राहुल गांधी ने कहा भारत में तानाशाही

लोकतंत्र ख़त्म हो गया है, यह राहुल गांधी का सवाल नहीं है, पूरी दुनिया का है। गिन कर देखिए कि दुनिया भर में पिछले दस वर्षों में कितनी तेज़ी से लोकतंत्र कुचला गया है।

नई दिल्ली:

इसमें क्या लगाने की ज़रूरत नहीं है कि क्या भारत में लोकतंत्र समाप्त हो चुका है? और क्या भारत तानाशाही की तरफ बढ़ रहा है? क्या लगाने से पहले आप दुनिया की तरफ देखिए क्या हो रहा है। लोकतंत्र खत्म हो रहा है। पुतिन और शी जिनपिंग जैसे नेताओं ने संविधान बदल कर आजीवन कुर्सी अपने लिए हथिया ली है। टेक्नालजी के इस्तमाल से आपकी पहचान और निजी जानकारी हासिल की जा रही है। मीडिया को खत्म कर दिया गया है।कोर्ट से लेकर चुनाव की संस्थाएं एक व्यक्ति के नियंत्रण में चली गई हैं। लोकतंत्र ख़त्म हो गया है, यह राहुल गांधी का सवाल नहीं है, पूरी दुनिया का है। गिन कर देखिए कि दुनिया भर में पिछले दस वर्षों में कितनी तेज़ी से लोकतंत्र कुचला गया है। हम लोकतंत्र के खात्मे वाली बात पर लौटंगे लेकिन पहले देखते हैं कि विपक्ष के साथ क्या हो रहा है। 


काले कुर्ते में प्रियंका गांधी जब पुलिस का घेरा तोड़ते हुए, उनसे खुद को छुड़ाते हुए आगे बढ़ रही थीं, तब बहुत दूर तक नहीं चल सकीं। पुलिस के घेरे ने उन्हें रोक लिया। लिहाज़ा प्रियंका  वहीं पर बैठ गईं लेकिन उसके बाद महिला पुलिस ने उन्हें उठाया और पुलिस की कार में बिठा दिया फिर वहां से पुलिस उन्हें ले गई। प्रियंका के साथ साथ कांग्रेस मुख्यालय से सचिन पायलट सहित कई नेता हिरासत में ले लिए गए।इसी तरह राहुल गांधी भी काली कमीज़ में सांसदों के साथ मार्च पर निकले, संसद भवन से राष्ट्रपति भवन की तरफ मार्च पर निकले, महंगाई और जीएसटी के खिलाफ बैनर लेकर तो राहुल और अन्य सांसदों को भी हिरासत में ले लिया। वेणुगोपाल से लेकर गौरव गोगई को पुलिस इस तरह टांग कर बस में ले गई। राहुल गांधी भी विजय चौक के पास धरने पर बैठ गए लेकिन बाद में उन्हें भी बस में बिठा दिया गया और हिरासत में ले लिया गया। आज महंगाई बेरोज़गारी और जीएसटी के खिलाफ कांग्रेस ने देश भर में प्रदर्शन किया है। धारा 144 लगी थी, इसलिए सांसदों को आगे नहीं बढ़ने दिया गया। वक्त बदल गया है। कांग्रेस मुख्यालय के बाहर ही पुलिस ने घेरा बंद कर दी गई थी । संसद भवन से बाहर विपक्ष प्रदर्शन करता है तो धारा 144 लग जाती है और जब सत्ता पक्ष सांसदों की बुलैट रैली का आह्वान करता है तो सुरक्षा के इंतज़ाम किए जाते हैं। लाल किला से लेकर …की लंबी रैली होती है इसे रोकने की ज़रूरत नहीं समझी जाती है। लोकतंत्र में प्रदर्शन करने की जगह पर किसका अधिकार बेरोक-टोक है यह आप आज नहीं देखना चाहते कोई बात नहीं, बीस साल बाद देखना ही पड़ेगा। 

अब आते हैं उन बातों पर जिसके बारे में राहुल गांधी ने प्रेस कांफ्रेंस में बात की। क्या भारत में लोकतंत्र समाप्त हो गया है। बीते दिनों की याद बन कर रह गया है? राहुल गांधी ने कहा कि जब यूपीए की सरकार थी तब संस्थाओं पर यूपीए की सरकार का नियंत्रण नहीं था। इसलिए विपक्ष खुल कर प्रदर्शन करता था लेकिन आज विपक्ष ही नहीं, किसी के लिए भी सरकार से सवाल करना मुश्किल होता जा रहा है। क्या यह आज का सच नहीं है? भारत और दुनिया का सच नहीं है?

यूपीए के समय संस्थानों पर कितना नियंत्रण था और इस समय क्या हाल है, इसका तुलनात्मक अध्ययन हो सकता है।यह ऐसा काम है कि इसे न तो एक व्यक्ति कर सकता है और न एक कार्यक्रम में किया जा सकता है। यूपीए के समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि CBI पिंजड़े में बंद तोता है, फिर नवंबर 2014 में सीबीआई चीफ रंजीत सिन्हा को 2 जी की जांच से अलग कर दिया। लेकिन 2 जी घोटाला क्या सही था? इस घोटाले में सीएजी के चीफ विनोद राय ने आरोप लगाया था कि 2 जी स्पेक्ट्रम की नीलामी से देश को 1 लाख 76 हज़ार करोड़ का आरोप लगाया लेकिन इतना पैसा आज तक न साबित हुआ और न बरामद हुआ। हाल ही में 5 जी की नीलामी हुई, पहले दावा किया गया कि पांच लाख करोड़ आएगा आया डेढ़ लाख करोड़ से भी कम, इस पर कोई बात नहीं होती है। 

विनोद राय ने संजय निरुपम पर आरोप लगा दिया था कि उन्होंने विनोद राय से कहा था कि 2 जी घोटाले से मनमोहन सिंह का नाम हटा दें। संजय निरुपम ने मानहानि का केस कर दिया। तो विनोद राय ने माफी मांग ली। बकायदा हलफनामा लिख कर कहा कि संजय निरुपम के खिलाफ जो आरोप लगाया था वो तथ्यात्मक रुप से गलत है। 

UPA के समय पौने दो लाख करोड़ के घोटाले के आरोप लगे, इस घोटालों का कुछ पता नहीं। तो कांग्रेस के समय संस्थाओं के इस्तेमाल को लेकर दो सवाल हैं। एक कांग्रेस ने किस तरह इस्तेमाल और दूसरा क्या उन संस्थाओं के भीतर ऐसे भी लोग थे, जो कांग्रेस के खिलाफ इस्तेमाल कर रहे थे?विनोद राय जैसे लोगों की भूमिको को समझे बगैर हम UPA के दौर में संस्थाओं के खेल को नहीं समझ सकते। रही बात प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ CBI के इस्तेमाल की तो उस पर भी दो आरोप लगते हैं।यही कि कांग्रेस ने केवल जांच की, पूछताछ की,मामले को लटकाया,लेकिन अंजाम तक नहीं पहुंचाया। दूसरा प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर खुद नरेंद्र मोदी भी कहा करते थे कि कोई उन्हें CBI से डराने की कोशिश न करे, जैसे आज राहुल कह रहे हैं। 

क्या प्रधानमंत्री बनने के बाद इन एजेंसियों की हालत सुधर गई? या इनका राजनीतिक इस्तेमाल और बढ़ गया? CBI की जगह ED आ गई है। UPA के दस वर्षों में ED ने 112 छापे मारे,NDA के 8 वर्षों में छापों की संख्या 3000 हो गई है। जब नोटबंदी से काला धन मिट ही गया था तब भी इतने छापे मारने पड़ रहे हैं, या मिटा ही नहीं था वो खेल कुछ और था। विपक्ष सारे आरोप हवा में नहीं लगता  कि ED का इस्तमाल कर सरकार गिराई जा रही है, विधायक तोड़े जा रहे हैं, केवल विपक्षी नेताओं को ही निशाना बनाया जा रहा है। ED के वरिष्ठ अधिकारी इस्तीफा देकर बीजेपी से चुनाव लड़ते हैं। बेशक CBI की बात इन दिनों सुनाई नहीं देती है लेकिन CBI को लेकर मोदी सरकार के समय एक बड़ी घटना हुई थी। 25 अक्तूबर 2018 को क्या हुआ था, सर्च कीजिए। उस वक्त हमारे सहयोगियों ने भी इसे कवर किया था लेकिन हम यह प्रसंग इकोनमिक टाइम्स से सुना रहे हैं 

आधी रात के बाद डेढ़ बजे दिल्ली पुलिस ने CBI का मुख्यालय घेर लिया।CBI चीफ आलोक वर्मा अपने नंबर टू राकेश अस्थाना को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार करना चाहते थे। उस समय केंद्रीय सतर्कता आयोग ने अस्थाना पर लगे आरोपों को गंभीर पाया था और सरकार को राय दी कि आलोक वर्मा और अस्थाना दोनों को हटा कर स्वतंत्र जांच हो। उसी दिन कैबिनेट नए सीबीआई चीफ का फैसला कर लेती है। नए चीफ मुख्यालय जाकर चार्ज ले सकें इसके पहले दिल्ली पुलिस ने मुख्यालय को घेर लेती है। एम नागेश्वर राव ने चार्ज लिया औऱ आलोक वर्मा और अस्थाना दोनों के दफ्तरों को सील कर दिया। यह कहानी आज भी रहस्य की तरह दर्ज है। आरोपों का क्या हुआ, फाइलों का क्या हुआ, कुछ आप भी पता करें।
इसलिए राहुल गांधी ने जो आरोप लगाए कि भारत में लोकतंत्र अतीत का हिस्सा बन चुका है। हर संस्थाओं पर संघ का कब्ज़ा हो चुका है हैं, यह वो आरोप है जो केवल राहुल ने नहीं लगाए हैं। राहुल से बहुत पहले  8 जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जज बाहर आ गए और मीडिया से कहने लगे कि उन्हें मजबूर होकर बाहर आना पड़ा है ताकि देश को बताया सकें कि सुप्रीम कोर्ट में सब ठीक नहीं चल रहा है।जजों ने कहा था कि किसी भी लोकतंत्र के होने का सबूत यह है कि वहां की न्यायपालिका आज़ाद है कि नहीं। क्या यह सवाल आप भूला देंगे, या यह खत्म हो गया, इन्हीं में से एक थे जस्टिस रंजन गोगोई, जो चीफ जस्टिस बनते हैं, और फिर रिटायर होते ही राज्य सभा के सदस्य मनोनित किए जाते हैं। क्या यह लोकतंत्र के मज़बूत होने के निशान हैं? 


भारत की संस्थाओं में एक अजीब सी खामोश बेचैनी है। अफसर जानते हैं मगर बोल नहीं पाते। अखबारों में भीभीतर की खबरें आफ रिकार्ड भी छपनी बंद हो गई हैं। जब आफ रिकार्ड बंद हो जाए तब यह संकेत है कि लोकतंत्र का शरीर जर्जर हो चुका है। इन दिनों कई लोग हमें मैसेज करते हैं कि बिना उनकी अनुमति के सैलरी से तिरंगा के लिए पैसा काट लिया गया मगर वे कैमरे पर बोल नहीं पाते। डर जाते हैं।उनकी चुप्पी भी वही कह रही है जो राहुल गांधी कह रहे हैं। वो लोग भी डर रहे हैं जो कभी राहुल को वोट नहीं देंगे न उनके समर्थक हैं लेकिन क्या ये गज़ब नहीं है कि राहुल से नफरत करने वाले और राहुल दोनों एक ही बात कर रहे हैं।एक चुप होकर कह रहा है, एक बोल रहा है कि लोकतंत्र खत्म हो गया है।आल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक ज़ुबैर के मामले में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने जो लिखा है क्या वह इशारा नहीं कर रहा है कि एजेंसी का इस्तेमाल किस तरह से हो रहा है.
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस ए एस बोपन्ना ने ज़ुबैर के मामले में फैसला सुनाते हुए लिखा है कि जो तथ्य दिए गए हैं, उससे साफ दिख रहा है कि याचिकाकर्ता यानी ज़ुबैर के खिलाफ क्रिमिनल जस्टिस के तंत्र का इस्तेमाल किया गया है। इस बात के बावजूद कि एक ही ट्विट को लेकर अलग अलग FIR दर्ज हुई, याचिकाकर्ता यानी जु़ुबैर को लेकर देश भर में अलग-अलग जांच और पूछताछ होती है। नतीजा यह हुआ कि इन मामले में खुद के बचाव के लिए, यानी ज़मानत दायर करने, उन ज़िलों में जाने के लिए कई वकील रखने पड़े। हर जगह आरोप एक ही था मगर अलग अलग अदालतों में जाना पड़ा। इसका नतीजा यह निकला कि वह यानी ज़ुबैर आपराधिक प्रक्रियाओं के अंतहीन चक्र में फंस गया जहां प्रकियाएं ही अपने आप में सज़ा हो जाती हैं।
चीफ जस्टिस एन वी रमना का बयान तो पिछले महीने का है कि चुनौतियां बहुत बड़ी हैं। प्रक्रिया ही सज़ा हो गई है। किसी को मनमाने तरीके से गिरफ्तार कर लो और ज़मानत मिलना मुश्किल कर दो। जस्टिस एस के कौल और जस्टिस एम एम सुंदरेश ने कहा है कि पुलिस बेल न मिले इसी में लगी रहती है। अनावश्यक रुप से गिरफ्तारियां हो रही हैं। 
जस्टिस कौल और जस्टिस सुंदरेशन ने लिखा कि लोकतंत्र में ऐसा कभी नहीं लगना चाहिए कि यहां पुलिस का राज है। पुलिस का राज लोकतंत्र की सोच के ठीक उल्टा है। 


क्या यह लोकतंत्र के खत्म होने के संकेेत नहीं हैं। क्या सरकार का यह कह देना काफी है कि कानून अपना काम कर रहा है। कानून पर भरोसा करना चाहिए। जब सरकार की तरफ से यह कहा जाए तो देखा जाना चाहिए कि भरोसा का क्या मतलब है, किसी को मनमाने तरीके से जेल में डाल दिया जाए और कहा जाए कि आप भरोसा कर रहे हैं? अवैध रुप से NSA लगाया गया है क्या तब कानून ने काम किया था? इसलिए बात भरोसा की नहीं है, बात हो रही है, कानून के गलत इस्तेमाल की, जिसकी जवाबदेही सरकार की है। आपातकाल का ज़िक्र हो जाता है। बिल्कुल आपातकाल इतिहास का क्रूर पन्ना है लेकिन यह कही नहीं लिखा है कि उसके बाद आपातकाल के हालात पैदा नहीं होंगे। हिटलर की आत्महत्या के कई दशक बाद भी दुनिया में तानाशाही पसर रही है। आपातकाल का नाम लेकर आज के आपातकाल से नहीं बचा जा सकता है। 
“आपातकाल में कौन लोकतंत्र की हत्या कियाजिनकी पार्टी में लोकतंत्र नहीं है वो लोकतंत्र की बात करते हैंजिन लोगो ने उनकी पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने की बात की उनके साथकांग्रेस ने क्या किया कानून अपना काम कर रहा है, हम इस प्रक्रिया में कोई हस्तक्षेप नहीं करते है। वो अदालत में भी गए थे लेकिन अदालत ने खारिज कर दिया। उन्हें देश के कानून अदालत में कोई भरोसा नहीं है। उन्हें डर किआ बात का है अगर कुछ गलत नहीं किया तो बरी हो जाएंगे। मोदी सरकार को दोष देना सही नही है।”


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच जस्टिस जे पी पारदीवाला औऱ जस्टिस सूर्यकांत ने ने नूपुर शर्म के मामले में कहा कि उन्हें गिरफ्तार नहीं किया गया है, इसका मतलब ही है कि वीआईपी ट्रीटमेंट मिल रहा है। जो माहौल बिगड़ा है उसके लिए नूपुर शर्मा ज़िम्मेदार हैं। इस टिप्पणी के विरोध में 15 पूर्व जजों और 77 पूर्व आई ए एस अफसरों ने सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिखा और कहा कि ऐसी टिप्पणी नहीं करनी चाहिए थी। जिस नूपुर शर्मा को खुद बीजेपी हटा चुकी है,उसके समर्थन में रिटायर्ड जज सुप्रीम कोर्ट को पत्र लिख रहे हैं। ये रिटायर्ड जज ज़ुबैर के समर्थन में क्यों नहीं लिख सके? क्या सरकार ने इन पूर्व जजों को ज्ञान दिया कि आप कानून का सम्मान करें?

 
यह खबर अक्तूबर 2018 की है। सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर फैसला दिया। इस फैसले के खिलाफ बीजेपी सड़कों पर आंदोलन करने लगी। केरल सरकार ने जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करवाने की पहल की तो अमित शाह ने चुनौती दे डाली कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू कराने की कोशिश न करें। क्या तब अमित शाह कानून और कोर्ट में विश्वास व्यक्त कर रहे थे? क्या यह संकेत नहीं है कि लोकतंत्र खतरे में है। 
अमित शाह ने कहा है कि कोर्ट को ऐसे आदेश नहीं देने चाहिए जो लागू न हो और एक राज्य सरकार को चुनौती दी कि आप कोर्ट के आदेश क्यों लागू कर रहे हैं। क्या अमित शाह को कोर्ट के फैसले पर विश्वास नहीं करना चाहिए था? लोकतंत्र के खतरों को समझने के लिए मेहनत करनी पड़ती है।मीडिया ने विपक्ष को गायब कर दिया है।

गोदी मीडिया ने विपक्ष विरोधी पत्रकारिता का आविष्कार किया है। वह विपक्ष पर हमले करता है, सरकार को देखते ही उसके मन में लड्डू फूटने लगते हैं। आप केवल 2019 के चुनाव या किसी भी चुनाव के दौरान हिन्दी अखबारों का एक अध्ययन करा लीजिए। केवल इतना गिनवा लीजिए कि बीजेपी से जुड़ी कितनी खबरें छपी हैं, विपक्ष से जुड़ी कितनी खबरें। पहसे पन्ने पर बीजेपी की खबर कैसे छपती है और विपक्ष की खबर छपती भी है या नहीं। हर चुनाव में विपक्ष को गायब कर दिया जाता है।आम दिनों में भी यही होता है।क्या क्या यह सच नहीं है कि प्रधानमंत्री मोदी ने आठ साल से एक भी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं की है। 
प्रधानमंत्री बनने के बाद जब दिवाली मिलन पर बीजेपी के दफ्तर गए, सवाल की जगह सेल्फी ने ले ली। जब सेल्फी के लिए जा सकते हैं तो खुली प्रेस कांफ्रेंस में क्यों नहीं आ सकते, वैसे भी प्रधानमंत्री कहते हैं कि भारत मदर आफ डेमोक्रेसी है, तो मदर आफ डेमोक्रेसी के सबसे बड़े नेता प्रेस कांफ्रेंस क्यों नहीं करते हैं?  फर्ज़ कीजिए कि मनमोहन सिंह ने किसी एक्टर को बुलवा कर पूछवाया होता कि आप आम कैसे खाते हैं तब जनता क्या करती, बीजेपी क्या करती? 

हाल ही में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ। राष्ट्रपति चुनी गईं, पूरे देश ने जश्न मनाया लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान और चुने जाने के बाद अभी तक उनकी कोई विस्तृत यानी खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं हुई है। प्रधानमंत्री की आजतक खुली प्रेस कांफ्रेंस नहीं हुई है। क्या इसे लोकतंत्र की परिभाषा से अब हटा दिया गया है?
2014 में मनमोहन सिंह पत्रकारों के बीच आए थे, खुली प्रेस कांफ्रेंस हुई थी और लाइव जवाब देते हुए देखा गया था।बेशक समय सीमित था लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सबके बीच आए थे।उस रोज़ उन्होंने एलान किया कि दस साल प्रधानमंत्री के पद पर रह गए हैं, अब उम्मीदवार नहीं हैं।पत्रकारों के नाम सूचना प्रसारण मंत्री ने ही लिए थे मगर सवालों पर रोक नहीं थी और न पहले से तय थे।इसमें वो पत्रकार भी सवाल पूछ रहे हैं जिनमें से कुछ तो आज ट्विटर पर एक लाइन नहीं लिख सकते कि प्रधानमंत्री मोदी को भी इस तरह की खुली प्रेस कांफ्रेंस करनी चाहिए। मनमोहन सिंह ने दो बार प्रेस कांफ्रेंस की, दो बार संपादकों से बातचीत की।यह संख्या बहुत अच्छी नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने तो इसे शून्य पर पहुंचा दिया है। (विजुअल चेंज इन) मनमोहन सिंह विदेश यात्रा पर अपने साथ पत्रकारों को लेकर जाते थे। आप प्रधामंत्री के जहाज़ के भीतर का हाल तक देख सकते थे।मोदी सरकार ने अपने विमान से पत्रकारों को ले जाना बंद कर दिया। क्या यह अच्छा हुआ? क्या इससे लोकतंत्र को फायदा हुआ?


लोकतंत्र किसी एक इमारत में नहीं रहता कि उस इमारत के ढहते ही आपको दिख जाएगा। बल्कि इसे खत्म होने की प्रक्रिया विशाल क्षेत्रों में फैली हुई थी। आपको पता भी नहीं चलता कि कहां कहां से खत्म हो रहा है। गोदी मीडिया का एक और पैटर्न नोट कीजिएगा। सरकार से सवाल पूछना गायब है। सारा कवरेज और सवाल विपक्षी दलों की राज्यों से है। इसलिए आज कांग्रेस ने जो कहा है और कांग्रेस मुख्यालय के बाहर जिस तरह से पुलिस बीच बीच में घेरा बंदी करने पहुंच जाती है, ठीक है कि जनता का विपक्ष में भरोसा नहीं लेकिन क्या लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका भी समाप्त कर दी जाए? 
प्रधानमंत्री भारत को लोकतंत्र की मां कहने लगे हैं, हाल ही में जो बाइडन के साथ लोकतंत्र को बचाने के लिए उन्होंने एक समझौता पत्र पर दस्तखत किया है। कई देश इसमें शामिल हैं>दो उदाहरण देना चाहूंगा ताकि आप समझ सकें कि आज प्रदर्शन करने पर कितने तरह के अंकुश हैं और यूपीए के समय जनता आंदोलन का बैनर लेकर कहां तक पहुंच जाती थी.
यह रायसीना हिल्स है। निर्भया रेप केस के बाद दिल्ली की जनता सड़कों पर आ गई थी। उसने तब नहीं पूछा था कि विपक्ष कहां है। वह खुद आ गई थी। जंतर मंतर से लेकर राजपथ पर जनता भर गई थी। दिल्ली की लड़कियों ने इस जगह पर अपना कब्ज़ा जमा लिया. पुलिस पानी की बौछारें करती रह गई मगर लोगों को नहीं हटा सकी। उसी तरह दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना आंदोलन के नाम पर कितना लंबा आदोलन चला। लोग तिरंगा लेकर पहुंचा करते थे। दिन रात यहीं जमा करते थे। बेशक बाबा रामदेव पर पुलिस ने लाठीचार्ज कर गलत किया था जब उन्हें स्त्री के वेष में भागना पड़ा था। मगर तब कोई चुप नहीं रहा, मीडिया से लेकर आम लोगों ने सरकार से खूब सवाल किए थे। शायद ही कोई होगा जो बाबा रामदेव को पिटता देख चुप रहा हो
2020 के नवंबर में जब किसान दिल्ली की सीमाओं पर आए तो पहले दिन से गोदी मीडिया ने इन्हें आतंकवादी कहना शुरू कर दिया।क्या तब सरकार ने कहा कि ये अन्नदाता है, आतंकवादी नहीं।गोदी मीडिया देश के अन्नदाता को आतंकवादी न कहे? जब मीडिया जनता को ही आतंकवादी कहने लगे तब इसका मतलब यही है कि मीडिया लोकतंत्र का हत्यारा बन चुका है।
अखबार और टीवी के ज़रिए लोकतंत्र को पहले भी कुचला गया है, रवांडा में तो रेडियो के पत्रकार ने इतनी हिंसा फैलाई कि लोगों ने ही लाखों लोगों को मार दिया।कभी ऐसा हुआ था कि किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने के लिए सड़क खोद दिए गए , बोल्डर लगा दिए गए, कटेंनर की दीवार खड़ी कर दी गई।और यह जो कीले बिछाईं गईं, कांटों के तार लगाए, आप भूल सकते हैं और भूल भी जाएंगे लेकिन क्या इन कंटेनरों, कीलों और तारों के ज़रिए सत्ता ने बताने की कोशिश नहीं कि अब जनता की कोई हैसियत नहीं रही? क्या आप या आपके जानने वालों ने यह भाषा नहीं बोली थी कि किसान नहीं आतंकवादी है। यही, यही तो निशान है कि तानाशाही की भाषा जनता ने सीख ली है।
यह समय दुनिया भर में लोकतंत्र के खत्म होने का है। तभी तो लोकतंत्र को बचाने और मज़बूत करने के लिए हाल ही में  मर्ज़ी आपकी आपको नहीं दिखता है तो न दिखे। लेकिन जब भी आप सड़कों पर उतरेंगे आपको उस दिन दिखेगा जब कोई कवर नहीं करेगा, रिपोर्ट नहीं लिखी जाएगी और चर्चा नहीं होगी। 

इनमें से किसी के लिए लोकतंत्र और मीडिया का खत्म होना पहला से लेकर आखिर तक का प्रश्न नहीं है फिर भी बिहार में शिक्षक पात्रता की परीक्षा पास कर ये नौजवान जब हड़ताल पर हैं तो लोकतंत्र का ही फर्ज़ निभा रहे हैं। लगातार आंदोलन के बाद भी इनकी बहाली नहीं हो रही है। दावा करते हैं कि एक लाख अभ्यर्थी भूख हड़ताल करेंगे। लिख कर दे सकता हूं कि इनमें से आधे मुझे गाली देने वाले हैं लेकिन उससे लोकतंत्र का सवाल मिट तो नहीं जाता है

यह मध्य प्रदेश का इंदौर है।तिरंगा लेकर आए इन युवाओ की बेचैनी देखिए।  इनमें से भी आपको आधे से ज्यादा रवीश कुमार और मुझसे नफरत करने वाले मिल जाएंगे लेकिन क्या ये लोकतंत्र का इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं। जब मीडिया को कुचला जा रहा था,तब गोदी मीडिया का साथ दिया होगा, लेकिन जब कवरेज कराना होता है तो हमें पत्रकारिता की याद दिलाते हैं। जब भी लोकतंत्र खत्म होता है तो उसमें जनता का भी साथ और हाथ होता है। 2019 से मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग ने रिज़ल्ट नहीं निकाला है। वजह जो भी रही है ज़िंदगी तो इनकी बर्बाद हुई। 

लोकतंत्र को लेकर हमेशा चौकस होना पड़ता है। देश एक दल का नहीं होता है। मगर एक दल चाहे तो अपने समर्थकों के बल पर देश को दलदल में बदल दे। हालत ये हो गई है कि महिलाएं पंचायत का चुनाव जीत रही हैं और उनके पति और देवर शपथ ले रहे हैं। यह कैसे हो जाता है, क्या यह मज़ाक नहीं है। 

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इस एपिसोड को वीकेंड में दोबारा से देखिएगा, यू ट्यूब पर प्राइम टाइम के सारे एपिसोड मौजूद हैं। आज जो भी पत्रकारिता कर रहा है वो इस बात के लिए भी लड़ रहा है कि उसका काम लोगों तक पहुंचे क्योंकि गोदी मीडिया ही हर जगह पहुंच जा रहा है। लोकतंत्र की लड़ाई सबको लड़नी पड़ती है, आपको केवल देखना पड़ता है, ब्रेक ले लीजिए।