किसानों ने की आवाज बुलंद, दिल्ली के कान बंद

करनाल में प्रशासन से किसानों की बातचीत नाकाम होने के बाद राकेश टिकैत ने कहा कि जनता के बीच फैसला होगा

किसानों ने की आवाज बुलंद, दिल्ली के कान बंद

करनाल में किसान आंदोलन और ज़िला प्रशासन दोनों एक दूसरे के लिए चुनौती बन गए हैं. आज किसान नेताओं और प्रशासन के बीच दो दौर की बातचीत नाकाम हो गई. दोपहर बाद किसान नेताओं ने कहा कि अब वे ज़िला प्रशासन से बात नहीं करेंगे. इसी के साथ फैसला हुआ कि करनाल स्थित लघु सचिवालय की तरफ मार्च किया जाएगा. किसान नेताओं ने कहा कि जो प्रशासन दे रहा है और वो हम नहीं मान सकते और जो हम मांग कर रहे हैं वो प्रशासन नहीं मान रहा है. इसके बाद बड़ी संख्या में किसानों ने लघु सचिवालय की तरफ मार्च शुरू कर दिया. किसानों ने शांतिपूर्ण तरीके से आगे बढ़ना शुरू किया और प्रशासन ने भी उन्हें आने दिया. दो-दो बैरिकेड पार कर किसान आगे बढ़ते रहे. किसानों की यह संख्या बता रही थी कि सचिवालय के पास पहुंचकर वहां किस तरह की चुनौती होने वाली है. प्रशासन के लिए भी यह चुनौती थी कि वह इतनी भीड़ को संभाले और किसानों के लिए भी संयम से घेराव करने की चुनौती होगी. शाम के वक्त दोनों ओर से तनाव की खास स्थिति नज़र नहीं आई. योगेंद्र यादव ने बयान दिया कि किसानों ने सचिवालय घेर लिया है और शांतिपूर्ण तरीके से सब चल रहा है.

इंटरनेट बंद होने के कारण करनाल से वीडियो हासिल करना आसान नहीं है. करनाल ही नहीं आसपास के ज़िलों में इंटरनेट की सुविधाएं बंद कर दी गई हैं. किसानों की मौजूदगी बहुत ज्यादा है. पंजाब हरियाणा और यूपी से बड़ी संख्या में किसान पहुंचे हैं. बातचीत नाकाम होने के बाद राकेश टिकैत ने कहा कि जनता के बीच फैसला होगा. 

दोपहर के बाद से खबरें आती रहीं कि किसानों ने चंडीगढ़ दिल्ली हाईवे जाम कर दिया है. सचिवालय को हज़ारों किसानों ने घेर लिया. संयुक्त किसान मोर्चा के कई किसान नेता नमस्ते चौक से गिरफ्तार कर लिए गए. इसकी सूचना योगेंद्र यादव ने अपने ट्विट के ज़रिए दी कि वे और राकेश टिकैत गिरफ्तार कर लिए गए हैं. गुरनाम सिंह चढ़ूनी की भी गिरफ्तारी की खबर है. बाद में सभी रिहा कर दिए गए. किसान नेताओं की गिरफ्तारी से भीड़  बगैर नेतृत्व के बेलगाम हो सकती थी. किसानों पर पानी की बौछारों की भी खबरें आई हैं. साढ़े सात बजे तक किसान शांति से ही अपना कार्यक्रम आगे बढ़ाते रहे. मुज़फ्फरनगर की महापंचायत में किसान नेताओं ने ऐलान किया था कि अगर एसडीएम आयुष सिन्हा के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई तो महापंचायत के बाद लघु सचिवालय का घेराव करेंगे. किसानों ने ऐसा ही किया. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि मोदी जी की सरकार दोहा में आतंकवादी तालिबान से बात करने जा  सकती है लेकिन किसानों से बात नहीं करती. 

संयुक्त किसान मोर्चा की मांग है कि करनाल के पूर्व एसडीएम आयुष सिन्हा के खिलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज हो. उन्हें निलंबित किया जाए. इसी को लेकर महापंचायत से पहले और आज भी तीन दौर की बात हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. इस मसले को राजनीतिक तौर पर सुलझाना चाहिए था लेकिन उन्होंने बातचीत और कार्रवाई की जवाबदारी ज़िला प्रशासन पर छोड़ दी. उन्होंने हमेशा यह संकेत दिया कि वे प्रशासन के साथ खड़े हैं. इसके बाद आयुष सिन्हा का तबादला दूसरे विभाग में अतिरिक्त सचिव के पद पर कर दिया गया लेकिन किसान अड़े हैं कि उन्हें सस्पेंड किया जाए और उनके ख़िलाफ हत्या का मुकदमा दर्ज हो. आज के प्रदर्शन से प्रशासन और किसानों के बीच तनाव का एक नया मोर्चा खुल गया है. दबाव किसान नेताओं पर भी होगा, हिंसा की कोई घटना उन्हें ही पीछे धकेलेगी और प्रशासन और सरकार को मौका देगी. 

आज तीन  दौर की बातचीत के बाद किसान नेता अनाज मंडी गए जहां पर किसान जुटे हुए थे. इसके पहले भारी बारिश और सुरक्षा के भारी बंदोबस्त के बीच किसानों का करनाल की अनाज मंडी में जमावड़ा सुबह से ही शुरू हो चुका था. प्रशासन की तरफ से चेतावनी थी कि कोई भी क़ानून हाथ में न ले. लेकिन यह महापंचायत चेतावनी जारी करने वाले उसी प्रशासन के खिलाफ़ थी जिसके एक पूर्व एसडीएम आयुष सिन्हा ने पुलिस बल को कहा था कि किसानों के सर फोड़ देना है. 

तमाम तरह की किलेबंदी और सूचनाबंदी के बाद भी अनाज मंडी में किसान बड़ी संख्या में जमा हो गए. करनाल में धारा 144 लगी थी तब भी किसानों का पहुंचना नहीं रुका. सूचनाओं की आवाजाही को रोकने के लिए करनाल के अलावा कुरुक्षेत्र, पानीपत, जींद और कैथल में भी इंटरनेट बंद कर दिया गया. इसके अलावा करनाल को पूरी तरह सील कर दिया गया. इस काम में BSF, CRPF, RAF की दस टुकड़ियां तैनात कर दी गईं. पांच एसपी और 25 डीएसपी लगाए गए. किसानों पर ड्रोन कैमरे से नज़र रखी जाने लगी. किसानों की मांग है कि मृतक किसान सुशील काजल के परिवार को 25 लाख का मुआवज़ा मिले और उनके बेटे को नौकरी दी जाए. घायलों को दो लाख का मुआवज़ा दिया जाए.आज जब प्रशासन ने 11 सदस्यों को बातचीत के लिए बुलाया तो उम्मीद जगी कि हल निकलेगा लेकिन बातचीत नाकाम हो गई.

सरकार ने किसानों से बात करना बंद कर दिया है. केवल बात करने के बयान आते हैं, बात नहीं होती है. मुख्यमंत्री खट्टर पहले ही कह चुके हैं कि प्रशासन को सख्ती करनी पड़ती है. उन्होंने खुद कार्रवाई से इंकार कर दिया था और ज़िला प्रशासन पर यह मामला छोड़ दिया था. सचिवालय मार्च के कारण स्थिति और भी ज़्यादा उलझ गई है. 

हमारे सहयोगी शरद शर्मा और मोहम्मद ग़ज़ाली इसे पूरे दिन कवर करते रहे हैं. शाम होते ही आशंका गहरी होती जा रही थी कि कहीं पुलिस और किसानों के बीच टकराव हुआ, लाठी चार्ज जैसी घटना हुई तब क्या होगा. करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हा के प्रकरण ने कृषि कानून में एसडीएम को जो अधिकार दिया गया है उसकी बहस को फिर से सामने ला दिया. ज़िला प्रशासन का यह महत्वपूर्ण अधिकारी कृषि कानून में एक तरह से जज बनाया गया है. उसके फैसले को सिविल कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है. अपील की आखिरी सीमा कलेक्टर है. कृषि कानून के इस प्रावधान को लेकर जब घोर आपत्ति हुई तब सरकार ने कहा कि इसके विकल्प पर विचार कर सकते हैं. नौ दिसंबर को सरकार ने किसानों को बीस पन्ने का एक प्रस्ताव भेजा उसमें केवल विकल्प पर विचार करने की बात कही. वैसे कानून में एसडएम को न्यायिक अधिकार देने की बात अभी तक मौजूद है. सरकार चाहती तो मानसून सत्र में संशोधन कर सकती थी. 

किसानों की महापंचायत के लिए जो बंदोबस्त किया जा गया उसका नियंत्रण ज़िला प्रशासन के हाथ में होता है. जिसका हिस्सा एसडीएम होता है. जिस ज़िला प्रशासन के हाथ में लाठी और बंदूक हो औऱ कानून व्यवस्था की जवाबदेही हो उसी के हाथ में न्यायिक ज़िम्मेदारी दे दी जाए तो अंतर्विरोध पैदा होता है. संविधान के अनुच्छेद 50 में इसीलिए न्यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकारों का विभाजन किया गया है. एसडीएम को अधिकार होते हैं लेकिन यहां मामला मामूली विवाद का नहीं है. एक ग़रीब किसान के सामने कंपनी होगी. उनके बड़े-बड़े वकील होंगे.यह बताने की ज़रूरत नहीं कि अधिकारी हमेशा कारपोरेट के दबाव में झुकेगा. आज के दौर में जब कंपनियां और सरकार एक दूजे के लिए हो चुकी हैं इस दौर में एक एसडीएम से उम्मीद करना कि वह कंपनी की जगह किसान का साथ देगा, फालतू का समय बर्बाद करना है. 

आपको भी विवादों के निपटारे वाले प्रावधान पढ़ने चाहिए. आप किसी भी जाति और धर्म के किसान हैं एक बार इसे पढ़िए तो पता चलेगा कि जाति के नाम पर नेतागिरी करने वाले नेता क्यों इन सब प्रावधानों पर खुलकर बात नहीं करते हैं. जिसके कारण आपका नागिरक बने रहना हर दिन मुश्किल होता जा रहा है. 

कानून में लिखा है कि किसान और कारोबारी के बीच विवाद होगा तो दोनों एसडीएम के पास जाएंगे. एसडीएम विवाद को सुलझाने के लिए एक बोर्ड बनाएगा. इसका जो चेयरमैन होगा वो एसडीएम के अंडर काम करेगा. अब अगर बोर्ड के फैसले से भी विवाद नहीं सुलझा तो दोनों एसडीएम के पास जाएंगे. एसडीएम से भी विवाद नहीं सुलझा तो दोनों पक्ष कलेक्टर के पास जाएंगे. इसके आगे का रास्ता बंद कर दिया गया है क्योंकि कानून में लिखा है कि एसडीएम के फैसले की मान्यता सिविल जज के फैसले के बराबर की होगी. कानून में यह भी लिखा है कि कोई भी सिविल कोर्ट एसडीएम या कलेक्टर के फैसले को संज्ञान में नहीं लेगा. 

यह कैसा कानून है कि किसानों को सिविल कोर्ट जाने का अधिकार नहीं दिया जा रहा है. इससे फायदा किसानों को होगा या कंपनियों को. पिछले साल जब यह विवाद उठा तब कृषि मंत्री ने कहा था कि किसानों के पास जो सबसे नज़दीक की अथारिटी है वो एसडीएम की होती है. इसलिए केंद्र ने ऐसा प्रावधान किया. 11 दिसंबर 2020 के फाइनेंशियल एक्सप्रेस में यह बयान छपा है. क्या अजीब तर्क नहीं है. किसानों के नज़दीक तो एसडीएम से पहले पटवारी होता है. उसी को कोर्ट का पावर दे देते. सरपंच को दे देते. इतना भरोसा अफसर पर, जज पर नहीं. किसान को तो उस कारपोरेट में नौकरी नहीं मिलेगी लेकिन आप जानते हैं कि रिटायर होने के बाद अफसर कंपनी के शीर्ष पदों पर चले जाते हैं. क्या गारंटी है कि एसडीएम शुरू से कृपा नहीं बरसाएगा. 

सुप्रीम कोर्ट ने अशोक गुलाटी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई थी जिसका काम था कृषि कानूनों पर अध्ययन करना और अलग-अलग लोगों से बात कर रिपोर्ट देना. यह रिपोर्ट सौंप दी गई है लेकिन अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है.इसे लेकर शेतकारी संगठना के अनिल धनवत ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना को पत्र लिखा है. भारतीय मज़दूर संघ ने किसानों के भारत बंद के अगले दिन 28 सितंबर को निजीकरण और निगमीकरण के खिलाफ प्रदर्शन करने का ऐलान किया है. 

भारतीय मजदूर संघ ने 28 अक्टूबर, 2021 को डिफेंस सेक्टर और कई दूसरे अहम सेक्टरों में मोदी सरकार के कॉरपोरेटाइजेशन और प्राइवेटाइजेशन के फैसले के खिलाफ भी देशभर में आंदोलन का फैसला किया है. आइए अब एक जटिल सवाल को समझने का प्रयास करते हैं. भारतीय मज़दूर संघ और भारतीय किसान संघ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का हिस्सा कहे जाते हैं, लिखे जाते हैं. भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में क्या संबंध है आप भी जानते हैं. प्रधानमंत्री मोदी खुद को संघ का प्रचारक भी कहते हैं. 

आपको याद दिलाने के लिए बता दें ताकि सनद रहे. सितंबर 2015 की यह तस्वीर है. दिल्ली के वसंतकुंज में मध्यांचल है. वहां पर 3 से 5 सितम्बर के बीच तीन दिनों तक बैठकों का सिलसिला चला था. जिसमें आएसएस के सर्वोच्च नेता शामिल थे. इस बैठक में मोदी सरकार में बीजेपी के मंत्री शामिल हुए थे. मीडिया रिपोर्ट में बताया गया था कि कई राष्ट्रीय मुद्दों पर विचार विमर्श हुआ. इस बैठक में केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह गए थे. तत्कालीन केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, मनोहर पर्रिकर गए थे. इस बैठक में भारतीय मज़दूर संघ स्वदेशी जागरण मंच और विश्व हिन्दू परिष्द के भी नेता मौजूद थे. तब विपक्ष ने सरकार पर सवाल दागा था कि उसकी जवाबदेही किसकी तरफ है. जनता की तरफ या संघ की तरफ. 

कहने का मतलब है कि आरएसएस का एक हिस्सा निजीकरण का कानून बनाता है. आरएसएस का दूसरा हिस्सा उस निजीकरण का विरोध करता है. विरोध भी होता है और निजीकरण भी होता है. दोनों ही हेडलाइन बनती हैं. भारतीय मज़दूर संघ निजीकरण के खिलाफ विरोध करने वाला है. ज़ाहिर है उसमें मुद्रीकरण की भी योजना शामिल होगी. जब राहुल गांधी ने मुद्रीकरण का विरोध किया था तब वित्त मंत्री ने कहा था कि राहुल को क्या समझ आता है. क्या वित्त मंत्री यह बात कह सकती हैं कि भारतीय मजदूर संघ को क्या समझ आता है. मुज़फ्फरनगर की किसान महापंचायत के दो दिन बाद भारतीय किसान संघ का यह बयान आया है कि सरकार MSP की गारंटी दे. इसे लेकर 8 सितंबर को संगठन सांकेतिक धरना देगा और ज़िला प्रशासन को ज्ञापन देगा. 

किसान आंदोलन भी यही मांग करता है कि एमएसपी पर खरीद की गारंटी बने. सरकार कानून नहीं बनाती है. भारतीय किसान संघ ने भारत बंद से खुद को अलग किया है. उधर दस केंद्रीय मज़दूर संगठनों ने 27 सितंबर के भारत बंद का समर्थन कर दिया है. 

सरकार बड़ी घोषणाएं करने के बाद भूल जाती है. एक हेडलाइन से निकलकर दूसरी हेडलाइन में चली जाती है. पिछली घोषणा का क्या हुआ इसका किसी को पता नहीं रहता. 11 सितंबर 2018 की बात है लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने 2 घंटे से भी ज्यादा समय तक आंगनवाड़ी और आशा कार्यकर्ता से वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग से बात की थी. प्रधानमंत्री ने कहा था आंगनवाड़ी और आशा वर्कर राष्ट्र निर्माण के अग्रणी सिपाही हैं. उनके बिना स्वस्थ मातृत्व कल्पना नहीं की जा सकती है. उस समय ऐलान हुआ कि आंगनबाड़ी सेविकाओं का मानदेय 50 प्रतिशत बढ़ेगा. 3000 से 4500 होगा.  

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मानदेय कहीं बढ़ा कहीं नहीं बढ़ा. आंगनबाड़ी सेविकाओं का काम बढ़ता गया औऱ मानदेय के नाम पर वेतन या तो स्थिर रहा या कम ही हो गया. मंगलवार को हज़ारों की संख्या में आंगनबाड़ी सेविकाओं ने राजघाट से दिल्ली सचिवालय तक मार्च किया. ‘दिल्ली स्टेट आंगनबाड़ी वर्कर्स एण्ड हेल्पर्स यूनियन' की तरफ से इस मार्च में बड़ी संख्या में आंगनबाड़ी सेविकाएं मौजूद नज़र आईं. इनका कहना है कि दिल्ली सरकार ने सितम्बर 2019 में एक अधिसूचना जारी कर अपने हिस्से में से कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं के मानदेय में से क्रमशः 900 रुपए और 450 रुपए घटा दिए हैं. आंगनबाड़ी सेविकाओं का कहना है कि 2017 के मुक़ाबले आंगनबाड़ी कर्मियों पर काम का दबाव काफ़ी बढ़ चुका है. महंगाई बढ़ गई है. इसलिए सरकार कार्यकर्ता एवं सहायिका को 18,000 रुपये व 12,000 रुपये दे.