ईमानदार की दुकानदारी- रवीश कुमार

नई दिल्‍ली:

ईमानदार कौन है। हम सब ईमानदारी को लेकर दोहरेपन के शिकार होते हैं। ईमानदारी की बात करते करते अपने अपने पैमाने और चश्मे का इस्तेमाल करने लगते हैं। लेकिन जो ईमानदार होता है उसके पास एक ही चश्मा होता है। उसके पास दुविधा नहीं होती है। वो अपने उसूलों पर आगे चल निकलता है। ठोकरें भी खाता है और हताशा का शिकार होता हुआ कई बार मार भी दिया जाता है। तबादला या प्रमोशन ईमानदारी होने की बहुत छोटी कीमत है।

हरियाणा के आईएएस अफसर अशोक खेमका के मामले में ईमानदारी को लेकर बहस हो रही है। यहां यह साफ कर देना ज़रूरी है कि तबादले के कारणों की ठोस जानकारी पब्लिक में नहीं है। फिर भी यह सवाल उठा कि क्यों खेमका का बार-बार तबादला हो रहा है तो ईमानदारी को लेकर तरह तरह की दलीलें दी जाने लगीं। कुल मिलाकर ऐसा बताया जाने लगा कि ईमानदार होना ही सबसे बड़ी या एकमात्र योग्यता नहीं है। अफसर को यह भी देखना होता है कि वह सरकार के काम में अड़चनें न पैदा करें। सरकार को देखना होता है कि किसी काम से व्यापक माहौल न बिगड़ जाए।

नौकरशाही में ऐसा कोई पैमाना नहीं है जिससे तय हो कि किस पद के लिए कौन सा आईएएस अफसर योग्य है। उसके करियर का रिकॉर्ड योग्यता और जिम्मेदारी को तय करता है। थोड़े बहुत अंतरों के साथ इस काडर के सारे अधिकारी योग्य ही माने जाते हैं। उनका चुनाव कम योग्य या अधिक योग्य के आधार पर नहीं होता है। इस दलील से तो स्वास्थ्य सचिव सिर्फ डॉक्टरी पढ़कर आए आईएएस को बनना चाहिए या परिवहन सचिव किसी मैकेनिकल इंजीनियर को। फिर भी सरकार से लेकर अदालतों तक ने माना है कि किस अफसर को कहां और कब लगाना है उसका फैसला अंतिम है। लेकिन यह कहीं नहीं लिखा है कि उसका फैसला किसी समीक्षा से बाहर है।

लोकसभा चुनावों में जब प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में मौजूदा प्रधानमंत्री कहा करते थे कि न खाऊंगा न खाने दूंगा तो लोगों का भरोसा बढ़ता था कि एक ऐसा नेता आ रहा है जो खाने भी नहीं देगा। इस जुमले से लोग नरेंद्र मोदी की ईमानदारी को मनमोहन सिंह की ईमानदारी से ज्यादा खरा मानने लगे। यह कहा जाने लगा था कि मनमोहन सिंह ईमानदार तो हैं मगर भ्रष्टाचार नहीं रोक पाए। ऐसा नेता चाहिए जो भ्रष्टाचार रोके। ज़ाहिर है यह तभी रुकेगा जब नेता के साथ हर अफसर ठान ले कि कुछ हो जाए कि किसी को खाने नहीं देंगे। खेमका के तबादले के कुछ भी कारण हो सकते हैं लेकिन जो संदेश गया है क्या वो यह नहीं है कि ट्रांसपोर्ट विभाग की लौबी से लोहा लेने की ज़रूरत नहीं है।

मनमोहन सिंह अब एक मामले में पूछताछ के लिए आरोपी बना लिए गए हैं लेकिन तब वे दलील दिया करते थे कि इससे फैसले लेने की प्रक्रिया पर असर पड़ा है। खेमका के मामले में दलील दी जा रही है कि ऐसे अफसरों को देखना चाहिए कि विकास के काम में रुकावट न बनें। इन दोनों दलीलों में कोई फर्क नहीं है। न खाता हूं और न खाने दूंगा से ईमानदारी की परिभाषा एक बार फिर मनमोहन सिंह की ईमानदारी की तरफ झुकती दिखाई दे रही है। यानी आप मत खाइये लेकिन जो खाता है उसे खाने से मत रोकिए। इतना भी मत रोक दीजिए कि खिलाने वाले नाराज़ हो जाएं। हड़ताल की धमकी देकर समस्या खड़ी कर दें।

ईमानदारी का अनुपात क्या हो। ईमानदार बने रहने की सीमा क्या हो। इसका जवाब आप किसी के दोहरेपन को उजागर कर हासिल नहीं कर सकते। ये काम वो करते हैं जो चाहते हैं कि खाने-खिलाने की थोड़ी बहुत गुंज़ाइश बनी रहे। सिस्टम क्यों नहीं खेमका जैसे अफसरों को लेकर चल सकता है? कहा जा रहा है कि वे रोडब्लॉक बन रहे हैं। जो अफसर भ्रष्टाचार को मिटा रहा है वो नई सड़क बना रहा है या रोड ब्लॉक पैदा कर रहा है? और जो भ्रष्ट लोग ईमानदार लोगों के लिए रोड ब्लॉक पैदा कर रहे हैं उसका क्या?

इतना ही नहीं खेमका को मैरवरिक( अंग्रेजी का शब्द) भी कहा जा रहा है। यानी एक ऐसा ईमानदार अफसर जो थोड़ा फितूरी है। सनकी है। वो ख्वामखाह हर बात में टांग अड़ाते रहता है। इस देश में किसी ईमानदार को जितना सिस्टम पागल नहीं करता उससे कहीं ज्यादा समाज कर देता है। राजा हरिश्चंद्र की मिसाल ईमानदारी के यशगान के लिए नहीं दी जाती है बल्कि उलाहना के लिए दी जाती है कि चले हैं हरिश्चंद्र बनने। ठीक है कि हम सब इस दोहरेपन का शिकार हैं लेकिन चुनावों में तो नेता यही कहते हैं कि भ्रष्टाचार मिटाएंगे। क्या बिना सख्त हुए, बिना जुनूनी हुए भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है?

और जब इसी खेमका की रिपोर्ट पर संसद में हंगामा होता था, चुनावी भाषण होते थे तब तो किसी ने नहीं कहा कि ये सनकी अफसर है। जांच रिपोर्ट या न्यायालय के फैसले तक इसकी रिपोर्ट पर भरोसा मत करो। तब तो सबने खेमका की इसी ईमानदारी और साहस के नाम पर उनकी रिपोर्ट का राजनीतिक इस्तेमाल किया। एक ऐसे समय में जब हरियाणा सरकार की सीएजी की रिपोर्ट कह रही हो कि रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ खेमका की जांच सही है उसी समय में उनकी ईमानदारी को फितूरी बताया जा रहा है।

भ्रष्टाचार एक नेटवर्क में फलता फूलता है। इस नेटवर्क से कोई नहीं बच पाता। यह सब जानते हैं, फिर भी जनमानस में एक ऐसे ईमानदार की भूख हमेशा रहती है जो सनकी और साहसी हो। न खाऊंगा और न खाने दूंगा का नारा और भरोसा एक किस्म का जुनून और साहस ही है। अब कहा जा रहा है कि ईमानदार को मिलाजुला कर चलना चाहिए। इस बात में दम हो सकता है लेकिन जहां माफिया का जाल बिछ गया हो वहां कितना मिला जुला कर चला जा सकता है। क्या हम यह कह रहे हैं कि इनसे मिलजुल कर ही रहना ठीक है।

ईमानदार होना भारत के समाज में व्यक्तिगत जोखिम का काम है। जो ईमानदार होता है वो अपना सब कुछ दांव पर लगाता है। चाहे वो अफसर हो या नेता। राजनीति में ईमानदार नेता भी कम जोखिम नहीं उठाते हैं। हमारी राजनीति भ्रष्टातार मिटाने और पारदर्शिता लाने की बात करती है। क्या पारदर्शिता हासिल हुई है? क्या खेमका मामले की फाइल या फैसले की कापी मिलेगी? हर दिन अखबार में सूचना के अधिकार कानून की धार को भोथरा करने की खबरे छप रही हैं। हर राज्य और हर सरकार से ऐसे खबरें आ रही हैं।

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खेमका का तबादला सामान्य नहीं है। अगर है भी, इसके ज़रिये ईमानदारी को परिभाषित करना वैसा ही है जैसे कई बार लोग कम खाने वाले या पैसे लेकर पक्का काम करने वाले को ही ईमानदार मानने का भ्रम पाल लेते हैं। ईमानदारी की परिभाषा सुविधा के अनुसार नहीं गढ़ी जा सकती। और अगर इसे लचीला बनाना है तो क्या हम यह तय करने के लिए तैयार होंगे कि अफ़सरों को किस हद तक बेईमान होने की छूट होनी चाहिए। ईमानदारी बनाम विकास भी एक कमज़ोर दलील है। क्या यह कहा जा रहा है कि विकास बिना भ्रष्टाचार के नहीं हो सकता। बिना लचीला हुए नहीं हो सकता। तो ये दलील भ्रष्टाचार या गिरोहतंत्र के हक में कैसे नहीं हुई ये तो कोई बताए।