नूपुर शर्मा का सर कलम करने की मांग करने वालों को अदालत की जरूरत नहीं रही, किसी जावेद का घर बुलडोजर से ढहा देने पर ख़ुश होने वालों को भी अदालत की ज़रूरत नहीं रही. यह सही वक्त है कि भारत की अदालतें तय कर लें कि उनकी ज़रूरत रही या नहीं रही. क्या हर बार ये संयोग ही होता है कि प्रदर्शन या हिंसा के बाद किसी को तुरंत ही मास्टरमाइंड बताकर अतिक्रमण के नाम पर उसका घर गिराया जाने लगता है? जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने तो बकायदा हर जिले में खुफिया तंत्र और उसके संचालन के लिए एक विस्तृत दिशानिर्देश जारी किया था, बड़े अफसर की जवाबदेही तय की थी, ताकि भीड़ की हिंसा रोकी जा सके. इस गाइडलाइन के हिसाब से कितने बड़े अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होती है? आरोपी का दोष साबित होने से पहले घर गिराने के लिए क्या अतिक्रमण एक नया हथियार बन गया है? क्या इसके जरिए इनको और उनको, यानी आप सभी को संदेश दिया जा रहा है कि प्रदर्शन करना भूल जाइए. किसानों ने प्रदर्शन किया तो इसी मीडिया ने उन्हें आतंकी लिखना शुरू कर दिया था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पूर्व चीफ जस्टिस गोविंद माथुर ने कहा है कि जावेद का घर अवैध रूप से गिराया गया है लेकिन गोदी मीडिया और एक तबका बुलडोज़र की जय जयकार कर रहा है.
वहीं इंसाफ के लिए भटक रहे आम आदमी के पांवों में जांच, मुकदमा, सबूत, सुनवाई, वकील, दलील, फैसला और अपील की बेड़ियां बांधी दी गई हैं, लेकिन उनके वोट से बनी सरकार ने अपने लिए इन सब बेड़ियों को तोड़ दिया है. ऐसा लगता है कि बुलडोज़र लाकर सरकारों ने अदालत की थका देने वाली प्रक्रियाओं के खिलाफ बगावत कर दी है. इंसाफ का मतलब प्रक्रिया नहीं, सबूत नहीं, पावर है और समर्थन है. हिंसा होती नहीं कि अतिक्रमण की गाड़ी पहुंच जाती है. बुलडोज़र के पहुंचने की घटना का भी अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि हिंसा के बाद यह बुलडोज़र ज़्यादातर मामलों में एक समुदाय के मोहल्ले में ही पहुंचता है. क्या हिंसा का दूसरा पक्ष होता ही नहीं है?
अब यही अंतिम न्याय और यही सही ख़बर है. मैं आप सभी का फूला हुआ सीना देखकर फूला नहीं समा पा रहा हूं, वाकई आज बधाई का दिन है. आप यानी उन सभी को जिनका अपना जीवन ठीक चल रहा है और जिन्हें आजकल कुछ भी गड़बड़ नहीं दिखाई देता.
ऐसे लोगों को इससे क्यों दर्द होगा, बुलडोज़र तो शहर को सुंदर बनाने और अतिक्रमण हटाने के नाम पर गरीब लोगों के मकानों को तोड़ चुका है, तब दर्द नहीं हुआ, अब क्यों होगा. वैसे भी ये घर प्रयागराज के किसी मोहम्मद जावेद का है. इसमें रहने वालों के नाम परवीन फ़ातिमा, सुमैया फ़ातिमा,आफ़रीन फ़ातिमा. अगर आप भावुक हो रहे हैं तो यह भी जान लें कि आफ़रीन फ़ातिमा का संबंध JNU से है, गोदी मीडिया की रिपोर्टिंग में जिस तरह से आफ़रीन को JNU से जोड़कर संदिग्ध और ख़तरनाक़ टाइप बताया गया है, उसके बाद तो किसी जांच और सबूत की ज़रूरत ही नहीं रह जाती है. ट्विटर पर जो लोग इस घर के ढहा देने पर ख़ुशी मना रहे हैं, उनकी ख़ुशी किसी नियम के तहत कार्रवाई को लेकर नहीं है बल्कि किसी नियम के तहत इन लोगों के घर पर बुलडोज़र चलने की कार्रवाई को लेकर है. इन लोगों के जिनके नाम हमने अभी-अभी बताए. इसके बाद बहुत से लोग आश्वस्त हो सकते हैं कि ‘इन लोगों' को सीधा करने का यही तरीका है, इन लोगों मतलब जिनका नाम जावेद और फातिमा होता है. मीडिया में इन लोगों के लिए कभी मास्टमाइंड, कभी सूत्रधार कभी दंगाई तो कभी उपद्रवी का इस्तेमाल हो रहा है. पुलिस ने भी सूत्रधार कहा है. नहीं भी कहा गया होता तब भी आप भावुक नहीं होते. इतना तो आपको जान ही गया हूं.
आज की कहानी में आप नहीं हैं. आप से मेरा मतलब वे लोग, जिनके जीवन में सब ठीक चल रहा है. मतलब जो रोज दफ्तर जा रहे हैं, दोस्तों के साथ पार्टी कर रहे हैं, मकान और कार खरीद रहे हैं, शेयर बाज़ार में कुछ डूब गया है, एक डॉलर 78 रुपये का हो गया है, फिर भी जिनका सब ठीक चल रहा है. वैसे जिन लोगों ने निगम अधिकारी को घूस देकर अतिक्रमण कर मकान बनाया, पार्किंग हथिया ली, वैसे आप लोगों के घर बुलडोज़र नहीं चला है, तब आप इस कहानी में कैसे हो सकते हैं. आज स्क्रीन पर हम होंगे और बुलडोज़र होगा, एक दिन हम भी नहीं होंगे, केवल बुलडोज़र होगा. जैसे कई चैनलों की भाषा और एंकर का अंदाज़ अभी से ही बुलडोज़र की तरह भड़भड़ाने लगता है. उनके कुछ नमूने देख लेंगे तो मेरी बातों पर यकीन हो जाएगा.
एक चैनल के स्क्रीन पर लिखा 'आया पत्थरबाजो, बुलडोज़र घर को पत्थर कर देगा.' 'ऑर्डर क्लियर, गुनाह पत्थर तो सजा बुलडोजर.' 'बुलडोज़र घर-घर, दंगाई थर-थर, जहां से पत्थर, वहां बुलडोज़र.' 'बुलडोज़र का प्रहार, योगी का संदेश तैयार. क्यों चलाई गोली, मौलाना की कैसी बोली.' 'योगी राज में उपद्रवियों पर प्रहार.' कुछ दिन पहले इन्हीं चैनलों की ऐसी बहसों, और भाषा को लेकर सवाल उठ रहे थे, बीजेपी ने अपने प्रवक्ताओं को ऐसी बहसों से दूर रहने की हिदायत दी थी, कहा था कि वे सरकार की गरीब कल्याण योजनाओं पर बात करें, इन चैनलों पर होने वाली बहसों का एक सप्ताह भी नहीं बीता कि फिर से इस तरह की भाषा और बहस की वापसी हो गई. मुसलमानों ने भी आलोचना की कि मौलाना हिन्दू बनाम मुसलमान की बहस में जाकर खराब बातें कर रहे हैं, हिन्दुओं की धार्मिक भावना भड़का रहे हैं और ऐसी बहस में उनका इस्तेमाल हो रहा है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बकायदा प्रेस रिलीज़ जारी कर दी कि मौलाना ऐसी बहस में न जाएं. चैनल ने इसकी काट निकाली. आलोचना हिन्दू बनाम मुस्लिम बहस की हुई, मना किया गया कि हिन्दू बनाम मुस्लिम बहस में न जाएं तो बहस मुसलमान बनाम मुसलमान की हो गई. इस बहस में एक नहीं आठ-आठ मुसलमान आ गए.
इन बहसों में क्या कहा गया, सही या गलत कहा गया, उसकी बात नहीं हो रही है. बात हो रही है जो लिखा गया था, लिखा जा रहा है. जब इंसाफ़ का चेहरा बुलडोज़र बन जाए तो उसके चल जाने के बाद सही गलत की बहस का कोई फायदा नहीं. वो तो चल चुका है.
प्रशासन की दलीलों के साबित होने की जगह तो अदालत है, मगर अब घर तो नहीं होगा जिसे प्रशासन ने अवैध निर्माण साबित कर ढहा दिया. प्रशासन की तरफ से बताया जा रहा है कि 10 मई को कारण बताओ नोटिस दिया गया जिसकी सुनवाई 24 मई को तय थी लेकिन जावेद की तरफ से कोई नहीं गया. 25 मई को ध्वस्तीकरण का आदेश जारी हुआ, और इसका नोटिस चिपकाया गया था कि 9 जून को खुद से ध्वस्त कर देंगे या 12 जून को ध्वस्तीकरण की कार्रवाई होगी. अब इन सवालों का मतलब नहीं रहा कि पहले का नोटिस नहीं मिला. नोटिस बैक डेट में जारी हुआ है या कब जारी हुआ है. पुलिस कहती है कि इस घर से हथियार मिला है, जावेद की बेटी कहती हैं कि जब घर खाली कर दिया गया था तब मलबे से ऐसी चीज़ें मिलना भी संदेह पैदा करता है.
इसी नोटिस को लेकर अदालत में सवाल-जवाब होंगे मगर अब वह घर नहीं होगा जिसे हसरतों के साथ बनाया गया था. उम्मीद है इसे तोड़ने वालों को नींद अच्छी आई होगी और सपने में सुंदर-सुंदर घर आए होंगे, ऐसे सुंदर सपने आते रहे, हम अपनी कहानी में इन सपनों के लिए दुआ करेंगे. आखिर तोड़ने में मेहनत जो लगी है, प्रशासनिक अधिकारी कह भी रहे हैं कि इतनी धूप में सबने मुस्तैदी से काम किया है. एक बात और समझ नहीं आ रही, जावेद के वकील कृष्णा राय और जावेद की बेटी सुमैया कह रही हैं कि उनके पिता तो प्रशासन के साथ शांति बहाली की बैठकों में जाया करते थे तब ऐसा क्या हुआ कि जावेद ही प्रशासन के लिए खलनायक बन गए?
जिन लोगों ने पत्थर चलाए, उनके छोड़ देने की बात कोई नहीं कर रहा, उनकी इस हिंसा से प्रशासन और आम लोगों की भी जान जा सकती थी, इसकी पड़ताल होनी ही चाहिए कि ये कौन लोग थे, जिन्होंने ये रास्ता चुना, लेकिन क्या कभी कोई जान पाएगा कि हिंसा के वक्त क्या हुआ, वहां हिंसा क्यों हुई? प्रशासन से कैसी चूक हुई? क्या वाकई जावेद ही हिंसा के मास्टरमाइंड थे? क्या पुलिस का दावा इतना पुख़्ता है, और पुख़्ता है तब घर गिराने से पहले, अदालत के फैसलों का इंतज़ार क्यों नहीं किया गया? क्या पूरे मोहल्ले में अतिक्रमण से यही एक मकान बना है? प्राधिकरण को बताना चाहिए कि शहर में कितने ऐसे लोगों को नोटिस भेजा गया है और वे कौन लोग हैं, उनके नाम क्या हैं?
क्या आप नहीं जानते कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय सुरक्षा कानून NSA के तहत दर्ज 120 मामलों से 94 मामलों को रद्द कर दिया था. 7 अप्रैल 2021 के इंडियन एक्सप्रेस में खबर छपी है. जिलाधिकारी मशीन की तरह आदेश जारी कर देते हैं. कुछ मामलों में केवल पुलिस रिपोर्ट के आधार पर ही NSA लगा देती है. बिना विचार और प्रक्रिया के आप किसी की स्वतंत्रता नहीं ले सकते हैं. ये सब टिप्पणियां इलाहाबाद हाईकोर्ट की हैं जो इस अखबार में छपी हैं.
ये यूपी प्रशासन और पुलिस का ट्रैक रिकार्ड है. इसमें अवैध रुप से NSA लगाने का भी रिकॉर्ड शामिल है. क्या जावेद के मामले में यूपी पुलिस का यह ट्रैक रिकार्ड सामने नहीं रखना चाहिए? सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने पर हर्जाना वसूलने का कानून प्रदर्शनों को कुचलने का नया हथियार बन गया है. हम सभी जानते हैं कि प्रशासन चाहे तो किसी भी प्रदर्शन को हिंसक बना सकता है, हिंसा के हालात पैदा कर सकता है लेकिन अब तो इस सवाल की संभावना ही हमेशा के लिए खत्म कर दी गई है.
कबाड़ का काम करने वाले महनूर चौधरी की दुकान फरवरी 2020 में सील कर गई गई. उन पर आरोप था कि दिसंबर 2019 में नागरिकता कानून के विरोध में जो हिंसा हुई थी उसमें कथित रूप से शामिल थे. उन्हें 21 लाख जुर्माना वसूली का नोटिस दिया गया. इसी तरह रंगकर्मी दीपक को भी 60 लाख का नोटिस मिला था. इसी साल सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में इन नोटिसों को अवैध माना और ऐसे 274 नोटिसों को रद्द कर दिया. कोर्ट ने साफ-साफ कहा कि सरकार ने एकतरफा फैसला किया था. जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस सूर्यकांत ने पूछा कि जब सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है कि इन मामलों में न्यायिक अधिकारी सुनवाई करेंगे तब प्रशासनिक अधिकारी ADM ने कैसे कार्रवाई का संचालन किया? आखिर सुप्रीम कोर्ट की बनाई हुई गाइडलाइन को अनदेखा करने के पीछे क्या मकसद रहा होगा, क्या प्रशासन से इतनी बड़ी चूक यूं ही हो जाती है.
तो आपने देखा कि NSA लगाने और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बदले हर्जाना वसूलने के मामले में यूपी पुलिस और प्रशासन का क्या ट्रैक रिकार्ड है. इस बार इस कानून की बात नहीं हो रही है. अतिक्रमण के कानून की बात हो रही है, उसमें भी दो बात हो रही है. एक तरफ जिला प्रशासन मोहम्मद जावेद को प्रयागराज हिंसा का मास्टरमाइंड भी कह रहा है दूसरी तरफ पुलिस प्रशासन के बड़े अधिकारी इस अंतर को भी रेखांकित कर रहे हैं कि पुलिस ने घर नहीं गिराया. विकास प्राधिकरण ने गिराया.
अगर हिंसा हुई है, सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान हुआ ही होगा, तब क्या इसकी वसूली के लिए जावेद का घर बचाकर नहीं रखा जाना चाहिए? जो व्यक्ति पुलिस के हिसाब से हिंसा का सूत्रधार है, जिस हिंसा से संपत्तियों का नुकसान हुई है, लोगों की जान जाते-जाते बची है, उसके कथित सूत्रधार की संपत्ति क्यों ढहा दी गई. अब सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान की वसूली का कानून कैसे लागू होगा, उसकी वसूली कैसे होगी? हम फिर से यह सवाल दोहराना चाहते हैं कि क्या यह केवल संयोग है कि बार-बार किसी प्रदर्शन और हिंसा के बाद उसमें शामिल लोगों को मास्टरमाइंड बताया जाता है और उनका घर अतिक्रमण के नाम पर तोड़ा जाता है?
इसी तरह दिल्ली के जहांगीरपुरी में भी बुलडोज़र चलने लगा, गोदी मीडिया का उत्साह देखते बनता था. जहांगीरपुरी के लोग हिन्दू मुस्लिम बंटवारे की भाषा के खिलाफ एकजुट हो गए. गोदी मीडिया को वहां से मसाला मिलना बंद हो गया. वृंदा करात बुलडोज़र के सामने खड़ी हो गईं तो सबने विपक्ष को ललकारा कि बाकी नेता सड़क पर क्यों नहीं हैं, यूपी में भी सपा से लेकर कांग्रेस को लेकर सवाल उठा कि विपक्ष कहां है? जहांगीरपुरी मामले को लेकर कई लोग सुप्रीम कोर्ट गए. कोर्ट ने बुलडोज़र पर रोक लगा दी. अब दिल्ली में बुलडोज़र का हल्ला शांत हो चुका है. वकील संजय हेगड़े ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में बहस की थी.
न्याय पालिका में अब क्या रह जाता है और मुझे ये भी पता नहीं है कि इस तफ्तीश के बाद क्या पुलिस कोई चार्टशीट न्यायपालिका तक ले आएगी, और उनको जरूरत क्या है?
नूपुर शर्मा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग ठीक है लेकिन नूपुर का सर कलम करने, फांसी देने की मांग कहां तक जायज़ है. ओवैसी की पार्टी के सांसद इम्तियाज़ जलील ने क्यों कहा, क्या ऐसा कहकर इम्तियाज़ ने उन लोगों को और खुराक नहीं दिया जो जावेद के घर तोड़े जाने पर खुश हो रहे हैं या वो माहौल नहीं बनने दिया जिसकी आड़ में किसी जावेद का घर तोड़ दिया गया? सवाल सरकार से भी है. जब नूपुर शर्मा का बयान आया, तब खुद से उसने कार्रवाई क्यों नहीं की? तब क्यों की जब खाड़ी के देशों ने नाराज़गी ज़ाहिर की? जावेद के बारे में पुलिस ने कहा है कि फेसबुक पर जावेद ने लिखा है कि उसे न्यायपालिका पर भरोसा नहीं, क्या अब यह लिखना गुनाह हो गया है? कितनी फिल्मों में यह संवाद है, कितने ही लोग बरसों न्याय न मिलने की हताशा में बोल जाते हैं कि न्यायपालिका पर भरोसा नहीं है? क्या इस देश में नूपुर शर्मा के लिए अलग कानून है, जावेद के लिए अलग?
भले ही बीजेपी ने नूपुर शर्मा को प्रवक्ता पद से हटा दिया है लेकिन ट्विटर पर आज भी उनके समर्थन में अभियान चलता है. तरह-तरह की मीम में उन्हें नायिका की तरह पेश किया जाता है. बेशक पुलिस ने कुछ लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की है लेकिन इस तरह के हैशटैग तो चल ही रहे हैं, मीम भी बन रहे हैं. बहुत से लोग व्हाट्सऐप में शेयर कर रहे हैं कि नूपुर शर्मा को सपोर्ट करें. नूपुर शर्मा के समर्थन में 1 लाख 83 हज़ार से अधिक लोगों ने दस्तखत किए हैं. खुद को नमो फैन कहने वाला व्यक्ति नूपुर के समर्थन में यह अभियान चला रहा है. अगर इतने ही लोग आज जावेद के लिए दस्तखत कर दें तो गोदी मीडिया उन्हें आतंकी और उग्रवादी लिखने लगेगा. क्या आप नहीं देख पा रहे कि गोदी मीडिया, राजनीतिक दल और प्रशासन नूपुर शर्मा के लिए अलग भाषा का इस्तेमाल करता है, मोहम्मद जावेद के लिए अलग भाषा और साथ में बुलडोज़र का इस्तेमाल करता है.
सितंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अजय रस्तोगी और अभय श्रीनिवास ओका की बेंच ने पत्रकारिता के छात्र अल्लन सुहैब और ताहवा फ़सल के मामले में कहा था कि अगर सरकार ने किसी किताब को बैन किया है और वह किताब किसी के पास है तो आप मुकदमा कर देंगे? किसी किताब, नारों के आधार पर UAPA का केस दर्ज नहीं हो सकता है. NIA का केस था वह.
पुलिस के बयान में आफरीन फातिमा के बारे में कुछ भी ठोस नहीं कहा लेकिन मीडिया की भाषा में आफरीन को कई तरह से संदिग्ध बना दिया गया है. शाहीन बाग और जेएनयू से कनेक्शन को इस तरह से लिखा जाता है जैसे किसी को संदिग्ध बनाने के लिए ये दोनों प्रमाण ही काफी हैं. शाहीन बाग एक वैध आंदोलन था जिससे बात करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने वार्ताकार तक नियुक्त किया था. आज के दैनिक जागरण में छपी एक खबर को उदाहरण के तौर पर ले सकते हैं. अख़बार लिखता है कि ''जावेद के घर मिले आपत्तिजनक कागजात कर रहे हैं, बड़े षडयंत्र का इशारा.'' आपत्तिजनक कागजात क्या है, इसका ब्यौरा नहीं है. एक और सुर्ख़ी है कि ''इंटरनेट मीडिया पर छाया मास्टरमाइंड की बेटी का शाहीनबाग कनेक्शन.'' अखबार लिखता है कि उसकी बेटी आफरीन फ़ातिमा का शाहीनबाग में चले धरना प्रदर्शन से कनेक्शन सामने आया है. वह देशद्रोह के आरोप में बंद शरजील इमाम की भी नज़दीकी बताई जाती है. हालांकि ज़िले के पुलिस अधिकारी इस बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कह पाते. पुलिस आफरीन की पूर्व की गतिविधियों की जानकारी जुटा रही है. आसार हैं कि कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आ सकते हैं. मौसम समाचार की तरह आसार के आधार पर फातिमा का कनेक्शन कहां से कहां जोड़ दिया गया है. ऐसा कई अखबारों और कई चैलनों की रिपोर्टिंग में हुआ होगा, इसे नहीं मानने का ठोस कारण नहीं है.
किसी का घर इस तरह से ढहा दिया गया. आपके साथ ऐसा नहीं होगा, आप फिक्र न करें. जावेद और फातिमा को फिक्र करने दीजिए. आप जिस तरह से रोज़ाना पार्टियों में जाने की तैयारी में रहते हैं, तैयारी करते रहिए.
क्या आप जानते हैं कि ED का ट्रैक रिकार्ड क्या है? अगर किसी को बुलाकर घंटों, हफ्तों पूछताछ का रिकार्ड देखा जाए तो हो सकता है कि ED टॉप कर जाए. पिछले 17 साल में केवल 25 मामलों में सज़ा हुई है जो ED ने दर्ज की है. जबकि ED ने 5422 मामले दर्ज किए हैं. आज ED ने राहुल गांधी से बुलाकर पूछताछ की तो कांग्रेस सड़कों पर उतर आई.