंकि अब औसत भारतीय व्यक्ति यह मानता है कि शकर, दाल, गेहूं, चावल, खाने का तेल किसान नहीं, बल्कि अडानी, टाटा, अम्बानी की कंपनियां बनाती हैं...
सचिन जैन, शोधार्थी-लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
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