कई बैंक के अधिकारी-क्लर्क मुझे लिख रहे हैं कि बैंक की तरफ से उन्हें शेयर लेने के लिए मजबूर किया जा रहा है. कोई अपनी मर्ज़ी से शेयर नहीं ले रहा है लेकिन हर किसी पर उससे बड़े अफसर के ज़रिए फोन कर दबाव डाला जा रहा है कि वो शेयर ख़रीदे. मैनेजरों के बारे में बैंक यह तय करे कि आप दो लाख रुपये के शेयर ख़रीदें और वो भी बैंक के तो यह कुछ और है. बल्कि कुछ और नहीं, सीधे-सीधे ग़ुलामी है. यह मुमकिन होता हुआ देख पा रहा हूं कि इतने बड़े तबके को ग़ुलाम बनाया जा सकता है.
एक बैंक की बात नहीं है. कई बैंकों के लोगों ने मुझे लिखा है. मैंने दो बैंकों के आदेश आज पढ़ डाले. आंतरिक पत्र है. नाम नहीं दे रहा हूं. एक बैंक के एक आदेश में लिखा है कि "बैंक के सीईओ, प्रबंध निदेशक से लेकर तीनों कार्यकारी निदेशक तक हाथ जोड़कर अपील करते हैं कि अपनी संस्था को बचाने के लिए प्लीज़ शेयर खरीदें. हमारे 54 ज़ोन हैं मगर संतोषजनक प्रगति नहीं हुई है. " बैंकों के ज़ोन को टारगेट दिया गया है कि इतने करोड़ तक का शेयर ख़रीदें. यहां तक कि यूनियन के नेताओं ने भी अपील की है कि शेयर ख़रीदें. ग्रेड 1 से 4 तक के अधिकारियों से कहा गया है कि वे ढाई लाख तक के शेयर ख़रीदें. क्लर्क से डेढ़ लाख तक के शेयर ख़रीदने की बात कही गई है. इस स्कीम का नाम इम्पलाई स्टॉक परचेज़ स्कीम (ESPS)है. बैंक के एक शेयर के भाव 80 रुपये हैं.
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मैंने आदेश की कॉपी देखी है. जो मैनजर शेयर ख़रीदने से इंकार कर रहे हैं उनका तबादला कर दिया जा रहा है. एक दूसरे बैंक के आदेश पत्र से पता चलता है कि बैंकों के कर्मचारियों के डी-मैट अकाउंट खुलवाए जा रहे हैं. बकायदा वीडियो कांफ्रेंसिंग हो रही है कि कैसे डीमैट अकाउंट खोलें. जिनके हैं, उन्हें सक्रिय रखने को कहा जा रहा है ताकि शेयर ट्रांसफर का काम बिजली की गति से हो सके. इस बैंक के आदेश में लिखा है कि बैंक कर्मचारियों को शेयर जारी कर अपने लिए पूंजी जमा करने जा रहा है. सभी कर्मचारियों से उम्मीद की जा रही है कि वे डी-मैट अकाउंट खोलें. यहां तक लिखा है कि शाम को दफ्तर छोड़ने से पहले सभी ब्रांच कंफर्म करें कि डी-मैट अकाउंट खुला या नहीं. बताइये क्या गरिमा रह गई इन बैंकरों की?
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ये सभी सरकारी बैंक हैं. बैंकरों ने बताया है कि उन्हें मजबूर किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि पैसे नहीं हैं तो ओवर-ड्राफ्ट करें. उसका ब्याज़ देना होता है. फिर उस पैसे से बैंक के पैसे ख़रीदें ताकि बैंक के पास पूंजी आ जाए. कमाल का आइडिया है. इस देश में टीवी पर राष्ट्रवाद चल रहा है और दफ्तरों में इंसान की गरिमा कुचली जा रही है. एक नागरिक को शेयर ख़रीदने के विकल्प तक नहीं है. क्या सेबी या कोई नियामक संस्थाएं मर गईं हैं? क्या बैंकरों ने अपनी नागरिकता बिल्कुल खो दी है कि इसमें उन्हें कुछ भी ग़लत नहीं लगता? अपने रिश्तेदारों को बता सकते थे, विपक्ष के नेताओं तक बातें पहुंचा सकते थे कि हमारे साथ हो रहा है, पत्रकारों को बता सकते थे, आखिर चुप कैसे रह गए? क्या बैंकों के भीतर काम करने वाले इतनी सी बात नहीं समझे कि सीरीज़ से उनका ख़ून खींचा जा रहा है? फिर बैंकर बार-बार बीस लाख बैंकर बीस लाख बैंकर परिवार क्यों करते हैं?
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ऊपर से अर्थव्यवस्था कितना चमक रही है. इस चमक के शिकार बैंक वाले भी हैं. उनमें से भी बहुत होंगे जिन्हें ये ग़लत नहीं लगता होगा. अगर आपके रिश्तेदार सरकारी बैंकों में हैं तो उनसे पूछें कि क्या आपके साथ ऐसा हुआ है? क्या आपको मजबूर किया गया है कि बैंक से कर्ज़ लेकर शेयर ख़रीदें? कम से कम आप उनसे यह प्रश्न पूछकर उन्हें बताने का मौका दें. उन्हें ख़ुद को ज़िंदा नागरिक समझने का मौका दें. इसका मतलब है कि बाज़ार में शेयर कौन ख़रीद रहा है यह भी एक घोटाला है. बैंकरों को मजबूर करना भी घोटाला है. बाज़ार में जिसे जो शेयर ख़रीदना है वो ख़रीदे. मगर बैंक कैसे मजबूर कर सकता है कि आप हमारा शेयर ढाई लाख का ख़रीदें ही. इस तरह से एक एक कर्मचारी से ढाई लाख और एक लाख के शेयर सीरींज से खून की तरह खींचकर सालाना रिपोर्ट ठीक की जा रही है.
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मैंने बैंक सीरीज़ की शुरुआत में ही और शायद पिछले साल इसी वक्त लिखा था कि बैंकों के भीतर गुलामी चल रही है. तब लगा था कि मैं गलत हूं. मैं कौन सा समाजशास्त्री हूं. इतनी बड़ी बात कैसे कह दी कि बैंकों में ग़ुलामी की प्रथा चल रही है. लेकिन अब मैं इसे होते हुए देख रहा हूं. अगर बैंकर गुलाम हो सकते हैं तो बाकियों की क्या हालत होगी. सोचिए आज बैंकरों के लिए कोई नहीं है. बैंकर भी ख़ुद के नहीं हैं.जब मनुष्य मनुष्य नहीं रह जाता तो सब एक-दूसरे की पीठ की चमड़ी उधेड़ने लगते हैं. अपनी पीठ से ख़ून बह रहा होता है, मगर सामने वाली की पीठ की चमड़ी समेट रहे होते हैं. आर्थिक नीतियों का यह दौर हमसे कितनी कीमत मांग रहा है. अब लगता है कि चैनलों पर प्रोपेगैंडा न होता तो ये लोग अपने दर्द को कहां जाकर कम करते. मरे हुए मनुष्यों और अधमरे नागरिकों के बीच राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता का इंजेक्शन काम कर गया है. कम से कम रोज़ शाम को गर्व तो करते होंगे. उनके जीवन में भले गौरव न बचा हो मगर टीवी के ज़रिए स्टूडियो के सेट में बदल दिए गए भारत को देखकर अचंभित हो उठते होंगे. गौरव करते होंगे. बीस लाख बैंकर्स शून्य में बदल चुके हैं. वे सुन्न हो चुके हैं. हम उनका हाल जानकर सन्न रह गए हैं.
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