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This Article is From Nov 04, 2014

रवीश कुमार की कलम से : कौशाम्बी से दिल्ली तक

Ravish Kumar, Rajeev Mishra
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  • Updated:
    नवंबर 24, 2014 15:23 pm IST
    • Published On नवंबर 04, 2014 20:18 pm IST
    • Last Updated On नवंबर 24, 2014 15:23 pm IST

हमारी कैमरा टीम दोनों माइक की चेकिंग कर ही रही थी कि एक कार बिना किसी सायरन वायरन के गिरनार अपार्टमेंट में प्रवेश कर जाती है। धीरे से कोई कहता है कि अरविंद केजरीवाल आ गए। विभव, मनीष सिसोदिया और दीपक भी कार से उतरते हैं और नमस्कार के साथ इंटरव्यू शुरू हो जाता है। दिनभर की राजनीतिक गतिविधियों की थकान अरविंद के चेहरे पर साफ दिख रही है। गाज़ियाबाद से सटा है कौशाम्बी का इलाका जहां अरविंद केजरीवाल का पुराना घर है।

कौशाम्बी के सारे अपार्टमेंटों की मायूसी हमेशा मुझे परेशान करती है। ग्रे रंग की इमारतें राजनीति के ‘ग्रे एरिया’ की तरह मौजूद हैं जिसके बाहर पटरी पर पानी बेचने वाले ने बताया कि अस्सी फीसदी घरों के लोग रोज़ पानी खरीद कर पीते हैं। महीने का हज़ार रुपया पीने के पानी पर खर्च करते हैं। कौशाम्बी के लोगों के बाल इस पानी से काफी झड़ने लगे हैं।

सुधीर पानीवाला तो किसी डॉक्टर की तरह बताए जा रहा था, लेकिन मेरी नज़र कौशाम्बी की मायूस और बेनूर इमारतों पर टिकी थीं। ये अपार्टमेंट इतने मायूस और अंधेरे अंधेरे से क्यों लगते हैं। क्या लोगों ने कम रौशनी में जीना सीख लिया है। निश्चय ही प्राचीन भारत का एक प्रमुख जनपद कौशाम्बी इस तरह फीका नहीं होगा।

ख़ैर इंटरव्यू होने लगा। अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर किसी तरह के आक्षेप से बचने लगे। बार बार पूछा लेकिन टालते रहे कि उनका मुकाबला दिल्ली में बीजेपी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार से है न कि नरेंद्र मोदी से। मैं बार बार पूछता रहा कि बीजेपी तो मोदी के नाम पर ही दिल्ली में उतरने जा रही है। इसी रणनीति पर वो एक लोकसभा और दो विधानसभा का चुनाव जीत गई है। अरविंद केजरीवाल के जवाब से लगा कि वे अभी तैयार नहीं है कि मोदी को मुद्दा बनाकर दिल्ली के मुद्दे को बीजेपी के हाथ में जाने दिया जाए। वो हर सवाल के जवाब को 49 दिनों की उपलब्धियों और भ्रष्टाचार के मुद्दे के आस-पास रखना चाहते हैं।
अपनी बातचीत में बार बार बताना नहीं भूलते कि ये क्या कम बड़ी उपलब्धि है कि हमारे एक भी विधायक नहीं टूटे। अगर हमारी पार्टी मज़बूत नहीं होती तो इनमें से कोई भी टूट चुका होता और बीजेपी सरकार बना चुकी होती। लेकिन हमारे विधायकों ने पैसे की राजनीति को ठुकरा दिया है।

इसी से मेरा अगला सवाल बन गया कि संसाधन, विज्ञापन और संगठन के मामले में आप बीजेपी के मुकाबले कहीं नहीं ठहरती है तो कैसे लड़ेगी और लड़ेगी तो कैसे टिकेगी। अरविंद ने तुरंत स्वीकार कर लिया है कि हमारे पास पैसे नहीं हैं। और अगर हमने जमा भी किए तो कितने कर लेंगे। पिछली बार बीस करोड़ तक पहुंचे थे, बहुत से बहुत तीस करोड़ ही तो होंगे लेकिन क्या बीजेपी तीस करोड़ में चुनाव लड़ेगी। मुझे पता है कि बीजेपी के पास पैसे और संसाधन की कोई कमी नहीं है।

अरविंद केजरीवाल ने ये तो माना कि इस बार उनकी लड़ाई सिर्फ बीजेपी से है। कांग्रेस लड़ाई में नहीं है।

भ्रष्टाचार को लेकर उनके दिए गए तमाम जवाबों से मैं संतुष्ट नहीं हो पा रहा था। मेरी दलील यह थी कि दिल्ली ने इस मुद्दे को छोड़ दिया है। जनलोकपाल या लोकपाल को लेकर अब वो उस तरह से भावुक नहीं है जिस तरह से एक साल पहले थी। अरविंद केजरीवाल सहमत नहीं थे। उनका कहना है कि आम आदमी आज भी नगर निगमों से लेकर अस्पतालों के भ्रष्टाचार से जूझ रहा है। वे एक बार फिर जनलोकपाल और भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनायेंगे और पांच साल के लिए मौका मांगेंगे।

उनके जवाब से ऐसा लग रहा था कि इस बार वाकई आम आदमी को उस तबके से उम्मीद है जो समाज के नीचले से लेकर मध्यम हिस्से के बीच है। अरविंद को यह अहसास हो चला है कि इस लड़ाई में मध्यमवर्ग को अपने पक्ष में लाना एक चुनौती का काम होगा। बार बार पूछने पर वो बोल उठते हैं कि इस बार दिल्ली के मध्यमवर्ग को तय करना होगा कि वो बवाना या त्रिलोकपुरी जैसी घटनाओं के खिलाफ है या समर्थन में। नफ़रत की राजनीति के ख़िलाफ़ उसे ही आगे आना होगा।

अरविंद अब राजनेता हो चुके हैं। नहीं मानते कि इस बार उनकी पार्टी के लिए करो या मरो की स्थिति है। कहते हैं कि पिछले चार महीनों में उनकी पार्टी की जड़ें और गहरी हुई हैं। गली से लेकर व्यापार मंडल तक में उनका संगठन बना है। उनका विश्वास है कि जिस तरह से उनके विधायकों ने ख़रीद फ़रोख्त की राजनीति को नकार दिया है, उससे नहीं लगता कि आम आदमी पार्टी का वजूद इस चुनाव के नतीजे पर निर्भर करेगा।

सवाल ख़त्म होने लगे थे। मैं बार बार नरेंद्र मोदी पर उनके तेवर को भांपने का प्रयास करना चाहता था। लेकिन जब इंटरव्यू ख़त्म होने के बाद उनके घर चाय पीने गया तो कौशाम्बी की इमारतों की मायूसी फिर घेरने लगी। पार्किंग में बड़ी गाड़ियों को देखकर नहीं लगता है कि यहां के लोगों में संसाधन की कोई कमी है। यही तो सवाल है कि ये लोग अपने इलाके की सूरत क्यों नहीं बदल पाते।

अब हम अरविंद केजरीवाल के साथ उनके घर के भीतर थे। अपनी पत्नी से पापड़ मांग कर खाने लगे। फोन पर व्यस्त हो गए। इससे पहले एक बार और गया था। तब और अब के बीच वे मुख्यमंत्री से पूर्व मुख्यमंत्री हो चुके हैं। लेकिन दोबारा घर जस का तस बस चुका था। सामान भी वही के वही लगे। दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन साल भर बाद घर जाकर लगा कि ऐसा कुछ भी खास नहीं है जिससे लगे कि घर बदल गया है। चाय पीते-पीते रणनीतियों पर चर्चा होने लगी। अरविंद अब पहले की तरह उचक कर नहीं बोलते। सुने जा रहे थे। जवाब भले नहीं मिला लेकिन सवाल तैरता हुआ ज़रूर नज़र आया कि इस बार की लड़ाई निर्णायक है। मुश्किल है। पता नहीं क्या होगा का सवाल तैर रहा था। राजनेता कभी स्वीकार नहीं करते। वे हमेशा कहते हैं कि लड़ाई के लिए तैयार हैं।

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