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This Article is From Aug 02, 2015

विश्वविद्यालयों में 'लेफ्ट-राइट', छात्रों के लिए कोई फोरम नहीं

Reported By Ravish Kumar
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  • Updated:
    अगस्त 02, 2015 20:32 pm IST
    • Published On अगस्त 02, 2015 15:39 pm IST
    • Last Updated On अगस्त 02, 2015 20:32 pm IST
चुनावी राजनीति में अगर कोई तरीके से उल्लू बनता है तो वो है हमारा युवा। पहले उसे नारेबाज़ी के लायक बनाया जाता है फिर उसके भीतर निष्ठा बनाई जाती है फिर उसे झंडा लहराने के काम में लगा दिया जाता है। इस काम में वो हमेशा लगा रहे इसलिए उसे हिन्दू बनाम मुस्लिम, सेकुलर बनाम सिकुलर टाइप के बहसों में उलझा दिया जाता है, जहां से उसका राजनीतिकरण फोकट के तर्कों से हमेशा के लिए हो जाता है और वो अपने हिसाब से लेफ्ट से लेकर राइट के खांचों में फिट हो जाता है। उसकी लाचारी तब समझ आती है जब वो जायज़ सवालों को लेकर आवाज़ उठाता है। नतीजा यह होता है कि वो लाठियां खाते रह जाता है, दीवारों पर पोस्टर बनाते रह जाता है और सड़कों पर सोता रह जाता है। सारे राजनीतिक दल उसे छोड़ जाते हैं।

चुनाव के समय के युवा उस कहानी के सियार जैसा हो जाता है, जिसके 'हुवां हुवां' के नाम पर कोई दहशत फैलाता रहता है। पुणे में एफ टी आई आई में चल रहे आंदोलन को देख लीजिए। उन्हें नक्सल तक कह दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय में आम तौर पर छात्र आंदोलन मामूली कामयाबी के बाद समाप्त होने के लिए अभिशप्त रहते हैं। आज ही एक छात्र का फोन आया कि वे सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करना चाहते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों को नौकरियां नहीं मिल रही हैं। ऐसा इसलिए करना चाहते हैं ताकि सरकार का ध्यान जाए। देश भर के विश्वविद्यालयों में लेफ्ट से लेकर राइट तक के नाम पर जो हो रहा है, उस पर बात करने का कोई राजनीतिक फोरम नहीं है।

चुनाव के बाद कोई राजनैतिक दल ऐसा फोरम बनना भी नहीं चाहता, ताकि उसकी जवाबदेही पर सवाल उठे। नतीजा वो पिछले दरवाज़े से नियुक्तियां करता है, अपने विचार थोपने का प्रबंध करता है, महापुरुषों के साथ हो रहे कथित अन्यायों को इंसाफ़ देने के नाम पर कोर्स बदलने लगता है। इसी क्रम में कोई सीबीएसई की निर्देशिका का लाभ उठाते हुए तीसरी कक्षा की किताब में आसाराम बापू और रामदेव को विवेकानंद, मदर टेरेसा और बुद्ध जैसे संतों की श्रेणी में लगा देता है।

इतनी बात इसलिए कही ताकि आप को बता सकूं कि पांडिचेरी विश्वविद्यालय के छात्र लाठियां खा रहे हैं। उन्होंने change.org पर एक याचिका डाली है। इन छात्रों का आरोप है कि तीस साल पुराने इस केंद्रीय विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर ने जो अपने बायोडेटा में लिखा है वो ग़लत है। छात्रों ने सूचना के अधिकार के तहत उनका बायोडेटा हासिल कर दावा किया है कि अगर कोई अपने बारे में इतनी ग़लत जानकारी दे सकता है तो वो छात्रों को श्रेष्ठ बनाने का नैतिक दावा भी कैसे कर सकता है। इस बायोडेटा को पांडिचेरी यूनवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन की वेबसाइट puta.org.in पर भी डाला है। एक दावा यह भी है कि वाइस चांसलर ने अपने बायोडेटा में जो भी बताया है अगर उसे सही भी मान लिया जाए तो वो दो अन्य उम्मीदवारों के मुकाबले में कुछ भी नहीं हैं। पांडिचेरी विश्वविद्यालय की वाइसचांसलर चंद्रा कृष्णामूर्ति चौथी बार इस पद पर हैं। जबकि उन्होंने पीचएडी 2002 में की है।

शिक्षकों और छात्रों का दावा है कि उन्होंने अपने बायोडेटा में तीन किताबें लिखने का दावा किया है। प्रकाशकों से जानकारी मांगी गई तो पता चला कि उनकी दो किताब कभी प्रकाशित ही नहीं हुई है। तीसरी किताब जो प्रकाशित हुई है उसमें पाया गया कि 98 प्रतिशत जानकारी अन्य जगह से उठाई गई है। 98 प्रतिशत के बाद मौलिक लेखन के लिए बचता ही क्या है। अगर ऐसा है तो क्या दो दिन के भीतर हमारी मानव संसाधन मंत्री पता नहीं लगा सकतीं।

शिक्षकों ने तो वाइस चांसलर के बायोडेटा पर पीएचडी ही कर डाली है। उनका दावा है कि चंद्रा कृष्णमूर्ति ने 25 पेपर लिखने का दावा किया है। इनमें से कुछ बार काउंसिल आफ इंडिया ने प्रकाशित किया है तो कुछ नेशल लॉ यूनिवर्सिटी बंगलुरू ने। आर टी आई से जुटाई गई जानकारी से पता चला कि ऐसी जगहों पर इनका कोई लेख प्रकाशित नहीं हुआ है। यहां तक कि उन्होंने अपने बायोडेटा में दावा किया है कि एल एल बी और एल एल एम के इम्तहान में प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान हासिल किया है। लेकिन आर टी आई से जो उनकी सर्विस बुक निकाली गई है, उससे पता चलता है कि वे सेकेंड क्लास में पास हुई हैं। ऐसी कई बातें हैं जिनकी जांच तो होनी ही चाहिए। वीसी का भी पक्ष सामने आना चाहिए। जो कि इस लेख में भी नहीं है।

पांडिचेरी विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों का यह भी दावा है कि वाइस चांसलर ने नियुक्तियों में भी मनमानी की है। इन सबकी एक लंबी फेहरिस्त दी गई है। इस तरह के दावे भी हैं कि वीसी ने अपने घर में शौचालय बनाने पर ग्यारह लाख रुपये खर्च किये हैं। सरकारी पैसे से दो दो कारें ख़रीदी गईं हैं। इन लोगों ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति को भी लिखा है। अगर हमारे संस्थान पेशेवर तरीके से चलते तो इन सब आरोपों की एक महीने में जांच हो सकती थी और छात्रों को लाठी खाने की नौबत नहीं आती। कुलपति भी अपनी तरफ़ से बयान जारी कर सकती थीं। ऐसा कौन सा पहाड़ टूट जाएगा कि अगर कुलपति छात्रों के सवालों का सार्वजनिक जवाब दे देंगी तो। फिर किस बात के लिए हम 'लोकतंत्र लोकतंत्र' करते रहते हैं।

छात्रों का दावा है कि पिछले एक हफ्ते से आंदोलन चल रहा है। वीसी ने बुलाकर बात तक नहीं की। उल्टा पुलिस  बुलवा कर पिटाई करवा दी। देश के अन्य विश्वविद्यालय से भी ऐसी ख़बरें आती रहती हैं। ऐसा नहीं हैं कि यह सब नई सरकार के आने से हो रहा है। बहुत पहले से यह हो रहा है। मध्य प्रदेश और बिहार से भी कुलपतियों को लेकर शिकायतें आ रही हैं। आंदोलन चल रहे हैं। माखन लाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय के छात्रों ने भी फेसबुक के इनबॉक्स में काफी कुछ लिखा था कि हमारे यहां ठीक नहीं चल रहा है। मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं है। हमारी मीडिया में भी नहीं है। युवाओं के लिए शो बन जाते हैं, मगर युवाओं के सवालों के लिए कहीं कोई जगह नहीं है। विश्वविद्यालयों से यही ख़बर आती रहती है कि इतिहास बदलने वाला है। पर बदलने की बात तो भविष्य की हो रही थी, इतिहास क्यों बदल रहा है। इसलिए कि राजनीति न बदले। इसलिए युवा सिर्फ नेताजी के जयकारे लगाये।

अच्छी बात ये है कि युवा इस खेल को समझ रहे हैं। विश्वविद्यालयों में गुणवत्ता और पेशेवर व्यवस्था की मांग कर रहे हैं। भले ही बीते पंद्रह सालों में न कर पायें हो मगर कर तो रहे हैं। फिर जब इनका संघर्ष मीडिया और राजनीति में जगह ही नहीं पाता तो कैसे दावा किया जा सकता है कि बीते पंद्रह सालों में भी आंदोलन नहीं हुए। सवाल नहीं उठे।

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