अमेरिकी ट्रेज़री विभाग ने शनिवार को विमान कंपनियों की मदद के लिए 9.5 अरब डॉलर जारी किए हैं. यह पैसा पे-रोल सपोर्ट प्रोग्राम के तहत जारी हआ है. अभी तक अमेरिकी विमान कंपनियों के लिए 12.4 अरब डॉलर जारी हो चुका है ताकि कोविड-19 के आघात से घायल इन कंपनियों को सहारा मिल सके. इसके तहत 10 बड़ी विमान कंपनियों और 83 छोटी विमान कंपनियों को सहायता राशि दी गई है.
इस पैसे से विमान कंपनियां अपना लोन चुकाएंगी लेकिन शर्त होगी कि 30 सितंबर तक वे अपने कर्मचारियों को काम से नहीं निकालेंगी और न ही उनकी सैलरी कम करेंगी. साथ ही ये कंपनियां न तो अपने शेयर खरीद सकेंगी और न ही शेयरों पर दिए जाने वाले लाभांश का भुगतान कर सकेंगी.
अमेरिका में एयर लाइन कंपनियों की मांग में 95 प्रतिशत की कमी आ गई है. लोगों ने हवा में उड़ना बंद कर दिया है. इसमें सुधार की संभावना भी नहीं दिख रही है.
भारत में भी कई लोगों की नौकरियां गई हैं, सैलरी कट गई है. इससे उनका नियमित खर्च भी दबाव में आ गया है. मध्यम वर्ग को समझ नहीं आ रहा है कि क्या करे, कैसे परिवार चलाए. क्या भारत सरकार में इस तरह के कदम उठाने की क्षमता है? इसका जवाब नहीं है. वैसे लगता नहीं कि भारत सरकार के पास क्षमता है, न ही इस तरह की मांग उठी है. यही फर्क है भारतीय मध्यम वर्ग और अमेरिकी मध्यम वर्ग में. क्या भारतीय न्यूज़ चैनलों में नौकरियों के जाने, सैलरी कम किए जाने को लेकर लगातार खबरें हैं? आप टीवी देखने वाले दर्शक ही बता सकते हैं.
क्या मध्यम वर्ग अपनी व्यथा कहने की शक्ति जुटा पाएगा, क्या वह आईटी सेल के हमले के लिए तैयार है? मेरा अभी भी मानना है कि लोगों को अगर व्हाट्सऐप मीम की सप्लाई होती रहे तो वह नौकरी और सैलरी का हर्जाना नहीं मांगेंगे. वरना अमरीका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन से तमाम खबरें दर्शकों और पाठकों तक पहुंच रही हैं इसके बाद भी मध्यवर्ग ऐसी बातों से ज्यादा एक संप्रदाय के प्रति नफ़रत वाली स्टोरी और अफवाह को फार्वर्ड कर रहा है. वह ऐसी खबरों को फार्वर्ड तक नहीं करता जिसमें दिल्ली में अय्याशी के लिए खर्च हो रहे 20,000 करोड़ के प्रोजेक्ट को रद्द कर लोगों के हाथ में पैसे देने की बात हो रही है.
मैं यह बात गंभीरता से भी लिख रहा हूं. लाखों लोगों की नौकरी गई. न तो इसका डेटा है और न ही डेटा दिए जाने की मांग है. मिडिल क्लास ने अपनी बेचैनियों को बर्दाश्त किया है. वह किसी से मांग नहीं कर रहा है कि डीए काटे जाने या सैलरी काटे जाने की स्टोरी क्यों नहीं चल रही है. और मैं इस चरित्र की ईमानदारी से तारीफ करता हूं. आसान नहीं होता है. अपनी सैलरी और नौकरी गंवाकर भी व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी के मीम में खोए रहना. यही वो भारत है जो नया है. जिसका अपना एक नेशनल कैरेक्टर है.
मेरे ऊपर भी मिडिल क्लास दर्शकों का दबाव नहीं है कि ऐसी स्टोरी दिखाऊं. मोदी विरोध में जो विश्लेषक इस सच्चाई को नहीं देख पा रहे हैं, वो दुखी ही रहेंगे. हमारा समाज बदल गया है. सांप्रदायिकता एक अलग नागरिक का निर्माण करती है. उसे समझने का किसी के पास कोई समाजशास्त्रीय पैमाना नहीं है. यहीं पर अकादमिक वाले विद्वान भी फेल हो जाते हैं.
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