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This Article is From Feb 09, 2021

जो आंदोलन में जाते हैं वे लोकतंत्रजीवी हैं...

Ravish Kumar
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    फ़रवरी 09, 2021 00:30 am IST
    • Published On फ़रवरी 09, 2021 00:30 am IST
    • Last Updated On फ़रवरी 09, 2021 00:30 am IST

आंदोलनजीवी परजीवी. राज्यसभा में प्रधानमंत्री की इस व्याख्या को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. किसी भी आंदोलन में बाहरी तत्वों की पहचान की परंपरा बिल्कुल नई नहीं है लेकिन किसान आंदोलन के संदर्भ में प्रधानमंत्री की यह बात वहां तक जाती है जहां से गोदी मीडिया पहले ही दिन से किसान आंदोलन को आतंकवादी और विदेशी साज़िश का हिस्सा करार देने लगा था. दूसरी तरफ से देखें तो गोदी मीडिया की जो मान्यता रही है उसे आज प्रधानमंत्री ने सैद्धांतिक जामा पहना दिया. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर उनके जवाब में कृषि कानून की पृष्ठभूमि और तमाम दावों की अलग से परख हो सकती है लेकिन एक आंदोलन को देखने की जो उन्होंने बुनियाद रखी है उसकी पहले की जानी चाहिए. प्रधानमंत्री ने श्रमजीवी और बुद्धीजीवी से तुक मिलाते हुए आंदोलनजीवी परजीवी तो कह दिया है, उम्मीद है कोई इसी तरह की तुकबंदी मिलाकर श्रमजीवी को परजीवी न कह दे. प्रधानमंत्री के अनुसार वैचारिक स्टैंड लेना भी परजीवी होने के लक्षण हैं. पहली नज़र में यह आलोचना किसान आंदोलन के समर्थन में खड़े बुद्धीजीवियों की हो सकती है लेकिन वैचारिक स्टैंड लेकर परजीवी बन जाने का स्टिकर उन पर भी चिपक सकता है जो खुद को विचारधारा की राजनीति का समर्थक बनाते हैं. है न कमाल. आप विचारधारा की राजनीति करें तो राष्ट्रवाद. दूसरे विचारधारा के नाम पर हर जगह स्टैंड ले लें तो आंदोलनजीवी परजीवी.

आंदोलनजीवी परजीवी क्या होता है? प्रधानमंत्री के अनुसार यह वो जमात है जो वकीलों से लेकर मज़दूरों के आंदोलन में पहुंच जाता है. ग़ौर से देखिए और सुनिए. प्रधानमंत्री सिर्फ आंदोलन का समर्थन करने वालों को शक के दायरे में नहीं ला रहे बल्कि आंदोलन के होने की ज़रूरत को ही रिजेक्ट कर रहे हैं. आखिर कोई आंदोलन तभी बड़ा होगा जब अलग-अलग लोग उसमें जाएंगे. कायदे से उन्हें आंदोलन में जाने वाले को प्रोत्साहित करना चाहिए. बेशक वे अहिंसा पर ज़ोर दे सकते हैं. लोकतंत्र में लोग घरों से नहीं निकलेंगे तो मौज किसकी होगी. क्या ऐसे समर्थकों के बग़ैर दुनिया का कोई आंदोलन संभव है. रविवार को सिंघु बॉर्डर पर इंटरनेट की सेवा बहाल कर दी गई. सोमवार को जब प्रधानमंत्री राज्यसभा में बोल रहे थे तब वहां किसान नेताओं ने सुना ही होगा.

आंदोलनजीवी होना बुरी चीज़ नहीं है. किसी भी लोकतंत्र में इनकी पहचान सम्मानित तरीके से नागरिक प्रहरी के तौर पर होनी चाहिए. ज़िलाधिकारी को सर्टिफिकेट देना चाहिए कि आपने आंदोलन में हिस्सा लिया. मान लीजिए आप एक सजग नागरिक हैं. आप महंगाई के विरोध में होने वाली रैली में भी जाते हैं और वकीलों के आंदोलन में जाते हैं, क्या आप आंदोलनजीवी परजीवी हैं? आप उस आंदोलन को और जीवंत करने जाते हैं या वहां इसलिए जाते हैं ताकि उस आंदोलन पर आप जी सकें? इन आंदोलनों में लाठी और पुलिस केस के अलावा क्या मिलता है, आखिर कोई क्यों इसके लिए आंदोलनजीवी परजीवी बनना चाहेगा? राजनीतिक‍ रैलियों में पैसे देकर लोग बुलाए जा सकते है लेकिन किसी आंदोलन में आप चले जाएं तो आंदोलनजीवी परजीवी?

25 साल की आतिका सिंह ने वकालत की पढ़ाई छोड़ जेएनयू में दाखिला ले लिया. आतिका कहती हैं कि दलित होने के नाते जीवन का बड़ा हिस्सा संघर्ष में ही गुज़रता है. कभी अपनी स्कॉलरशिप के लिए संघर्ष किया तो कभी दूसरों के लिए किया. अम्बेडकर और अन्य लेखकों को पढ़ने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि जिस सिस्टम में वो हैं उसमें अधिकतर लोग हाशिये पर हैं. आतिका महिलाओं पर हुए अत्याचार के खिलाफ आंदोलन में शामिल हुईं. नागरिकता कानून विरोधी आंदोलनों में शामिल हुईं. दिल्ली दंगों के बाद हुई हिंसा के खिलाफ आंदोलन में हिस्सा लिया. दिल्ली दंगों के बाद हिंसा के ख़िलाफ़ हुए आंदोलन में भाग लिया. कोलकाता की जाधवपुर यूनिवर्सिटी में एक छात्रा के साथ हुए यौन शोषण के आंदोलन में हिस्सा लिया. सेक्शन 377 के ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों में भी शामिल हुई हैं. रोहित वेमुला की मृत्यु के बाद हुए आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया. फ़िलहाल कृषि आंदोलन में भी बॉर्डर पर जाती हैं और आंदोलन में शामिल होती हैं. क्या आतिका आंदोलनजीवी हैं? क्या आतिका आंदोलनजीवी परजीवी हैं?

प्रधानमंत्री एक साथ न जाने कितने ही आंदोलन में शामिल होने वाले लोगों को खारिज कर देते हैं. इसमें संघ से जुड़े लोगों को आप अलग नहीं कर सकते जो अलग-अलग आंदोलनों में शामिल होने जाते हैं. वे भी कभी आंदोलनजीवी परजीवी कहलाए जा सकते हैं.

आंदोलनजीवी परजीवी कहना बता रहा है कि प्रधानमंत्री किसी आंदोलन में लोगों की भागीदारी को कैसे देखते हैं. एक बार उन्होंने कपड़ों से देखा था. उस समय देश में नागरिकता कानून के विरोध में आंदोलन चल रहा था.

प्रधानमंत्री के भाषण का वह हिस्सा चिन्ताजनक है. किसी को भी सुनते हुए पहली बार में लग सकता है कि कोई शानदार बात कही गई है. जबकि नहीं है. आप देखेंगे कि प्रधानमंत्री राज्य की तरफ से हुए ज़बरदस्ती और हिंसा के प्रदर्शन की कोई बात नहीं करते हैं. उनकी चुप्पी उन्हें उसके साथ खड़ा कर देती है. कम से कम उन्हें अपने भाषण में इस रेखा को साफ करना चाहिए था.

संयुक्त किसान मोर्चा का दावा है कि किसान आंदोलन में अब तक 214 किसानों की मौत हो चुकी है. बुजुर्ग किसानों की तकलीफ पर द्रवित प्रधानमंत्री का दिल 214 किसानों की मौत पर द्रवित होने से रह गया. यही नहीं, जब किसानों को दिल्ली आने से रोका गया, आने के रास्ते में गहरी खाई खोद दी गई, भीमकाय बोल्डर लगा दिए गए और बैरिकेड पर कंटीली तारें. दो महीने बाद जब दिल्ली की सीमाओं पर कीलें गाड़ दी गईं, कंटीली तारों का जाल बिछा दिया गया, तेरह तरह लेयर के बैरिकेड बना दिए गए और आंदोलन स्थल के आस पास इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई तब प्रधानमंत्री ने यह नहीं कहा कि क्या शास्त्री जी होते तो ऐसा करते. उन्हें कानून बनाने की चुनौती की तुलना शास्त्री जी के समय से कर दी लेकिन क्या शास्त्री जी के रहते उनके शासन का राज्य किसानों के सामने कीलें गाड़ता, कंटीली तारों का जाल बिछाता? प्रधानमंत्री के भाषणों में फूल थे लेकिन वो कागज़ के फूल थे. जो कांटे थे वो दिल्ली की सरहद पर थे.

प्रधानमंत्री ने किसी आंदोलन को देखने का एक महत्वपूर्ण वैचारिक हस्तक्षेप किया है. यह इतना साधारण हस्तक्षेप नहीं है. गोदी मीडिया जिस नज़रिए से किसानों को देख रहा था, बीजेपी के सांसद और नेता यहां तक मंत्री भी वही भाषा बोल रहे थे. उस भाषा की प्रधानमंत्री ने आलोचना नहीं की लेकिन किसान आंदोलन के एक हिस्से की उनकी आलोचना में उसी भाषा की झलक मिलने लगी. बस शब्द दूसरे थे आंदोलनजीवी परजीवी.

2012 के साल में जब निर्भया के इंसाफ के लिए यही जमात रायसीना हिल्स के सीने तक पहुंच गई थी. अव्वल तो आज यहां तक किसी को आने नहीं दिया जाएगा और लोग चले भी गए तो गोदी मीडिया के एंकर स्टुडियो से गोली मार देने के नारे लगाएंगे. यहां जो लोग आए थे वही थे जो हर तरह की नाइंसाफी के खिलाफ सड़क पर निकल आते हैं. उनके निकलने के बाद वो भी आ गए जो कभी किसी आंदोलन में नहीं गए थे. 76 दिनों से किसान दिल्ली की सीमा पर ही हैं. दिल्ली आने की इजाज़त नहीं मिली. यह सब अब सपने जैसा लगेगा. रामलीला मैदान में किसानों को आने की इजाज़त नहीं मिली लेकिन तब रामलीला मैदान में हफ्तों अन्ना आंदोलन चलता था. इस आंदोलन में हर तरह के लोग गए और वो भी जो हर तरह के आंदोलनों में जाते रहे थे. तब तो इन्हें किसी ने आंदोलनजीवी परजीवी नहीं कहा. कई जानकार तो यह भी लिखते हैं कि इस आंदोलन को संघ ने सपोर्ट किया, क्या प्रधानमंत्री के अनुसार तब संघ आंदोलनजीवी परजीवी था?

नागरिकता कानून के विरोध में जब दिल्ली में आंदोलन हो रहे थे तब उन्हें गोली मारने के नारे कौन लोग लगा रहे थे, बीजेपी के लोग लगा रहे थे. ऐसे लोगों को आज तक प्रधानमंत्री ने परिभाषित नहीं किया जिस तरह से आंदोलनजीवी परजीवी को परिभाषित किया है. यही नहीं विदेशों में मिल रहे इस आंदोलन के समर्थन को भी उन्होंने एक नया टर्म दिया. 

क्या किसान आंदोलन के पीछे विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा है? क्या हमारा किसान इतना ख़ुदगर्ज़ है कि वह अपने आंदोलन में विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा को जगह देगा? क्या हमारा किसान इतना नासमझ है कि वह FDI (foreign destructive ideology) की चपेट में आ जाएगा. तो फिर सरकार के समर्थन में ट्वीट करने वाले फिल्मकारों और खिला़डियों को क्या कहा जाए. क्या इन्हें सरकारजीवी परजीवी कहा जा सकता है? क्या इनके समर्थन को परजीवी होने की नज़र से देखना ग़लत होगा?

प्रधानमंत्री का यह भाषण आंदोलनों के इतिहास से अनजान था. ख़ाली था. विचारों की आवाजाही होती है.

वाशिंगटन में 28 अगस्त 1963 को मार्टिन लूथर किंग ने लिंकन मेमोरियल के पास नौकरी और आज़ादी के सवाल पर एक बड़ी मार्च की थी. 2 लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया था. इसी मार्च में किंग ने अपना मशहूर भाषण “I have a dream” दिया था. इस मार्च के बाद जॉन एफ़ केनेडी के प्रशासन को कांग्रेस में सिविल राइट्स पर बिल पेश करना पड़ा. मार्टिन लूथर किंग कहते थे कि वे गांधी से प्रेरित हैं. गांधी की प्रेरणा से उनका आंदोलन अहिंसक आंदोलन है. क्या केनेडी प्रशासन के लिए मार्टिन लूथर किंग का गांधी से प्रभावित होना FDI होना हो सकता है? खुद गांधी ने न जाने कितने मुद्दों पर आंदोलन किए होंगे, क्या गांधी भी आंदोलनजीवी परजीवी कहलाने लगेंगे जो दक्षिण अफ्रीका भी जाते हैं विरोध करने और चंपारण भी जाते हैं विरोध करने. 

इसलिए प्रधानमंत्री ने जो धारणा पेश की है FDI और आंदोलनजीवी और परजीवी की वो सही नहीं है. प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि वे FDI किसे कह रहे हैं. किसान आंदोलन के समर्थन में ट्वीट करने वाले विदेशी पॉप स्टार को या फिर विदेशों में प्रदर्शन करने वाले भारतीय मूल के लोगों को. प्रधानमंत्री ने यह साफ नहीं किया.

सात फरवरी को आस्ट्रेलिया के मेलबर्न में भारतीय मूल के अलग-अलग लोगों ने किसान आंदोलन के समर्थन में प्रदर्शन किया. इस प्रदर्शन में आस्ट्रोलिया के नागरिक भी शामिल हुए. यह वही तबका है जिसे चुनावों में मताधिकार देने की बात कही जा रही है. क्या इन्हें इसी शर्त पर वोटिंग का अधिकार मिलेगा कि आप केवल वोट करेंगे, भारत की नीतियों के खिलाफ बाहर रहते हुए प्रदर्शन नहीं करेंगे, तो फिर इन्हीं लोगों को प्रधानमंत्री की यात्राओं में शक्ति प्रदर्शन के लिए क्यों जुटाया जाता रहा है? 17 नवंबर 2014 को सिडनी के ऑलफ़ोन्ज़ अरीना में प्रधानमंत्री का भाषण सुनने भारतीय समुदाय के लोग गए थे. अगर वे भारत की उपलब्धि पर ताली बजा सकते हैं तो क्या वे किसी कानून के विरोध में प्रदर्शन नहीं कर सकते?

प्रधानमंत्री को अभी और साफ करना चाहिए कि विदेशी विध्वंसकारी विचारधारा से उनका क्या मतलब है? पिछले साल अमरीका में ब्लैक लाइव्स मैटर का आंदोलन हुआ. काले लोगों के साथ नाइंसाफी को लेकर दुनिया भर के लोगों ने कहा और लिखा. क्या वे सारे लोग इस परिभाषा के अनुसार परीजीवी हैं, FDI हैं जिसका मतलब है foreign destructive ideology.

आए दिन हम अखबारों में पढ़ते हैं. सरकार दावा करती है कि इतने अरब की FDI आ गई है. आज इस FDI का एक और नाम हो गया. foreign destructive ideology. तमाम आंदोलनों और राजनीतिक दलों के दस्तावेज़ FDI की आलोचना से भरे हैं जिनमें कहा गया है कि इसके दबाव में भारत के संसाधनों की लूट हो रही है. विदेशी डॉलर भी बिना विचारधारा के नहीं आता है. भाषा को समझने वाले देख रहे होंगे कि जिस FDI से सरकार अपना कॉलर ऊंचा करती है, अब उसी FDI को नया नाम दे रही है ताकि किसान आंदोलन को नीचा दिखाया जा सके. बजट की किताब का सबसे शानदार शब्द FDI परचम से पोंछा हो गया. किसान आंदोलन को समर्थन देने वाले विदेशी लोगों की आलोचना का गंदगी समझ कर साफ करने वाला पोंछा हो गया.

शब्दों का बहुत सोच समझ कर इस्तमाल करना चाहिए. जिन कृषि नीतियों की हम बात कर रहे हैं उनका उद्गम हुआ तो दूसरे देशों की धरती पर ही है. इन नीतियों से जिस बाज़ार की कल्पना पेश की जा रही है वह FDI से आई है. दूसरे देशों से आई है. उनकी खोज किसी तपोवन में किसी ऋषि मुनी ने नहीं की है. प्रधानमंत्री अपने भाषण में अनजाने में चूक कर रहे थे. ठीक इसी भाषण के पहले हिस्से में कहते हैं कि आज उन्हें कहा जा रहा है कि अमेरिका के दबाव में नीति बन रही है, यही बात शास्त्री जी के ज़माने में कही जाती थी.

कृषि कानून विदेशी दबाव में लाए जा रहे हैं इस आलोचना के बचाव में प्रधानमंत्री शास्त्री जी के समय का हवाला देते हैं लेकिन इसी भाषण में आगे जाकर आंदोलन के समर्थकों को विदेशी विधवंसकारी विचारधारा का हिस्सा कह देते हैं. हालांकि मूल आलोचना थी कि कृषि कानून दो चार उद्योगपतियों के फायदे के लिए लाए गए हैं. उसका जवाब न दे कर अमरीका वाले आरोप का जवाब देते हैं. प्रधानमंत्री एक राजनेता हैं. वो जानते हैं कि हर आंदोलन चाहता है कि व्यापक हो. दूसरे भी उससे जुड़ें. narendramodi.in पर एक लेख है जिसका शीर्षक है “नवनिर्माण आंदोलन (1974): जब छात्र शक्ति अस्वस्थ वातावरण से परेशान हुई!”

1973 तक, नरेन्‍द्र मोदी सामाजिक सक्रियता में गहरी रुचि प्रदर्शित कर चुके थे और पहले से ही महंगाई और आम आदमी को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दों के खिलाफ कई आंदोलनों में हिस्सा ले चुके थे. एक युवा प्रचारक और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के सहयोगी के रूप में, नरेन्‍द्र नवनिर्माण आंदोलन में शामिल हो गए और सौंपें गए कार्यों का उन्होंने कर्तव्यपरायणता के साथ प्रदर्शन किया. नवनिर्माण आंदोलन हर मायने में एक जन आंदोलन था जैसे समाज के सभी वर्गों से आम नागरिक एक आवाज के रूप में उठ खड़े हुए थे.

हमने मनीषी जानी से बात की जो गुजरात के नवर्निमाण आंदोलन से जुड़े रहे हैं. उनका कहना है कि आंदोलनजीवी परजीवी के हिसाब से देखें तो वह आंदोलन सिर्फ छात्रों का ही बन कर रह जाता. जबकि उस आंदोलन में न सिर्फ दूसरे लोग जुड़े बल्कि दूसरे मुद्दे भी शामिल होते चले गए.

क्या उस वक्त नव निर्माण में शामिल साहित्यकारों को आंदोलनजीवी परजीवी कहा जा सकता है? इन मनीषी जानी ने सिनेट में एक प्रस्ताव रखा था कि पढ़ाई का कोई मतलब नहीं रहा, छात्रों को समाज के नव निर्माण का काम करना चाहिए. उनका प्रस्ताव गिर गया लेकिन उसी वक्त पटना यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में जयप्रकाश नारायण भाषण देते हैं कि बच्चों की पढ़ाई का कोई मतलब नहीं उन्हें समाज के निर्माण में जुट जाना चाहिए. मनीषी जानी और अन्य जेपी को अहमदाबाद बुलाते हैं. साल 1974 था और 11 फरवरी का दिन था. जेपी अहमदाबाद आए. क्या जेपी आंदोलनजीवी परीजीवी कहे जा सकते हैं?

कल छात्रों की फीस बढ़ जाती है. नौकरी नहीं मिलती है. वे आंदोलन करते हैं. पुलिस उन्हें मारती है. क्या आप चुप रहेंगे? क्या आप उन्हें समर्थन देने नहीं जाएंगे? जाएंगे तो आंदोलनजीवी और परजीवी कहलाएंगे? प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश आंदोलनजीवी लोगों से बचे. जो आंदोलनजीवी हैं वो आंदोलन के बिना जी नहीं सकते हैं और आंदोलन को जीने के लिए रास्ते खोजते रहते हैं. हमें ऐसे लोगों को पहचानना होगा. क्या यह वाक्य कहीं से भी लोकतंत्र को समृद्ध करता है? किसी भी आंदोलन में जाना कब से गुनाह हो गया. प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कई दावे किए. बताया कि कई सारे फैसले छोटे किसानों के हक में किए गए हैं. यूरिया को लेकर भी कहा हमारी सरकार ने यूरिया की नीम कोटिंग को 100% किया है ताकि ग़रीब से ग़रीब किसान तकि यूरिया पहुंच सके.

सिंघु, टिकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन व्यवस्थित हो चुका है लेकिन अलवर के शाहजहांपुर में भी किसानों का आंदोलन लंबे समय से चल रहा है. राजस्थान में हुई महापंचायतों के कारण इस सीमा पर किसानों की संख्या बढ़ने लगी है. परिमल सोमवार को शाहजहापुर में थे. परिमल ने बताया कि हरियाणा बॉर्डर से सटे राजस्थान के अलवर के शाहजहांपुर में भी किसान पिछले 13 दिसंबर से आंदोलन कर रहे हैं. यहां मुख्य तौर पर राजस्थान के किसान हैं. 26 जनवरी के बाद जगह जगह राजस्थान में हुई महापंचायत के चलते अब दो तीन दिनों से लगातार किसानों के जुटने का सिलसिला जारी है. रविवार रात राजस्थान के दौसा, सवाई माधोपुर, भरतपुर, अलवर, करौली आदि जगहों से आए हैं. दो तीन दिनों से ज़्यादातर जो लोग आ रहे हैं उसमें मीणा समाज के किसान प्रमुख हैं. इसके अलावा गुर्जर समाज, माली समाज, सैन समाज, मुस्लिम हैं. राजस्थान के अलवर के शाहजहांपुर में जयपुर नेशनल हाईवे पर करीब 2 किलोमीटर में किसानों का ये डेरा है.

दरअसल जो आंदोलन में जाते हैं वो लोकतंत्रजीवी हैं. उनके जाने से लोकतंत्र ज़िंदा होता है. दुनिया का हर लोकतंत्र लोकतंत्रजीवी की राह देखता है कि वह कब आएगा इंसाफ की आवाज़ उठाएगा और लोकतंत्र को ज़िंदा करेगा. लोकतंत्र में परजीवी वो होते हैं जो आंदोलन के रास्ते राजनीति में आते हैं और आंदोलन के रास्तों को बंद कर देते हैं.

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