यह ख़बर 06 नवंबर, 2014 को प्रकाशित हुई थी

रवीश कुमार की कलम से : हर्षवर्धन हाज़िर हों

डॉ हर्षवर्धन की फाइल तस्वीर

नई दिल्ली:

पिछले साल यही वो महीना था जब बीजेपी हर दूसरी बात में डॉक्टर हर्षवर्धन का नाम लिया करती थी। उनकी ईमानदारी, पल्स पोलियो में उनका योगदान वगैरह उनकी हर खूबी ने बीजेपी को जैसे संजीवनी दे दी थी। उससे पहले बीजेपी अध्यक्ष के रूप में विजय गोयल का चारों तरफ पोस्टर लग गया था। यह संदेश जा रहा था कि विजय गोयल ही मुख्यमंत्री के दावेदार या उम्मीदवार हैं। आम आदमी पार्टी ने जब विजय गोयल को निशाना बनाना शुरू किया तो बीजेपी ने डॉक्टर हर्षवर्धन का नाम घोषित कर दिया था।

हफ्तेभर के भीतर बीजेपी के सारे पोस्टर बदल दिए गए। विजय गोयल की जगह डॉक्टर हर्षवर्धन का चेहरा मुस्कुरा रहा था। बीजेपी को अरविंद केजरीवाल के ईमानदार ब्रांड के सामने डॉक्टर हर्षवर्धन का ईमानदार ब्रांड मिल गया था। एक साल बाद नवंबर का महीना तो है मगर डॉक्टर हर्षवर्धन का कोई नाम नहीं ले रहा है।

बुधवार को पंडित पंत मार्ग पर बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सतीश उपाध्याय से बार बार पूछा कि सामूहिक नेतृत्व का क्या मतलब है जब आपके पास एक से एक नेता हैं। वो बार बार कहते रहे कि फैसला हो चुका है और चुनाव के बाद ही नेता चुना जाएगा। हम नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ेंगे। मैं डॉक्टर हर्षवर्धन के बारे में पूछता रहा। पूछा तो जगदीश मुखी और विजय गोयल के बारे में भी लेकिन एक बार भी सतीश उपाध्याय ने नहीं कहा कि हमारे पास नेताओं की कोई कमी नहीं है।

डॉक्टर हर्षवर्धन भी योग्य उम्मीदवार हैं। सतीश उपाध्याय ने यह भी दावे से नहीं कहा कि कोई बाहरी बीजेपी की जीत का मज़ा नहीं लेगा। मेरा इशारा किरण बेदी की तरफ था। प्रदेश अध्यक्ष की हैसियत से वे सिरे से खारिज कर ही सकते थे मगर वो यही कहकर टालते रहे कि जो हुआ नहीं है उसका जवाब कैसे दें।


लेकिन क्या डॉक्टर हर्षवर्धन बीजेपी के लिए उपयोगी नहीं रहे। क्या उनकी दिल्ली की राजनीति में अब वापसी नहीं होगी। सवाल तो हैं मगर जवाब मेरे पास नहीं हैं। डॉक्टर हर्षवर्धन को जब केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया था तब ऐसी चर्चा सामने आई थी कि वे खुश नहीं हैं। वे दिल्ली की राजनीति में लौटना चाहेंगे। जब दिल्ली में सरकार बनाने को लेकर कई तरह के सवाल हो रहे थे तो डॉक्टर हर्षवर्धन ने आश्चर्यजनक रूप से चुप्पी साध ली। मीडिया ने पूछा भी लेकिन कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा लगा कि या तो उन्हें चुप रहने के लिए कह दिया है या डॉक्टर हर्षवर्धन ने समझ लिया है कि अब वे नेतृत्व की पसंद नहीं रहे।

एक अनुमान यह भी लगाया जा सकता है कि बीजेपी अब चुनाव सिर्फ मोदी के नाम पर भी लड़ेगी। हरियाणा और महाराष्ट्र की बात समझ में आती है जहां उनके पास कोई ऐसा नेता नहीं था जो पूरे राज्यभर में आधार रखता है, लेकिन डॉक्टर हर्षवर्धन के साथ तो ये बात नहीं है। बीजेपी को बहुमत नहीं मिला लेकिन डॉक्टर हर्षवर्धन के कारण ही बीजेपी को 32 सीटें मिली थीं।

हो सकता है कि बीजेपी इसे हार के रूप में देख रही है इसलिए डॉक्टर हर्षवर्धन पर दांव नहीं लगाना चाहती लेकिन तब फिर बीजेपी महाराष्ट्र की जीत को कैसे जीत कहेगी। हो सकता है कि आगे चलकर डॉक्टर हर्षवर्धन का नाम आ जाए क्योंकि अभी तो चुनावी दौर की शुरुआत हुई है मगर सतीश उपाध्याय ने अपनी इस लाइन को बार बार दोहराई कि सामूहिक नेतृत्व में चुनाव होगा और मुख्यमंत्री चुनाव के बाद तय होगा। अब बीजेपी में मोदी की पसंद का एक नया नाम हो गया है। सामूहिक नेतृत्व।

बीजेपी अध्यक्ष सतीश उपाध्याय क्या किसी की लाइन पर चल रहे हैं। आखिर उन्होंने डाक्टर हर्षवर्धन की मौजूदगी या उपयोगिता को क्यों नहीं स्वीकारा, या उस तरह से दोहराया जैसे बीजेपी ठीक एक साल पहले उनका नाम लेकर जप रही थी। क्या बीजेपी ने तय कर लिया है कि नरेंद्र मोदी जिस पर हाथ रख देंगे वही मुख्यमंत्री होगा या आर एस एस जिसे कहेगा वही अब मुख्यमंत्री होगा।

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हरियाणा, महाराष्ट्र के बाद गोवा में मुख्यमंत्री के चयन में आर एस एस की पसंद की बात हो रही है उससे लगता है कि संघ राज्यों का नेतृत्व अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। प्रचारक ही मुख्यमंत्री होंगे। ऐसे विश्लेषणों का कोई ठोस प्रमाण तो नहीं होता मगर हवा के रुख को देखकर ऐसा ही अंदाज़ मिल रहा है। दिल्ली का चुनाव दिलचस्प होने जा रहा है। डॉक्टर साहब अपना आला लिये उसी नई दिल्ली स्थित स्वास्थ्य मंत्रालय में बेचैन घूमते नज़र आएंगे और उस आवाज़ को मिस करेंगे जब पूरी बीजेपी और मोदी उनका नाम हर सभा में लिया करते थे। डॉक्टर डॉक्टर। क्या डॉक्टर हर्षवर्धन अपनी चुप्पी तोड़ेंगे कि दिल्ली में अपनी भूमिका को लेकर वो क्या सोचते हैं। क्या वो पहले की तरह आश्वस्त हैं। क्या वो दिल्ली बीजेपी का नेतृत्व करना चाहते हैं। इन सब सवालों के लिए डॉक्टर को हाज़िर होना होगा।