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This Article is From Nov 26, 2014

रवीश कुमार की कलम से : सार्क के सरदार नरेंद्र मोदी

Ravish Kumar
  • Blogs,
  • Updated:
    नवंबर 26, 2014 12:14 pm IST
    • Published On नवंबर 26, 2014 12:11 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 26, 2014 12:14 pm IST

घूमते-घूमते ही ज़्यादा सीखा जा सकता है। इस नज़र से आप संयुक्त राष्ट्र और सार्क के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों की यात्रा को भी देख सकते हैं। आज सार्क सम्मेलन में दिया गया उनका भाषण संयुक्त राष्ट्र संघ सम्मेलन में जमा देने की कला से कहीं ज़्यादा बेहतर और परिपक्व था। प्रधानमंत्री के विदेश दौरों की आलोचना करने वाले भी आज उनके भाषण की भावना में सार्क क्षेत्र के लिए व्यावहारिक संभावनाएं देख सकते हैं। आज के भाषण ने वैचारिक बहसों से गायब हो चुके सार्क को वापस केंद्र में ला दिया है।

मैं कूटनीतिक और इन विदेशी मंचों की उपयोगिता को संदेह की नज़र से देखता हूं। इसका एक बड़ा कारण है कि मेरा इन मुद्दों से कभी नाता नहीं रहा। ऐसा नहीं है कि ये तमाम मंच नाकारा हैं, बल्कि कई बार लगता है कि यहां बोली जाने वाली बातें आदर्श रूप में तो बहुत अच्छी होती है, लेकिन उनका कोई खास गुणात्मक असर नहीं होता। इन भाषणों से संपादकीय तो भर जाते हैं, मगर ज़मीन पर वैसा कुछ नहीं बदलता। अपनी इस संदेहात्मकता को स्वीकार करने के बावजूद मैं मानता हूं कि प्रधानमंत्री का भाषण अच्छा था। मैं अतीत और भविष्य की बातें नहीं जानता, इसलिए एक रनिंग कमेंट्री की तरह इसे लिख रहा हूं।

प्रधानमंत्री का भाषण कम से कम एक वैचारिक स्थापना के लिहाज़ से प्रस्थान बिंदु तो पेश करता ही है। मुझे नहीं मालूम कि पहले के किसी वक्ता ने इन भावनाओं को व्यक्त किया है या नहीं, और किया है, तो उनका क्या हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री जब बोल रहे थे तो हॉल में बैठे लोगों के चेहरे पर टहलते कैमरों ने काफी कुछ दिखा दिया। एक किस्म की सकारात्मकता भरी हुई थी। विदेशमंत्री सुषमा स्वराज भी स्तब्ध नज़र आ रही थीं! मंच पर नेपाल के प्रधानमंत्री के पीछे बैठे उनके दो सहयोगियों के चेहरे पर भी खास किस्म का निखार था। वह अपनी बातों से भारत को मुखिया नहीं बना रहे थे, बल्कि यही कह रहे थे कि अब टकराव बहुत हो चुका, मिलकर कुछ काम करते हैं।

भाषण तो खत्म हुआ प्रधानमंत्री के चिर-परिचित जुमलेबाज़ी की शैली में कि हम पास-पास हैं, पर साथ-साथ नहीं हैं। साथ होने से कई गुणा ताकत बढ़ जाती है। ऐसे जुमलों से वह आम जन में संभावनाओं की तस्वीर तो खींच ही देते हैं। लेकिन इस भाषण का शुरू का हिस्सा भी काफी अच्छा था। मैं आतंकवाद से लड़ने और उसके ख़तरे के रूटीन प्रवचनों की बात नहीं कर रहा। बात कर रहा हूं उस मृतप्राय सार्क में फिर से जान डाल देने वाले हिस्से की।

प्रधानमंत्री मोदी सार्क को अवसरों का क्षेत्र बना देना चाहते हैं। वह इन इलाकों को जोड़ देना चाहते हैं। ऐसा करने के लिए वह सिर्फ दूसरों को भाषण नहीं दे रहे हैं, बल्कि भारत की भी कमज़ोरी गिना रहे हैं। इन्हीं सब बातों के कारण भाषण में ईमानदारी का पक्ष उभरने लगता है। मोदी कहते हैं कि मैं जब सड़क मार्ग के ज़रिये जनकपुर जाने की बात करता हूं तो अफसरों में घबराहट फैल जाती है। वह इसलिए कि सीमा पर सड़कें बेहद खराब हैं। मैं चाहता हूं कि ये बेहतर हो जाएं। मैं सीमा पर सुविधाओं को बेहतर करना चाहता हूं, ताकि कारोबार को रफ्तार मिल सके।

ऐसा करते हुए प्रधानमंत्री बहुत सावधानी से सार्क देशों के संबंधों को उत्पादक और उपभोक्ता में बदल देते हैं। सीमा विवाद के कारण सार्क देशों के नागरिकों के कड़वे संबंधों को उत्पादक और उपभोक्ता में बदलकर कहते हैं कि क्या प्रोड्यूसर और कंज्यूमर के बीच दूरी कम नहीं हो सकती है। मोदी का राष्ट्रवाद दरअसल बिजनेसवाद है। धंधा करो और धंधा करने की सभी सुविधाओं को ठीक से उपलब्ध कराओ। इसी से रोज़गार पनपेगा और सबका भला होगा।

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत के भीतर भी और कई बार भारत और पाकिस्तान के पंजाब के बीच कोई माल इतनी दूरी तय कर लेता है कि वह न सिर्फ महंगा भी हो जाता है, बल्कि समय भी बहुत ले लेता है। लेकिन यह दूरी तो तभी दूर होगी, जब प्रधानमंत्री राजनीतिक उतावलेपन के दबाव में आकर बात-बात में पाकिस्तान के साथ बातचीत बंद नहीं करेंगे। इन संबंधों को बेहतर करने के लिए शर्त मुक्त माहौल में बातचीत की मेज़ पर ले जाना होगा। अगर यह आसान होता तो इसी सम्मेलन में प्रधानमंत्री स्वयं पहल कर नवाज़ शरीफ को बांहों में भर लेते। सीमा पर सड़क बन जाने भर से संबंध बेहतर नहीं हो जाते, बल्कि संदेह के कारण भी पैदा हो जाते हैं। इतने अच्छे भाषण के बाद मोदी को संघ और विरोधी दलों के दबाव से निकलकर पाकिस्तान को वैसे ही दावत दे देनी चाहिए थी, जैसे उन्होंने अपने शपथग्रहण समारोह के वक्त दिया था। वर्ना मोदी, न नवाज़ शरीफ, दोनों में से कोई भी अपने घरेलू राजनीतिक यथार्थ से मुक्त नहीं हो पाएगा।

प्रधानमंत्री ने सार्क देशों से यह भी कहा कि उन्हें पता है कि आपके साथ व्यापार में भारत का पलड़ा भारी है। ट्रेड सरप्लस भारत के पक्ष में है, लेकिन यह चल नहीं सकता। व्यापार में संतुलन होना चाहिए। ऐसा कहकर वह सार्क देशों को विश्वास का एक धागा तो पकड़ा ही देते हैं कि कम से कम इन रिश्तों को एक नया मौका तो दिया ही जा सकता है। वह कहते हैं कि आज खुद से यह सवाल करने की ज़रूरत है कि दुनिया में दक्षिण एशिया कहां है। हम एक दूसरे को संदेह और नकारात्मक नज़रिये से न देखें। जो सपना मैं भारत के लिए देखता हूं, वही पूरे इलाके के लिए देखता हूं। पड़ोसी अच्छा हो, यह पूरी दुनिया की चाहत है। कुल मिलाकर मोदी ने सार्क देशों को झकझोरा है कि अगर हम यूरोप की तरह एक-दूसरे से जुड़ जाएं, व्यापार और लोगों का आवागमन बढ़ जाए तो सार्क संभावनाओं का क्षेत्र बन जाएगा।

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