अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कश्मीर पर मध्यस्थता के मुद्दे पर दिए बयान को भारत सरकार ने भले ही खारिज कर दिया हो, लेकिन यह पहली बार नहीं है, जब ट्रंप की अगुवाई में अमेरिका ने कश्मीर पर सक्रियता दिखाई हो. यह ज़रूर पहली बार हुआ, जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के प्रधानमंत्री का नाम लेकर कश्मीर पर मध्यस्थता की कथित पेशकश का शिगूफा छेड़ा हो. भारत इस पर आगबबूला है, लेकिन कूटनीति की नज़ाकत ऐसी है कि ट्रंप को सीधे-सीधे झूठा करार देने से कतरा रही है नरेंद्र मोदी सरकार.
तो क्या यह डोनाल्ड ट्रंप के सिरफिरा होने और उनकी अपरिपक्वता के चलते हुआ है...? इसे गंभीरता से लेने की ज़रूरत नहीं, यह कहकर क्या इसे इतनी आसानी से दरकिनार किया जा सकता है...? अतीत के आईने में झांकें, तो यह बकवास से कहीं ज़्यादा है. साल 2017 में अमेरिका में सत्ता संभालने के बाद से ट्रंप की टेढ़ी नज़र कश्मीर पर रही है. तब संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत निकी हेली ने दो टूक कहकर सब को चौंका दिया था कि अमेरिका भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ घटने का इंतज़ार नहीं करेगा. अप्रैल, 2017 में निकी हेली ने ट्रंप प्रशासन की तरफ से कश्मीर पर अपने इरादे को काफी हद तक साफ कर दिया था. निकी हेली ने भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव कम करने में अपनी भूमिका बनाने की मंशा साफ कर दी थी. यह अमेरिका की उस नीति में बहुत बड़ा बदलाव था, जिसके तहत अमेरिका हमेशा कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच का द्विपक्षीय विवाद मानता रहा है. ट्रंप अपनी सीमित कूटनीतिक क्षमता की नुमाइश समय-समय पर करते रहे हैं, लेकिन कश्मीर पर अब मध्यस्थता की पेशकश वाला बयान सिर्फ एक गैर-ज़िम्मेदाराना बयान नहीं है.
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दिलचस्पी भारत और पाकिस्तान के आपसी विवाद हल करने में पहले से है. इसी साल फरवरी में जम्मू एवं कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले के बाद ट्रंप प्रशासन ने तनाव को कम करने का श्रेय लिया था. पाकिस्तान के कब्ज़े से भारत के पायलट अभिनंदन वर्धमान की सकुशल रिहाई के लिए भी अमेरिका ने दबाव बनाने का दावा किया था. इसके अलावा, संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान में बैठे आतंक के सरगना मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने में चीन पर दबाव डालने में अमेरिकी प्रयासों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. लंबी जद्दोजहद के बाद चीन ने मसूद अज़हर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने में अड़ंगा डालने पर कदम पीछे खींचे.
ऐसा मुमकिन है कि ट्रंप कोरियाई उपमहाद्वीप में शांति स्थापित करने में अपने कारनामे से प्रभावित होकर 70 साल से ज़्यादा पुराने कश्मीर विवाद को हल करने में हाथ आज़माना चाहते हों. लंबे अर्से से लड़ रहे उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया को बातचीत की मेज़ पर लाना और परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की उत्तर कोरिया की गीदड़ भभकी के साये में शांति कायम करना एक उपलब्धि है और इस मामले में ट्रंप, अमेरिका के तमाम पूर्व राष्ट्रपतियों को पछाड़ चुके हैं. उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन के साथ अमेरिकी रिश्तों में आया बदलाव और एक नहीं, दो-दो बार राष्ट्रपति ट्रंप और किम जोंग उन के बीच हुई मुलाकात बताती है कि विवाद सुलझाने के मामले में ट्रंप ने कच्ची गोलियां नहीं खेलीं. हालांकि यह अलग बात है कि ईरान के साथ समझौता रद्द करना हो या ब्रिटेन समेत अन्य यूरोपीय देशों के साथ अमेरिका रिश्तो के ठंडे पड़ने के पीछे भी ट्रंप की कूटनीति ही ज़िम्मेदार है.
जहां तक भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कश्मीर पर मध्यस्थता की पेशकश का ट्रंप का दावा है, उसे ट्रंप की तरफ से दिए गए उन हज़ारों बयानों के संदर्भ में देखने की ज़रूरत है, जो बेबुनियाद पाए गए हैं. अमेरिकी इतिहास में डोनाल्ड ट्रंप ऐसे राष्ट्रपति के तौर पर भी जाने जाएंगे, जिनके कार्यकाल में सबसे ज़्यादा आधारहीन और बचकाने बयान दिए गए हैं. अमेरिकी अखबार 'द वाशिंगटन पोस्ट' के मुताबिक 10 जून, 2019 तक अपने 869 दिन के कार्यकाल में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप 10,796 झूठे या भ्रामक बयान दे चुके हैं. ट्रंप के बयान इसी के चलते अमेरिकी प्रशासन के लिए एक बोझ बन चुके हैं, जिनकी पैरवी और समर्थन करना ज़्यादातर अमेरिकियों के लिए न उगलते बनता है, न निगलते. कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों की लक्ष्मण रेखा है, जिस पर मध्यस्थता की पेशकश करना लक्ष्मण रेखा लांघने जैसा है. लेकिन ट्रंप का मिज़ाज लक्ष्मण रेखाओं को मानने का आदी नहीं है, सो, ऐसे में उनके सत्ता में रहते इस तरह की गुगली का सामना करने के लिए भारत को भविष्य में भी तैयार रहना होगा.
ऋचा जैन कालरा NDTV इंडिया में प्रिंसिपल एंकर तथा एसोसिएट एडिटर हैं...
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