भावना का नाम निर्भया नहीं है, लेकिन उसके साथ निर्भया जैसा ही हुआ है। निर्भया भी दिल्ली में मार दी गई और भावना भी इसी शहर में। निर्भया को मारने वाले दूसरे लोग थे, भावना को मारने वाले में कथित रूप से उसके माता-पिता और चाचा भी हो सकते हैं। दक्षिण दिल्ली के एक बेहतरीन कालेज की छात्रा रही है भावना। श्री वेंकटेश्वरा कालेज में जब पढ़ती होगी तब उसके सपने भी उसी तरह से बनने लगे होंगे जिस तरह से हम सबके बनते हैं।
भावना ने अपने पसंद के लड़के से शादी कर ली। जात को लेकर कोई फर्क रहा होगा जो उसके मां बाप को पसंद नहीं आया। वैसे ऐसी सोच वाले लोग किसी भी जाति को लेकर ऐसे ही बर्ताव करते। अपनी बेटी को चुपचाप मार देना, अलवर ले जाकर अंतिम संस्कार तक कर देना, यह सब उस भारत में सोच कर भी डर लग जाता है जो टीवी स्टुडियो में खुद को बदल देने का एलान करता रहता है। जो नारे लगाता है और भरे स्टेडियम में किसी नए राष्ट्रवाद की झलक देता है। यही वो वास्तविकताएं हैं जिनके चश्मे से लगता है कि सबकुछ नौटंकी है।
हम जबतक बुनियादी सवालों से नहीं टकरायें, कभी निर्भया तो कभी भावना मारी जाती रहेगी। आखिर भावना के मार दिए जाने पर दिल्ली को शर्म क्यों नहीं आई।
लेकिन दिल्ली को क्या हो गया है। निर्भया के मौत के वक्त इसी शहर ने बता दिया था कि अब सारी हदें पार की जा चुकी हैं। वो रात-दिन सड़कों पर जम गया। राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री तक दिल्ली के युवाओं से मिलने लगे। कानून तक बन गया और निर्भया फंड भी। तब भी बात हुई थी कि सिर्फ कानून से बलात्कार नहीं रुकेंगे। समाज को झकझोरना होगा। क्या सचमुच समाज में कुछ हुआ है।
अब तो दिल्ली को इस बात से गुस्सा भी नहीं आता है कि इस साल के दस महीनों में बलात्कार के 1700 से भी ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं। अब दिल्ली की सहनशीलता सिर्फ इसी बात से संतुष्ठ है कि शायद बलात्कार की शिकार लड़कियां थाने तक आने लगी हैं, लेकिन उसने तो यह रेखा खींचने का प्रयास किया था कि अब बलात्कार नहीं होंगे और उन्हें बर्दाश्त नहीं किया जाए। 1700 में से 200 से ज़्यादा बलात्कार तो रिश्तों के बीच हुए हैं। 43 मामलों में बाप ने बेटी का बलात्कार किया है और 27 मामलों में भाई ने बहन का।
ये आपकी दिल्ली है जो अमरीका और ऑस्ट्रेलिया में किसी और भारत के हो जाने के पीछे अपने गुनाह छिपा रही है। आखिर हर दिन छह बलात्कार हो ही रहे हैं, लेकिन दिल्ली क्यों शांत हो गई है। क्या ये सब चुनाव के लिए था। तब बलात्कार की हर दूसरी घटना पर नेता का बयान आता था, कोई नेता किसी पीड़िता के घर जाया करता था, आज वो सब क्यों बंद है। क्या इसके खिलाफ लड़ाई बंद हो गई है। क्या इसकी जवाबदेही पूछने का सवाल खत्म हो गया है। क्या हमारे सवालों का भी किसी ने गला घोंट दिया है।
दिल्ली में दंगे तक की स्थिति हो जा रही है, लेकिन दिल्ली चुप हो जा रही है। कोई कानून व्यवस्था को लेकर सवाल नहीं करता। कोई सड़कों पर नहीं आता। सिपाहियों पर गोलियां चल रही हैं तो आठ साल के उत्कर्ष को अगवा कर लिया जाता है। उसे मार दिया जाता है। गांधीनगर की यह घटना बिहार या यूपी के किसी ज़िले में हो गई होती तो राजनीतिक दल आग लगा देते। लेकिन दिल्ली को लेकर दिल्ली ही चुप है। राजधानी में बच्चा अगवा हो जाता है किसी को खटका तक नहीं लगता है।
क्या इन सब मुद्दों का संबंध अब सिर्फ चुनाव से ही रह गया है।
पीछे मुड़कर देखता हूं तो वो सारे सवाल वहीं कहीं बिखरे नज़र आते हैं, जहां से उठाकर रायसीना हिल्स पर जमा भीड़ को देख हमने सोचा था कि देश बदल रहा है। अच्छा है कि ऐसे मामलों के प्रति सहनशीलता और उदासीनता समाप्त हो रही है। लेकिन अब लगता है कि वो सब धोखा सा था। क्या हमारी नागरिकता सिर्फ चुनाव सापेक्ष है।
क्या उसके लिए यही सही वक्त नहीं है कि वह सरकार पर दबाव बनाए ताकि व्यवस्था बदले। असमानता दूर हो। दिल्ली में अपराध के बढ़ने के कारणों का विश्लेषण होना चाहिए। आखिर क्यों दिल्ली की हालत अन्य राज्यों की तरह होती जा रही है। क्या हम इन सवालों से किसी और वजह से बचना चाहते हैं। चुप रहना चाहते हैं। खाप पंचायतों के फैसले से भावना की मौत हुई होती तो राजनीतिक सक्रियता चरम पर पहुंच जाती, लेकिन भावना तो भारत की राजधानी दिल्ली में मार दी गई।
This Article is From Nov 20, 2014
रवीश कुमार की कलम से : कहां गई वो दिल्ली?
Ravish Kumar, Rajeev Mishra
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Updated:नवंबर 20, 2014 18:24 pm IST
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Published On नवंबर 20, 2014 18:20 pm IST
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Last Updated On नवंबर 20, 2014 18:24 pm IST
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