BMW कार दलितों को नहीं कुचलती है प्रधानमंत्री जी...

BMW कार दलितों को नहीं कुचलती है प्रधानमंत्री जी...

'यह चिन्ता का विषय है. देश की एकता को बढ़ाने वाली चीज़ों पर बल कैसे दें. मैं उदाहरण देता हूं. मैं गलत हूं तो यहां काफी लोग बैठे हैं. अभी तो नहीं करेंगे, महीने के बाद करेंगे. पहले एक्सिडेंट होता था तो खबर आती थी कि फलाने गांव में एक्सिडेंट हुआ, एक ट्रक और साइकिल वाला इंजर हुआ और एक्सपायर हो गया. धीरे धीरे बदलाव आया, बदलाव यह आया कि फलाने गांव में दिन में रैश ड्राइविंग के द्वारा शराब पीया हुआ ड्राइवर निर्दोष आदमी को कुचल दिया. धीरे धीरे रिपोर्टिंग बदली. बीएमडब्लू कार ने एक दलित को कुचल दिया. सर मुझे क्षमा करना, वो बीएमडब्ल्यू कार वाले को मालूम नहीं था कि वो दलित है जी लेकिन हम आग लगा देते हैं. एक्सिडेंट की रिपोर्टिंग होना चाहिए. होना चाहिए. हेडलाइन बनाने जैसा हो तो हेडलाइन बनना चाहिए.'

यह बात इंडियन एक्सप्रेस के रामनाथ गोयनका अवॉर्ड दिये जाने के मौके पर प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कही है. ज़ाहिर है, उनकी चिन्ता इस बात को लेकर रही होगी कि मीडिया इन दिनों किसी ख़बर को ज़्यादा खींचने लगता है और अन्य विषयों को नज़रअंदाज़ कर देता है. लेकिन इस बहाने उन्होंने गांव, बीएमडब्ल्यू और दलित का जो उदाहरण दिया, उसकी पत्रकारीय और राजनीतिक समीक्षा होनी चाहिए. क्या वाकई मीडिया बीएमडब्ल्यू कार से मारे गए लोगों की जाति लिखता है. यह ज़रूर है कि इस तरह की तेज़ रफ्तार वाली कारों से दुर्घटना की ख़बरें प्रमुख हो जाती हैं. हमने गूगल किया कि बीएमडब्ल्यू और इस श्रेणी की कारों से दुर्घटना की कई दर्दनाक ख़बरें पढ़ने को मिलीं. दावा तो नहीं कर सकता लेकिन जितना सर्च किया उसमें मुझे गांव में बीएमडब्ल्यू कार से किसी के मरने की कोई ख़बर नहीं मिली. मैंने कोई बीस बाइस ख़बरें देखी होंगी, इनमें से किसी भी ख़बर में मरने वाले की जाति नहीं लिखी गई थी. मरने वाला कौन था, क्या करता था, फल बेचता था या फुटपाथ पर सोता था, यह ज़रूर लिखा है.

1 - 3 killed after BMW crashes into heavy vehicle on Yamuna e-way( 31.08.2015, New Delhi, Anup Verma)

2 - 24 yeard old killed after BMW crashes into flyover (4 sept, New Delhi  The Hindu)

3 - Noida BMW hit and run case: Family of 20 yr old killed protest with body on road. (18, april 2016, Indian Express)

4 - MLA’s BMW rams into an auto-rickshaw in Jaipur, 3 killed ( July2, 2016, NewsX Bureau)

5 - High speed crash kills business scion : Lamborghini accident puts focus on youthful impulse of supercar drivers (Hakeen Irfan, 20 feb, 2012, Millennium post)

प्रधानमंत्री की रिसर्च टीम से कोई भी गूगल करेगा तो ऐसी बहुत सी हेडलाइन मिलेगी. ऐसी महंगी कारों की दुर्घटना के कारणों में सिर्फ रफ्तार ही एक पहलू नहीं है, अमीरी के अहंकार की भूमिका होती है. प्रधानमंत्री भी ऐसे लोगों को करीब से जानते होंगे. सलमान ख़ान का मामला भी ऐसा ही कुछ था लेकिन मैं यह ज़रूर सोचना चाहता हूं कि प्रधानमंत्री ने गांव में बीएमडब्ल्यू कार से दलित के मारे जाने को क्यों जोड़ा. लोकेशन, कार और शिकार बदलने के पीछे उनका इरादा क्या रहा होगा?  क्या उन्होंने तीन अलग अलग घटनाओं और पात्रों को मिलाकर कोई चौथी बात कहने का प्रयास किया है?

हाल के दिनों में रोहित वेमुला और गुजरात के ऊना की घटनाओं का संबंध सीधा सीधा दलित होने से रहा है. ऊना में जो लोग चमड़ा उतारने का काम कर रहे थे, वे दलित ही थे जिन्हें नंगा कर बर्बरता से मारा गया. मारने वालों की क्रूरता और मार खाने वालों की बेबसी में प्रधानमंत्री को भारतीय समाज की ऐतिहासिक सामाजिक प्रक्रिया दिखेगी. जब दलितों ने यह कहकर मरी हुई गाय फेंक दी कि तुम्हारी मां है, तुम संभालो तो उसका संबंध जातिगत ढांचे के ख़िलाफ़ प्रतिकार से भी है. आज़ाद भारत या शायद उससे पहले भी जातिव्यवस्था के ख़िलाफ़ ऐसा नायाब प्रदर्शन नहीं हुआ था. जाति के थोपे गए कामों को ठुकराने का यह आंदोलन अपने आप भी अदभुत है इसलिए उन प्रसंगों में दलित ही लिखा जाएगा और दलित ही लिखा जाना चाहिए.

ऊना के दलितों को बीएमडब्ल्यू कार ने नहीं मारा था, बल्कि सूमो कार में आए गौ रक्षकों ने मारा था जिसका संबंध उनके जातिगत अहंकार और हिन्दुत्व की राजनीति से है, जिन्हें आपने बाद में फर्ज़ी गौ रक्षक कहा था. कार किसी दलित को नहीं मारती है लेकिन तब मारती है जब कोई सवर्ण किसी दलित दूल्हे को घोड़े पर बैठा देखता है तो पत्थर बरसाने लगता है. प्रधानमंत्री इसकी जानकारी मध्य प्रदेश और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों से ले सकते हैं. बिहार और यूपी से भी ऐसे बहुत किस्से मिलेंगे कि कैसे दलितों के टोले में सवर्णों की टोली ने आग लगा दी. दलितों के साथ उनकी जाति के कारण बलात्कार से लेकर हत्या की ख़बरें होती हैं. कोई इस सच्चाई को कैसे अनदेखा कर सकता है. क्या प्रधानमंत्री मोदी यह बात दलितों की सभा में बोल सकते हैं कि आपके साथ अन्याय आपके दलित होने के कारण नहीं होता है. मीडिया ग़लत लिखता है.

एक राजनेता के तौर पर वह अच्छी तरह जानते हैं कि दलितों के साथ होने वाली हिंसा में सिर्फ अचानक और आपराधिक इरादों का हाथ नहीं होता है. रोहित वेमुला मामले में उसकी जाति का अहम रोल है. पाठक चाहें तो रोहित के सुसाइड नोट को पढ़ सकते हैं, जिसमें उसने इस जातिगत व्यवस्था में पैदा होने की नियति पर सवाल उठाया था. बहुत से दलित युवाओं को रोहित की बात उनकी बात इसलिए लगी थी कि वे एक जाति में पैदा होने का दंश आज भी झेल रहे हैं. रोहित ने क्या लिखा था, सिर्फ एक पंक्ति की याद दिलाता हूं 'my birth is a fatal accident.' प्रधानमंत्री सर, रोहित ने यह नहीं लिखा था कि I have met with an accident by a BMW car..रोहित की जाति के जवाब में जाति ढूंढने की राजनीति आप समझ सकते हैं. रोहित की आत्महत्या की राजनीतिक परिस्थितियों और व्यक्तिगत मनस्थितियों के निर्माण में जाति की भी एक भूमिका तो थी ही. रोहित वेमुला की यह पहचान उसके पैदा होने से लेकर मर जाने तक और उसके बाद की पहचान है. वह अगर रोहित दुबे होता या दयाशंकर सिंह होता तो उसके परिवार के कई लोगों को बीजेपी में जगह मिल गई होती.

मुझे प्रधानमंत्री की इस मिसाल से हैरानी भी हुई है. दुख भी पहुंचा है. यह उदाहरण अकारण नहीं दिया गया है. मैं प्रधानमंत्री की बातों की राजनीति और आपकी राजनीति की बातों को बेहद गंभीरता से लेता हूं. पढ़ने, शोध करने और समझने की सरल गुंज़ाइश किसी और राजनेता की बातों में मुझे नहीं मिलती है. प्रधानमंत्री को बताने की ज़रूरत नहीं है कि सरकार का संवैधानिक दायित्व है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के विकास के लिए अलग से योजनाएं बनाएं. यह किसी राजनेता की ख्वाहिश पर आधारित नहीं है इसलिए यह दायित्व तय है क्योंकि दलितों के साथ राजनीतिक समाजिक और आर्थिक अन्याय उनकी जाति के आधार पर ही हुआ है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के जनादेश में लिखा हुआ है

'Article 46 of the constitution of India expressly provides that the State shall promote the educational and economic upliftment of the weaker sections of the society, in particular of SCs & STs with special care and shall protect them from injustice and all forms of exploitation.'

यही नहीं NCRB के इसी पन्ने पर आगे दो एक्ट की बात की गई है. The Protection of Civil Rights Act, 1955 और The Scheduled Caste/Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989. इन एक्ट के तहत दलित और आदिवासियों के खिलाफ जितने भी शोषण या अपराध होते हैं, उसके आंकड़े लिये जाते हैं. दलित के साथ अगर जातिगत हिंसा होती है तो जाति दर्ज करना यह एक संवैधानिक कर्तव्य है. पत्रकारिता या प्रशासन का विचलन नहीं है और न ही देश की एकता को ख़तरे में डालने का प्रयास. अगला पैरा भी NCRB की सरकारी वेबसाइट से ही लिया जिससे साफ होता है कि अनुसूचित जाति और जनजाति का आंकड़ा जमा करना है क्योंकि इसकी ज़रूरत तमाम स्टेकहोल्डर को पड़ती है. एक स्टेकहोल्डर तो प्रधानमंत्री के मातहत काम करने वाला सामाजिक कल्याण व अधिकारिता मंत्रालय ही है.

प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा था कि मेरी बात की आलोचना एक महीने बाद होगी. मैं आज ही कर दे रहा हूं क्योंकि इससे गलत मैसेज जा सकता है. मीडिया की बुराइयों की तरफ इशारा करने की उनकी नीयत ठीक हो सकती है लेकिन यह नज़ीर ख़तरनाक है. भारत देश में जब कोई दलित दूल्हा हेलमेट पहनकर निकले तो कौन नहीं पूछेगा कि ये हेलमेट पहन कर शादी करने क्यों जा रहा है, क्या सामने से कोई बीएमडब्ल्यू कार आने वाली है? दलित दूल्हों को मारे जाने वाले पत्थरों का नया नाम बीएमडब्ल्यू तो नहीं है! क्या सवर्णों के बच्चे भी हेलमेट पहन कर शादी करने जाते हैं. इस जगत के किस भूखंड पर दूल्हा हेलमेट पहनकर जाता है. जब कोई ताकतवर किसी दलित की बेटी को उठाकर ले जाएगा और ले गया है तो उस केस की रिपोर्टिंग में पत्रकार अगर जाति नहीं लिखेगा तो न तो उसे पत्रकारिता की समझ है, न ही सामाजिक राजनीतिक हकीकत की. अगर आप असहमत हैं तो यह बात कहिये कि अनुसूचित जाति के साथ कभी भी जाति के आधार पर अन्याय नहीं हुआ.

आप राजनीतिक जमात में भी देख सकते हैं. कुंभ में अमित शाह ने दलित साधुओं के साथ स्नान किया. क्यों किसी अलग घाट पर जाकर ये सब किया गया? इसे लेकर काफी विवाद हुआ था. बीजेपी से लेकर तमाम राजनीतिक दल दलितों के घर भोजन करने क्यों जाते हैं. क्या तब भी हमारे राजनेता चाहेंगे कि सिर्फ नाम लिखा जाए, जाति नहीं लिखी जाए. अगर ऐसा है तो तमाम राजनीतिक दल अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों को जनरल सीट से टिकट देना शुरू कर दें. ठीक है कि बसपा जैसी पार्टी भी यही करती है लेकिन क्या बीजेपी इस परिपाटी को बदल सकती है. दलित लिखने से इतनी परेशानी क्यों हो रही है? जब किसी दलित को ज़मीन से बेदखल किया जाएगा, बलात्कार की घटना होगी, हत्या होगी, भेदभाव होगा तो दलित ही लिखेंगे. कुछ और नहीं लिखेंगे. लिखा जाना चाहिए.

हाल के दिनों में जब राजनीतिक विवाद गरमाया और उसे परेशानी हुई तो यह सवाल पहले सोशल मीडिया के ज़रिये चलाया गया कि कुछ संवाददाता जातिवादी हैं. पीड़ितों की जाति ज़रूर लिखते हैं. कमाल है. सारी राजनीति जाति के आधार पर. खुद को पिछड़ा कहते वक्त क्या उन्होंने जाति का आह्वान नहीं किया था. दलित वाली बात सिर्फ इसलिए है कि जाति न लिखी जाए ताकि दुनिया को पता ही न चले कि उनके साथ क्या हो रहा है. दुनिया को नहीं बल्कि दलितों को ही पता न चले कि उनके बीच के लोगों के साथ क्या हो रहा है. इसलिए नोटिस भेजे जाने के इस दौर में आप तैयार रहिए. एक दिन ख़बरों से दलित ग़ायब कर दिये जाएंगे. वैसे भी ख़बरों में वे इन्हीं दुर्घटनाओं के चलते आते हैं. आत्महत्या से लेकर बलात्कार के शिकार होने पर. देश की एकता को ख़तरा अगर किसी बात से है तो वो ख़बरों को दबाये जाने की नोटिस से है. नज़ीर से है. नसीहत से है. जय हिन्द.

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