विज्ञापन
This Article is From Jul 24, 2016

षड्यंत्र का सम्मान, महिलाओं का नहीं

Bhoomika Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 24, 2016 20:15 pm IST
    • Published On जुलाई 24, 2016 20:15 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 24, 2016 20:15 pm IST
उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति हर बार देश के लिए एक तमाशा बन जाती है। कभी राजनैतिक दांवपेंच का तो कभी अप्रत्याशित साठगांठ का और ज्यादातर ऐसे किस्से जो शर्म और ग्लानि के साथ याद आते हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों से जिस चुनावी गणित का बहीखाता खुला है, वह 2017 के आगामी विधानसभा चुनाव तक शिष्टता और गरिमा का केवल कर्ज़ ही दर्ज़ कर पाएगा।

कई साल की गुमनामी के बाद बीजेपी ने 2014 के लोकसभा चुनाव से उत्तर प्रदेश में जो वापसी की, वह इस गणित की साक्षी है। यह गणित जटिल होते हुए भी काफी सरल है। स्थानीय बाहुबली को बाकी गुटों से श्रेष्ठ ठहराकर और जनतांत्रिक नीतियों के फल से वंचित बताकर एक षड्यंत्र जैसी भावना को हवा देकर खुद को सशक्त करना। यह भावना एक सम्मोहन है जो काफी आसानी से तथाकथित उच्च, अग्रणी और बाहुबली (चाहे अग्रणी चाहे पिछड़ी) जातियों को एकमत करने में सफल साबित होती जा रही है। गजब बात यह है कि इसे हवा देने की लिए कोई राष्ट्रीय या अति व्यापक तंत्र नहीं चाहिए। व्हाट्सऐप से लेकर स्थानीय अखबारों में, मोहल्ले के कोने में लगे लाउडस्पीकरों से लेकर चाय की बैठकों में इस तथाकथित षड्यंत्र का सम्मोहन ठोस हुआ जाता है। अगर हर चुनावी बिसात एक षड्यंत्र है, तो यह उस षड्यंत्र के प्रति एक षड्यंत्र है।

पर यह षड्यंत्र किस धागे से बुना जाता है? काफी समय पहले से जनसंख्या में वृद्धि और फिर आरक्षण के मुद्दे को लेकर चुनावी राजनीति में अग्रणी जातियों के प्रति षड्यंत्र की कवायद ने अपना स्थान ग्रहण किया। भारत की आबादी में मुसलमानों की बढ़ती आबादी को लेकर चिंता और उस चिंता को देश की गैर-मुसलमान आबादी के प्रति मुसलमानों की साजिश करार देकर बहुतों ने अपनी चुनावी भाषण सेंके। नब्बे के दशक में कुछ ऐसा ही जोर आरक्षण की नीति के आढ़े पनपा। आरक्षण को अग्रणी जातियों के प्रति षड्यंत्र और उनके सामाजिक एवं आर्थिक पतन का कारण ठहराया जाने लगा। इन दोनों मुद्दों में जोर अभी भी उतना ही है पर पिछले तीन सालों में इतिहास के पन्नों से एक और षड्यंत्र की धारणा पुनर्जीवित हो गई है - हिन्दू समाज की महिलाओं के प्रति मुसलमान समाज के पुरुषों का तथाकथित 'लव जिहाद'। जब कुछ न काम करे तो पूरे प्रदेश की राजनीति को महिलाओं की इज्जत और तथाकथित षड्यंत्र के दबाव में लिए गए फैसले पर झोंक दो और तमाशा देखो। बहुत सोचने पर याद आया कि पिछली बार इस तीव्रता से जब लव-जिहादनुमा भावनाओं नें समाज को झुलसाया था, तब वह भारत के विभाजन का दौर था। महिलाओं के सम्मान के आड़े राजनीति नई कतई नहीं है पर इतनी खतरनाक भी बहुत समय से नहीं रही थी।

दलित समाज की महिलाएं इस खतरनाक राजनीति को अच्छे से जानती हैं और बुरी तरह से सहती भी हैं। अगर यहां कुछ षड्यंत्रनुमा है भी तो वह है उनकी बात को और उनके शोषण को नकारना। उत्तर प्रदेश की विगत और भावी राजनीति में ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह संतोष दिला सके कि षड्यंत्रों के इर्द गिर्द घूमती राजनीति से छुटकारा मिल सकता है और केवल दिखावे के लिए ही सही, बात षड़यंत्र के सम्मोहन से घूमकर विकास के सम्मोहन तक कभी पहुंच भी सकती है। भाजपा के दयाशंकर सिंह ने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और फिर दावेदार मायावती के लिए जो कहा वह 2016 की बात है और भाजपा को दण्डित करने के लिए वाजिब भी। पर 1995 में समाजवादी पार्टी के बल पर घटित लखनऊ का  स्टेट गेस्ट हाउस कांड और 2009 में रीता बहुगुणा जोशी की मायवती के प्रति अपमानजनक टिप्पणी भी इसी प्रदेश की विगत राजनीति का हिस्सा है। मायवती भी अजेय नहीं हैं। चुनावी राजनीति के दांवपेंच वह भी उतना ही बेहतर समझती हैं, जितना बाकी दावेदार। परन्तु षड्यंत्रों के सम्मोहन से फलती-फूलती राजनीति में इसे केवल एकाकी गलती समझना भारी बेवकूफी होगी।

राज्यसभा में मायावती के इस अपमान के प्रति सबका एकजुट होना सराहनीय नहीं है, यह तो होना ही चाहिए। पर क्या इस बात की निंदा तब भी इसी बल के साथ होती जब यह चुनाव से पहले का समय नहीं होता? अखबारों और टीवी में इस बात पर चर्चा ज्यादा है कि कैसे दयाशंकर सिंह के कथन से भाजपा का राजनैतिक पतन हो सकता है। कैसे उत्तर प्रदेश का चुनावी गणित उनके लिए विफल भी हो सकता है, इस बात पर नहीं कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित महिला नेता के लिए सम्मान की संभावना है भी की नहीं? जिस भाजपा ने लव-जिहाद की साजिश को हवा दी हो, जिस सपा के आला नेताओं ने विधान सभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के सम्बन्ध में महिलाओं के दिखावे-पहनावे पर टिप्पणी की हो और जिस कांग्रेस की महिला नेता ने स्वयं दूसरी महिला नेता पर अपमानजनक प्रहार किया हो, ऐसे गुटों के बीच और ऐसे माहौल में - नहीं, कभी नहीं।

भूमिका जोशी येल यूनिवर्सिटी में मानवशास्त्र की PhD छात्रा हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।


इस लेख से जुड़े सर्वाधिकार NDTV के पास हैं। इस लेख के किसी भी हिस्से को NDTV की लिखित पूर्वानुमति के बिना प्रकाशित नहीं किया जा सकता। इस लेख या उसके किसी हिस्से को अनधिकृत तरीके से उद्धृत किए जाने पर कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाएगी।

NDTV.in पर ताज़ातरीन ख़बरों को ट्रैक करें, व देश के कोने-कोने से और दुनियाभर से न्यूज़ अपडेट पाएं

फॉलो करे:
Listen to the latest songs, only on JioSaavn.com