राज्यों के मुख्यमंत्रियों का प्राथमिक दायित्व अपने प्रदेशवासियों के जीवन को बेहतर बनाने के प्रति होना चाहिए, लेकिन राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर घट रही घटनाओं के बल पर अपने को स्थापित करने के ताजा उदाहारण आने वाली राजनीति में नए संकेत का इशारा कर रहे हैं.
नोटबंदी को लेकर मचे देशव्यापी घमासान के बीच कुछ प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की प्रतिक्रिया से लगता है कि वे और उनकी पार्टियां इस मुद्दे के दम पर अपने को अपने प्रदेशों के बाहर मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को तो इस मुद्दे से अपने को देश-व्यापी बनाने का बढ़िया मौका मिला है, हालांकि उनकी पार्टी के सामने अभी किसी अन्य प्रदेश में निकट भविष्य में कोई चुनाव या उप-चुनाव आने वाला नहीं है. फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पार्टी को ही भारतीय जनता पार्टी का सबसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी सिद्ध करने का मौका वह चूक नहीं रही हैं. अपने को इस मुद्दे पर पूरे विपक्ष का प्रतिनिधि बनाकर उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उजागर कर दी है. कांग्रेस और वाम दल भी शायद उनके नेतृत्त्व को स्वीकार करने के लिए तैयार दिखते हैं.
यही हाल दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का है, जिनकी राजनीति भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चारों ओर ही घूमती है. नोटबंदी मुद्दे पर आरोपों की झड़ी लगाने के साथ-साथ वे अकेले दम पर भाजपा और मोदी को देश में बगावत होने की चुनौती दे ही चुके हैं. हालांकि उनके सामने अपनी पार्टी को दिल्ली के बाहर ले जाने का एक बड़ा मौका कुछ महीनों बाद पंजाब के विधानसभा चुनाव में मिलने वाला है. नोटबंदी के मुद्दे पर वे पंजाब की जनता को अपने रुख के जरिये प्रभावित कोशिश कर रहे हैं.
ठीक इसी तरह का, लेकिन बिलकुल उल्टा उदाहारण बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का है. ये दोनों ही नेता नोटबंदी के मुद्दे पर सभी गैर-भाजपा दलों की राय से अलग राय रखते हैं और उसे व्यक्त करने में भी पीछे नहीं रहते. आश्चर्य तो यह है कि नीतीश कुमार के अलावा उनकी पार्टी के कुछ सांसद तो उनकी राय से इत्तेफाक रखते हैं, लेकिन कुछ अन्य नेता जैसे शरद यादव और केसी त्यागी अन्य विपक्षी दलों के साथ भाजपा विरोधी मुहीम में प्रमुखता से हिस्सा ले रहे हैं. नवीन पटनायक के बीजू जनता दल में कम से कम ऐसा विभाजन नहीं दिखता.
निश्चित तौर पर नीतीश और नवीन अपनी अलग राय से अपने प्रदेश के बाहर के लोगों में भी अपने प्रति धारणा बदलने में कामयाब हो रहे हैं. कौन जाने, इसके दम पर भविष्य में राष्ट्रीय राजनीति में उनके लिए कोई नया मुकाम उभर कर आ जाए.
अगर अन्य प्रदेशों की बात करें तो भाजपा और एनडीए शासित राज्यों (कश्मीर समेत) के मुख्यमंत्रियों की राय अलग होने का सवाल नहीं है. लेकिन इन सबसे हटकर उदाहारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का दिख रहा है. नोटबंदी के प्रश्न पर अभी तक उनकी प्रतिक्रियाएं बहुत गंभीरतौर पर हमलावर नहीं रही हैं और उन्होंने किसानों आदि को हो रही कठिनाइयों को ही प्रमुखता से उठाया है. इस निर्णय के विरोध में उनका कोई बयान उस स्तर का नहीं रहा है जिसमें इसे वापस लेने की मांग की गई हो – जैसे अरविन्द केजरीवाल और ममता बनर्जी का रहा है.
यही नहीं, दो दिन पहले संसद परिसर में उनकी प्रधानमंत्री मोदी से हुई ‘अचानक’ मुलाकात के बाद उन्होंने जो बयान दिया उसमें उन्होंने कहा कि नोटबंदी प्रकरण पर प्रधानमंत्री को आम आदमी की चिंता है. फिर अखिलेश ने अपनी समाजवादी पार्टी सरकार की मुफ्त स्मार्टफोन बांटने की योजना का ज़िक्र करते हुए कहा कि “हम पर आरोप लगाया जा रहा है कि हम वोट के लिए स्मार्टफोन बांट रहे हैं, लेकिन समाजवादी लोगों की कितना आगे की सोच रही है, अगर सबके पास स्मार्ट फोन होता तो किसी भी तरह की दिक्कत नहीं होती.” साफ़ है कि स्मार्ट फोन बांटने की योजना को इस तरह उचित ठहराते हुए उनका इशारा ऑनलाइन पेमेंट और नकद-विहीन लेनदेन को बढ़ावा देने की ओर है और प्रधान मंत्री मोदी भी इस तरह की स्थिति को आगे बढाने के हिमायती हैं.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि समाजवादी पार्टी के अन्य नेता इस मामले में संसद के भीतर और बाहर काफी मुखर विरोध जता चुके हैं. इनमे मुलायम सिंह यादव और राज्य सभा के सांसद राम गोपाल यादव तथा नरेश अग्रवाल शामिल हैं.
इसके विपरीत बहुजन समाज पार्टी की नेता और पूर्व मुख्य मंत्री मायावती इस मुद्दे पर मोदी और भाजपा के प्रति बहुत ज्यादा आक्रामक हैं. उनके हमले तीखे और बदस्तूर जारी हैं, और उन्होंने इस मामले पर मोदी के इस्तीफे तक की मांग कर डाली है. ऐसे में अखिलेश यादव की काफी हद तक सधी हुई प्रतिक्रिया बिलकुल अलग नजर आ रही है.
इस मामले पर आने वाले दिनों में बहुत कुछ होना बाकी है. संसद के घटनाक्रम, विपक्ष के आंदोलन, ‘भारत बंद’ और न्यायालयों में हो रही कार्यवाई के अलावा अन्य प्रतिक्रियाएं भी आती रहेंगी, लेकिन लीक से हट कर चलने वाली राजनीति के संकेत भी सामने आने लगे हैं.
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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This Article is From Nov 25, 2016
नोटबंदी से निकल रहे नए राजनीतिक संकेत
Ratan Mani Lal
- ब्लॉग,
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Updated:नवंबर 25, 2016 16:47 pm IST
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Published On नवंबर 25, 2016 16:47 pm IST
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Last Updated On नवंबर 25, 2016 16:47 pm IST
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