सिर्फ संख्या से नहीं बन जाती है जनता - लेखपालों, शिक्षामित्रों समझ लीजिए...

हर दिन मेरे व्हॉट्सऐप के इनबॉक्स में त्रिभुवन का मैसेज आ जाता है. एक लाश और उसके आस-पास रोती-बिलखती औरतों की तस्वीर होती है.

सिर्फ संख्या से नहीं बन जाती है जनता - लेखपालों, शिक्षामित्रों समझ लीजिए...

शिक्षामित्र लाचार हैं. वे धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. मारे-मारे फिर रहे हैं.

हर दिन मेरे व्हॉट्सऐप के इनबॉक्स में त्रिभुवन का मैसेज आ जाता है. एक लाश और उसके आस-पास रोती-बिलखती औरतों की तस्वीर होती है. उत्तर प्रदेश में ऐसी लाश को शिक्षामित्र कहते हैं, जिनके बीच ज़िन्दा लोगों की संख्या अब भी पौने दो लाख है. मरने वालों के कारण अलग-अलग हैं, मगर सदमा, दिल का दौरा और अवसाद के अलावा आत्महत्या भी बड़ा कारण है. शिक्षामित्र त्रिभुवन जब इन मौतों की फाइल लेकर मेरे दफ्तर आए, तो देर तक मोटी-सी वह फाइल दिमाग में अटकी रही, जैसे किसी ने 100-200 लाशें कमरे में लाकर रख दी हों. 'Prime Time' में दिखाने के बाद शिक्षामित्रों ने धन्यवाद का संदेशा तो भेज दिया, लेकिन दिखाने के बाद हुआ क्या, इसका जवाब ज़ीरो है. कुछ नहीं हुआ. आज भी शिक्षामित्रों की लाश की तस्वीरें मेरे इनबॉक्स में आ रही हैं. त्रिभुवन जैसे हज़ारों शिक्षामित्रों के लिए मेरे पास कुछ नहीं है.

शिक्षामित्रों ने 17-18 साल तक सरकार के स्कूलों में पढ़ाया है. सरकार ने इन्हें समय-समय पर प्रशिक्षण दिया है और अलग-अलग तरह के सरकारी काम भी लिए हैं. इनकी नौकरी पक्की भी हुई, मगर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में केस हार गए. फैज़ान मुस्तफ़ा ने 'Prime Time' शो में कहा था कि इनका केस मज़बूती से नहीं लड़ा गया और कई पक्ष कमज़ोर नज़र आते हैं, जबकि इनकी अपनी कोई कमी नहीं है. फिर सुप्रीम कोर्ट ने कहीं नहीं कहा था कि इनकी सैलरी 40,000से घटाकर 10,000 कर दी जाए, मगर तुरंत ही इनकी सैलरी 10,000 कर दी गई, जबकि अब भी वे सेवाएं दे रहे हैं. 17 साल की नौकरी में दो से तीन साल ही इन्हें 30,000 से 40,000 की सैलरी मिली है. उससे पहले ये 1,400 से 2,000 की सैलरी पर काम कर रहे थे. इतने कम पैसे में इनसे अंबानी की काल्पनिक यूनिवर्सिटी की तरह गुणवत्ता की उम्मीद करने वाले भी चांद से हर रविवार धरती पर राय देने आते होंगे.

शिक्षामित्र लाचार हैं. वे धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं. मारे-मारे फिर रहे हैं और अंत में मर जाते हैं. कभी बीमारी की मार से, कभी अपनी हताशा से. इनकी संख्या पौने दो लाख है, मगर इनकी सुनने वाला कोई नहीं है. ये हमारे लोकतंत्र में अपने ही साथियों की लाश की तस्वीरें फॉरवर्ड करते हुए भटक रहे हैं. पैसे की तंगी ने इन्हें इतना तोड़ दिया है कि बहुतों के मोबाइल में चार्ज का पैसा तक नहीं होता है.शिक्षामित्रों की बात करने पर कुछ मैसेज आने लगता है कि ये लोग चोर हैं, पढ़ाते नहीं हैं. यह नहीं करते हैं, वह नहीं करते हैं, मगर किसी का एक मैसेज नहीं आता है कि इनकी हालत तो बहुत ख़राब है. इनके साथ राज्य को ऐसा अन्याय नहीं करना चाहिए. उत्तर प्रदेश में 30,000 से अधिक लेखपाल 3 जुलाई से हड़ताल पर हैं. उनकी मांगें ऐसी नहीं हैं कि सरकार को तारे तोड़कर लाने पड़ें. 'Prime Time' में लेखपालों के बारे में दिखाने पर ऐसी ही प्रतिक्रियाएं आ रही हैं कि इन्हें जनता से कोई मतलब नहीं, ये जनता का ख़ून चूसते हैं. आपको इनसे सहानुभूति नहीं रखनी चाहिए. एक तो लोकतांत्रिक तरीके से प्रदर्शन कर रहे किसी जनसमूह को देखने का सही तरीका नहीं है, उसकी मांगों को हम उसके प्रति जनता के बीच छवि के चश्मे से नहीं देख सकते हैं.

फिर तो हमारे नेताओं की कौन-सी छवि ऐसी है कि हम उन्हें सत्ता सौंप देते हैं. मैं लेखपाल के बारे में नहीं जानता था. लेखपालों को पता था कि आज का मीडिया पटवारी, अमीन और लेखपाल के बारे में नहीं जानता है, इसलिए एक लेखपाल ने जन्मपत्री की तरह एक लंबे-से क़ाग़ज़ पर अपने 41 कार्यों की सूची लिखकर टांग दी, ताकि सब समझ सकें. लोग मीडिया से भी ज़्यादा रचनात्मक हैं. कई लोगों ने काम करते हुए की तस्वीरें भेजीं, जिनके ज़रिये मैं देख सका कि लेखपाल बाढ़, सुखाड़, आगजनी, ओलावृष्टि के वक्त ज़मीन से लेकर गांव तक की पैमाइश करते हैं, आंकड़ों को सबसे पहले वही बीनकर सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज करते हैं. कितने रकबे में फसल बोई गई है और कितनी हुई है, यह रिकार्ड भी लेखपालों के ज़रिये कृषि मंत्रालय तक जाता है. गांव की ज़मीनों की पैमाइश करना और रिकॉर्ड रखना इनका ही काम है.

अंग्रेज़ों की बनाई यह पटवारी व्यवस्था कई खामियों से ग्रस्त है, मगर इनका उपयोग है, वह इनके कार्यों की सूची से साबित तो होता ही है. अगर ये काम नहीं करते हैं तो फिर क्या यह मान लिया जाए कि ज़मीन पर सरकार नहीं है. कोई काम ही नहीं करता है. अगर कोई काम करता है, तो उस काम का उचित मेहनताना मिलना चाहिए कि नहीं. सरकार दिनभर दावे करती रहती है कि भ्रष्टाचार ख़त्म कर दिया है, फिर उसके कर्मचारियों की मांग के समय क्यों कहा जाता है कि ये ऊपर से कमा लेते हैं. तो फिर नीचे लिया गया पैसा ऊपर तक भी पहुंचता होगा. सरकारी कर्मचारियों को समझना होगा कि वे इस छवि से कैसे लड़ेंगे और वे नहीं लड़ेंगे, तो धरना देते रह जाएंगे, और होगा कुछ नहीं, लेकिन सरकारी कर्मचारी चोर हैं, यह बात जनता और सरकार तब क्यों कहती है, जब वे अपनी जायज़ मांगों को लेकर आवाज़ उठाते हैं. उन्हें चोर कहने वाले भी कम चोर नहीं हैं.

मैंने कई तहसीलों के वीडियो देखे, जो लेखपाल बंधुओं ने भी मेरे लिए भेजे, ताकि मैं देख सकूं कि वे कैसी जगहों पर काम करते हैं. जर्जर इमारतों के नीचे ज़मीन पर बिछी दरी पर काम कर रहे हैं.  भारत 21वीं सदी  में 'सुपरपॉवर' और 'विश्वगुरु' बनने जा रहा है...! आपने किस 'सुपरपॉवर' के यहां देखा है कि 30,000कर्मचारी बरामदे और पेड़ के नीचे बैठकर काम करते हैं. भारत भर में करोड़ों रुपये फूंककर स्वच्छता का ढिंढोरा पीटा गया, मगर सरकारी कार्यालयों में ही शौचालय नहीं है. उनकी साफ-सफाई की कोई व्यवस्था नहीं है. हम सब दशकों से यह देखते आ रहे हैं. लेखपाल भी अपनी इस हालत को जीते आए हैं, लेकिन बदलाव की बात बेमानी है.लेखपालों को 2,000 का पे ग्रेड मिलता है, जो बहुत कम है. उन्हें जो यात्रा भत्ता मिलता है, उसे जानकर हंसी नहीं, रोना आएगा. 3 रुपये 33 पैसे प्रतिदिन यात्रा भत्ता मिलता है और इतना ही स्टेशनरी का पैसा दिया जाता है. क्या ये लोग अपनी जेब से या जनता की जेब से लेकर सरकार का काम नहीं कर रहे हैं...? क्या इसमें बदलाव नहीं होना चाहिए. क्या हमारी निचली सीढ़ी के सबसे ज़रूरी कर्मचारियों के बैठने, पानी और शौचालय की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए, क्या उनके कमरे में पंखे भी नहीं होने चाहिए...?

दरअसल, इस लोकतंत्र में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोगों की फौज घुस गई है, जो जनता को ही बर्बाद कर रही है. जनता को ही लगातार कह रही है कि तुम चोर हो. खुद को जनता समझने वाले लेखपाल, शिक्षामित्र और बीटीसी शिक्षक और बीटीसी उर्दू शिक्षक इन बातों को सिर्फ अपनी मांगों के संदर्भ में देखते हैं, मगर दूसरे के संदर्भ में देखेंगे, तो साफ-साफ दिख जाएगा. जनता को यह देखना चाहिए कि सरकार उसी के साथ नहीं, दूसरे के साथ कैसा व्यवहार कर रही है. जनता ही जनता से अलग हो जाएगी, तो फिर वह सरकार के सामने जनता नहीं रहेगी. बस कुछ लोगों की भीड़ रहेगी, जिसे कोई सिपाही भी कलेक्टर के आदेश पर हांक आएगा.

उत्तर प्रदेश में 12,460 बीटीसी शिक्षकों के बारे में कई बार कार्यक्रम किया कि कोर्ट से दो-दो बार जीतने के बाद भी सरकार नियुक्ति पत्र नहीं दे रही है. इन लोगों का स्वार्थ देखिए. इन्होंने एक बार भी मुझे नहीं कहा कि उन्हीं के साथ 4,000 उर्दू शिक्षक भी हैं और वे भी उन्हीं की तरह कोर्ट से केस जीत कर नियुक्ति पत्र का इंतज़ार कर रहे हैं, जबकि दोनों का विज्ञापन एक साथ निकला था, दोनों का मामला एक है. 12,460 शिक्षकों ने आसानी से 4,000 उर्दू शिक्षकों को अलग कर दिया. मुसलमान समझकर किया या 'पहले अपना देखो' के तहत किया, मैं इसे लेकर गेस नहीं करना चाहता, मगर 4,000 उर्दू शिक्षकों में से 30 प्रतिशत गैर-मुस्लिम भी हैं और 12,460 बीटीसी शिक्षकों में से मुस्लिम भी हैं. क्या पता, उर्दू शिक्षकों ने ही खुद को अलग कर लिया हो कि अपनी लड़ाई अलग लड़ेंगे. मेरे पास इसके बारे में सारे तथ्य नहीं हैं.

मैंने 12,460 बीटीसी शिक्षकों और 4,000 बीटीसी उर्दू शिक्षकों का उदाहरण इसलिए दिया, ताकि आप समझ सकें कि जनता टुकडों-टुकड़ों में जनता नहीं हो सकती. यह सही है कि इन 16,460 शिक्षकों ने उत्तर प्रदेश में ज़बरदस्त संघर्ष किया है. हर ज़िले में धरना प्रदर्शन किया है और लाठियां खाई हैं. फिर भी वे अपनी पूरी लड़ाई नहीं जीत पाए हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आश्वासन के बाद भी और कोर्ट के चार हफ्ते में नियुक्ति पत्र देने के आदेश के बाद भी सबको नियुक्ति पत्र नहीं मिला है. करीब 5,000 को ही नियुक्ति पत्र मिला है और अब भी 12,000 के करीब नियुक्ति पत्र का इंतज़ार कर रहे हैं. अभी भी दोनों मिलकर नहीं लड़ रहे हैं. जिस जनता के दम पर नेता जीतकर सरकार बना लेते हैं, उस सरकार के सामने जनता लगातार हार रही है. उसका जनता बनना बाकी है. वह धार्मिक उन्माद, जातिवादी अहंकार के पीछे दौड़कर ख़ुद को जनता समझती रहे, मगर जब भी वह आवाज़ उठाएगी, कुचल दी जाएगी. पौने दो लाख शिक्षामित्रों, 30,000 लेखपालों और 12,000 शिक्षकों को सोचना चाहिए कि वे अपनी लड़ाई अलग क्यों लड़ रहे हैं, क्या उनकी सहानुभूति एक दूसरे से है, इस सवाल का ईमानदार जवाब उनके लिए बेहतर भविष्य की दिशा तय करेगा.

इन सबको ईमानदारी से एक और सवाल पर ग़ौर करना चाहिए. आंदोलन पर जाने से पहले वे किस तरह की ख़बरों के नशे में थे. क्या वे पत्रकारिता के पैमाने पर की जाने वाली ख़बरों के प्रति समर्पित थे या उनके बच्चों को दंगाई बना देने के लिए चल रही हिन्दू-मुस्लिम बहसों में बह रहे थे. आप अचानक जनता नहीं बन सकते और अचानक ही दर्शक बनकर ख़बरों पर दावा नहीं कर सकते हैं कि सब कुछ पत्रकारिता की नैतिकता से हो. इसे भ्रष्ट करने में ग्राहक बनकर आपने जो भूमिका अदा की है, उसकी सज़ा तो भुगतनी पड़ेगी. किसे परवाह है कि 17 और 18 जुलाई को रेलवे के लोकोपायलट भूखे पेट गाड़ी चलाएंगे. वे काम करते हुए अपनी मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं. आप चैनलों से उम्मीद करते हैं, तो बताइए, आप इस उम्मीद से पहले क्या देखते रहे हैं.

गनीमत है, जिला संस्करणों में आपकी ख़बरें छप जा रही हैं. आपने ट्विटर पर ट्वीट करके देख लिया कि आपकी क्या हैसियत हो गई है. मंत्रियों को फर्क पड़ा, न मीडिया को. जब तक आप हिन्दू मुस्लिम टॉपिक देखेंगे और इसी के आधार पर राजनीतिक फैसला करेंगे, आप ऐसे ही मरेंगे या मारे जाएंगे, और अपने ही साथियों की लाश की तस्वीरें व्हॉट्सऐप में फॉरवर्ड करते रहेंगे.अचानक उन्मादी भीड़ से निकल रातोंरात आप जनता नहीं बन सकते. क्या आपने सुनिश्चित नहीं किया कि चुनाव के बाद मीडिया पर राजनीति और धार्मिक उन्माद की भीड़ और सनक हावी रहे, क्या आप उस सनकभरी भीड़ का हिस्सा नहीं रहे, इसका जवाब आपको उसी व्हॉट्सऐप और फेसबुक से मिल जाएगा, जिसके ज़रिये आप मुझे बधाइयां भेज रहे हैं. आप नहीं थे, तो कौन था इस भीड़ में. आपने ही तय किया है कि जो पत्रकारिता कर रहे हैं, वे मुश्किल से गुज़रते हुए धीरे-धीरे गायब कर दिए जाएं. इस लाउडस्पीकर की तार आपने भी काटी है. बेशक, इस तार को आपसे पहले पत्रकारों सहित मीडिया घरानों और नेताओं ने मिलकर काटा है. इतना तो समझ लीजिए कि यब सब इसलिए किया जा रहा है, ताकि जनता यह समझ ले कि अब से सिर्फ संख्या तय नहीं करेगी कि आप जनता हैं.

 

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