छत्तीसगढ़ के कलेक्टरों को प्रधानमंत्री के सामने चश्मा पहनने पर नोटिस देने की ख़बर आते ही सोशल मीडिया पर उन तस्वीरों की तलाश शुरू हो गई जिनमें प्रधानमंत्री ख़ुद चश्मा पहने हुए हैं। शायद ज़माने बाद प्रधानमंत्री चश्मे को ललाट के ऊपर सरका कर टिकाए हुए नज़र आए। एक किस्म की अनौपचारिकता नज़र आ रही है। किसी और तस्वीर में वो किसी और राष्ट्र प्रमुख से मिलते वक्त चश्मे में हैं। कलेक्टर के चश्मे के मुकाबले प्रधानमंत्री की चश्मे वाली इन तस्वीरों को पेश किया जा रहा था यह बताने के लिए ख़ुद चश्मा पहने तो ठीक लेकिन कलेक्टर पहने तो गुनाह। कहीं पर यह भी देखा कि जवाहर लाल नेहरू किसी योजना के निरीक्षण पर हैं। उनके साथ कलेक्टर बंद गला में नज़र आ रहे हैं मगर काला चश्मा पहने हुए हैं। यह दिखाने का प्रयास किया गया कि इस मामले में नेहरू कितने सहनशील हैं और प्रधानमंत्री मोदी कितने असहनशील।
यह उदाहरण इसलिए नहीं दिया कि मुझे छत्तीसगढ़ के कलेक्टरों के चश्मा पहनने पर कुछ कहना है बल्कि इसलिए कि फोटो राजनीति की नई भाषा के रूप में उभरने लगा है। किसी भी विवाद को सोशल मीडिया में दो तरीके से लड़ा जाने लगा है। एक टोली अगला-पिछला बयान और प्रमाण निकाल लाती है। दूसरी टोली उस विवाद के पक्ष-विपक्ष में कई तस्वीरों को पेश करने लगती है। तस्वीरों के ज़रिये एक दूसरे को सही या ग़लत साबित किया जाने लगता है। इस क्रम में असली-नकली तस्वीरें भी ठेल दी जाती हैं।
सियासी लड़ाई के नए कारख़ानों में फोटोशाप तकनीक ज़रूर हथियार बन गया है। गांधी नेहरू और मोदी की आपको सोशल मीडिया पर कई तस्वीरें मिलेंगी जिनसे फोटोशाप तकनीक के ज़रिये छेड़छाड़ की गई होती है। यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन सी पार्टी के लोग पहले या ज्यादा करते हैं। आप दर्शक या मतदाता के लिए भी राजनीतिक नैतिकता महत्वपूर्ण नहीं है। आप भी इस मामले में सुविधा या निष्ठा के हिसाब से लाइन तय करते हैं। कुल मिलाकर गांधी और नेहरू की छवि को ख़राब करने का ख़ूब अभियान चला जैसे ये नेता इतिहास की बारीकियों में नहीं बल्कि इन तस्वीरों में ही अच्छे बुरे के तौर पर दर्ज हैं। अब तो आए दिन प्रधानमंत्री मोदी, राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल को घेरने के लिए उनकी असली और बनावटी तस्वीरें पैदा की जाती हैं और यहां वहां से जोड़कर राजनीतिक दलीलें।
हमारे अख़बारों ने फोटोग्राफी की परंपरा को हर कीमत पर ज़िंदा रखा है। तब भी जब हर किसी के हाथ में मोबाइल कैमरा पहुंच गया है। फोटो के बिना किसी अख़बार की कल्पना नहीं की जा सकती। ख़ासकर इंडियन एक्सप्रेस के कई फोटोग्राफ़र की तस्वीरों को बहुत ध्यान से देखता रहता हूं। फोटोग्राफर प्रवीण जैन नहीं होते तो आज हमारे पास मेरठ के हाशिमपुरा नरसंहार की तस्वीर ही नहीं होती। वे तस्वीरें ही अंतिम प्रमाण के रूप में मौजूद हैं। ये और बात है कि सिस्टम का पेट इतना गहरा और आंतें इतनी जटिल हैं कि ये प्रमाण किसी काम नहीं आ सका। उसी तरह से प्रवीण खन्ना, तोषी, अनिल शर्मा की तस्वीरें उस राजनीतिक गहराई को उतार लाती हैं जिसे बयां करने के लिए लेखकों को कितनी मेहनत करनी होती है।
पर अब हर कोई फोटोग्राफर है। हर कोई है तो हमारे नेता भी अब फोटोग्राफर हैं। आप उनकी तस्वीर खीचेंगे तो वे आपके साथ अपनी सेल्फी खींच लेंगे। वो इसलिए करते हैं क्योंकि फोटो सोशल मीडिया की सबसे बड़ी भाषा है। सोशल मीडिया के माध्यमों में शब्दों की सीमा है और जहां सीमा नहीं हैं वहां भी लंबा लंबा लिखने का धीरज नहीं है। लिहाज़ा हर तस्वीर एक नए लेख या किताब का काम करने लगी है। सोशल मीडिया का प्राणी टीवी के सामने नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि उसने देखने की इच्छा से मुक्ति पा लिया है। वो इन तस्वीरों के ज़रिये टीवी की भूख मिटा रहा है। टीवी तक पहुंचते पहुंचते वो ख़बर और तस्वीर दोनों से वाकिफ़ हो चुका होता है।
फोटो के कारण सोशल मीडिया के लोगों का राजनीतिक व्यवहार बदल रहा है। वे अपने नेता के साथ की तस्वीर लगाते हैं। नेता की भी तस्वीर लगा रहे हैं। इसलिए नेता भी रोचक तस्वीरें पैदा कर रहे हैं। लोग पल भर में विवादास्पद तस्वीर को प्रोफाइल तस्वीर बना लेते हैं। कोई समर्थन के तौर पर किसी फोटो को लगाता है तो कोई विरोध के लिए। एक ही फोटो का अलग-अलग इस्तमाल हो रहा है। कोई उन तस्वीरों पर एक पंक्ति की टिप्पणी चिपका दे रहा है तो कोई दो तस्वीरों से अपने अपने नेता को महान बता रहा है। शब्दों की सीमा या लिखने के आलस के कारण तस्वीरों का व्यापक इस्तमाल होने लगा है। शब्दों की तुलना में तस्वीरें ज्यादा बोलने लगी हैं। आप ट्वीटर या व्हाट्स अप पर आसानी से एक फोटो अपलोड कर सकते हैं। बातें एक पलक और एक झलक में साफ़ हो जा रही हैं।
हमारे नेता भी इसी ज़रूरत को ध्यान में रखते हुए फोटो-उत्पादन पर ख़ास ध्यान दे रहे हैं। उनकी यात्रा या रैली शुरू होने से पहले ही फोटो की रैली शुरू हो जाती है। हर राजनीतिक गतिविधि को फोटो में बदला जा रहा है या फोटो को ध्यान में रखकर राजनीतिक गतिविधियां प्लान की जा रही हैं। राजनेता सोशल मीडिया में पब्लिक के ज़रिये बन रहे इस स्पेस को अपनी तस्वीरों से भर रहे हैं। ये तस्वीरें ही वहां उनकी मौजूदगी का काम कर रही हैं। कभी सेल्फी के रूप में तो कभी किसी की खींची हुई तस्वीरों को आगे बढ़ाकर। नेता अब अपनी छवि ख़ुद ही बना रहा है। आप इन छवियों को कई तरीके से पढ़ सकते हैं। आपके नेता अनौपचारिक, कूल दिखने का प्रयास करते हैं तो साथ ही ख़ूब काम करने वाला भी। कोई ग़रीबों के साथ खींचा रहा है तो कोई खिलाड़ियों के साथ। अब तस्वीरों को भी ताकत के पैमाने पर आंका जा रहा है। भारत के प्रधानमंत्री और चीन के प्रीमियर की सेल्फी को अब तक की सबसे ताकतवर तस्वीर बताई गई है। तस्वीर के ताकतवर होने का क्या पैमाना होता है किसी को नहीं मालूम लेकिन अगर आप इन तस्वीरों के महत्व पर ध्यान नहीं देंगे तो अपने समय की राजनीतिक भाषा को नज़रअंदाज़ कर जायेंगे।
राजनीति और नेता बहुत नहीं बदले हैं। वो इतना ही बदले हैं कि आज की दुनिया की निगाहों के अनुसार ढल गए हैं। जैसे हम वैसे वे। हम भी तो वही करते हैं। कहीं पहुंच कर जगह को ठीक से देखने या आत्मसात करने के बजाए तुरंत मोबाइल से फोटो खींच कर फेसबुक और व्हाट्स अप पर अपडेट करने लगते हैं। नज़दीक पहुंच कर भी कोई जी भर कर नहीं देखता। सब बस एक फ्रेम एक तस्वीर के पीछे दीवाने हैं। उस फ्रेम में अब वो ख़ुद भी हैं जिसे हम सेल्फी कहते हैं। कोई नेता एक ग़रीब के साथ तस्वीर खींचा कर मसीहा बन जाता है तो कोई अमीरों के बीच चलती हुई तस्वीरों से खलनायक। हर क्षण एक नई छवि का उत्पादन हो रहा है। इतनी छवियां बन जाती हैं कि एक सामान्य दिमाग इस लायक ही नहीं बचता होगा कि वो उस नेता के बारे में कोई तार्किक फैसला करे। शायद इसीलिए राजनीति में भावुकता बची रह जाती है ठीक उसी तरह जैसे फोटो बचा रह गया और अब उस फोटो से नेता खुद को बचा रहे हैं।
बहुत पहले जब मैंने एक प्रसारण के दौरान कहा था कि सेल्फी एक राष्ट्रीय रोग है तो उसके बाद कई दर्शक मिले। सबने इस पंक्ति का ज़िक्र किया लेकिन साथ में यह भी निवेदन किया कि बस एक तस्वीर तो बनती है आपके साथ। मैं खींचा तो लेता हूं मगर साथ ही यह भी अध्ययन करते रहता हूं कि जो जहां है वो तो बदल नहीं रहा है। फिर बदल कौन रहा है। वो कोई और है या कहीं और है जिसकी सेल्फी हमारे तक नहीं पहुंची है। लोग सिर्फ एक फ्रेम को ही सत्य मानकर खुश हैं। शायद यही आज का दस्तूर और फ़ितूर है। दरअसल मैंने ग़लत कहा था। सेल्फ़ी एक राष्ट्रीय रोग नहीं है, यह एक राजनीतिक रोग भी है। हमारी परंपरा में एक सुख रोग का भी चलन है। जब कोई रोग न हो तो रोग के लिए एक रोग पाल लो। सेल्फी हमारे समय का सुखरोग है।
This Article is From May 18, 2015
सेल्फ़ी हमारे समय का सुखरोग है, फोटो सबसे ताकतवर भाषा
Ravish Kumar
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Updated:मई 18, 2015 15:02 pm IST
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Published On मई 18, 2015 12:24 pm IST
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Last Updated On मई 18, 2015 15:02 pm IST
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