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This Article is From Jun 17, 2016

राजनीतिक दलों को भी शुरू करना चाहिए डिस्क्लेमर देना!

Ratan Mani Lal
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जून 17, 2016 17:12 pm IST
    • Published On जून 17, 2016 17:09 pm IST
    • Last Updated On जून 17, 2016 17:12 pm IST
राजनीतिक दलों में यह अपेक्षित है कि उनमें एक विचारधारा से जुड़े हुए ही लोग होंगे और वे सब एक सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम में विश्वास रखते हैं। अपेक्षित यह भी है कि उस दल से जुड़े लोग अपने बयानों और कृत्यों में कम से कम पार्टी के उद्देश्यों से इतर बात नहीं कहेंगे।

सभी पार्टियों के नेता जता रहे पार्टी लाइन से अलग राय
लेकिन इधर जिस तरह से सभी पार्टियों में कुछ नेता पार्टी लाइन से अलग बोल रहे हैं या कार्यक्रम चला रहे हैं, उससे लगता है कि अब राजनैतिक दल भी लोगों तक अपना सन्देश ले जाने के समय ही एक डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) भी साथ लगा देना चाहिए कि उनके दल के किसी सदस्य के पार्टी लाइन से हट के दिए गए बयान या कृत्य के लिए पार्टी जिम्मेदार नहीं है।

कंपनियां करती हैं इसका इस्‍तेमाल
किसी भी सेवा और ख़ास तौर पर सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करने से पहले उससे जुड़े दस्तावेजों, जैसे एस्टीमेट, बिल आदि पर बहुत छोटे प्रिंट में एक लंबी-चौड़ी फेहरिस्त होती है उन परिस्थितियों की, जिनमें उस सेवा की शर्तें लागू नहीं होती हैं। आम तौर पर ग्राहक उस फेहरिस्त को नहीं पढ़ते, लेकिन सेवा में कमी या किसी और प्रकार के दोष की स्थिति में वह कंपनी बड़ी सफाई से, और शायद औचित्यपूर्ण तरीके से भी, यह सिद्ध करने में सफल रहती है कि उन्होंने तो ग्राहक तो पहले ही बता दिया था कि कंपनी इस तरह की शिकायतों के लिए जिम्मेदार नहीं है। इस तरह के डिस्क्लेमर अक्सर व्यंग्य या उपहास में इस्तमाल होते हैं, लेकिन उसके बावजूद कंपनियां ऐसे दस्तावेज लिखती रहती हैं और लोग ऐसी सेवाएं लेते रहते हैं।

हर पार्टी का पड़ा है ऐसे शर्मिंदगी वाले क्षणों से वास्‍ता
चाहे वह कांग्रेस हो या भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) या आम आदमी पार्टी या मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, सभी में ऐसे शर्मिंदगी वाले मौकों की कमी नहीं है जब उनके किसी प्रमुख नेता ने पार्टी नीतियों से हट कर बयान दिया हो और पार्टी ने ऐसे लोगों पर कोई कड़ी कार्रवाई की हो। ऐसे असमंजस के समय डिस्क्लेमर बखूबी उन पार्टियों की लाज बचा सकता है। पिछले दिनों कांग्रेस के कई नेताओं ने पार्टी के शीर्ष नेताओं की क़ाबलियत पर सवाल उठाये और नेतृत्‍ परिवर्तन की मांग उठाई, लेकिन पार्टी को यह कहकर पीछा छुड़ाना पड़ा, कि वह उन लोगों की “व्यक्तिगत राय” है और पार्टी का उससे कुछ लेना-देना नहीं है।
इसी तरह जेडी (यू) में अपने नेता के लिए सलाह दी गयी कि वे अन्य राज्य छोड़कर बिहार पर ध्यान दें, पार्टी की प्रतिक्रिया? “व्यक्तिगत राय।”
केरल के चुनाव के पहले और उसके बाद माकपा के वरिष्ठ नेता ने कुछ ऐसे ही उदगार व्यक्त किये और पार्टी ने कहा, ये उनके “व्यक्तिगत विचार।”

एक ही प्रतिक्रिया, पार्टी की आधिकारिक राय न माना जाए
भाजपा के साथ तो ऐसे मौके लगातार आ ही रहे हैं। चाहे वह साधु-संतों की जमात हो, या फायरब्रांड विधायक-सांसद, लेकिन तमाम मुद्दों पर बेबाक बयान देने के बाद भी पार्टी की ओर से एक ही प्रतिक्रिया आई कि यह उन माननीयों के “व्यक्तिगत विचार” हैं और उन्हें पार्टी की अधिकारिक राय न माना जाए।

कुछ पार्टियों में तो इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती
रोचक यह है कि कुछ पार्टियां ऐसी भी हैं जिनमे पार्टी लाइन से हटकर बयान देने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता, जैसे तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ अन्ना एडीएमके. और समाजवादी पार्टी, उत्तर प्रदेश की प्रमुख विपक्षी पार्टी बहुजन समाज पार्टी, दिल्ली की आम आदमी पार्टी या पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस, पंजाब का अकाली दल आदि। इन दलों में पार्टी लाइन से इतर कुछ करने या बोलने पर प्रतिक्रिया तुरंत और अंतिम होती है- जैसे पद से हटाया जाना, पार्टी से निलंबन या बर्खास्तगी। इसलिए कोई भी ऐसे बात बोलने से पहले बाहर का रास्ता पकड़ने के लिए तैयार रहता है।

कांग्रेस में भी शीर्ष नेतृत्‍व के लिए उभर रहा असंतोष
इन कुछ दलों के नेतृत्‍व में एक समानता है कि वहां राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद किसी और के लिए रिक्त नहीं रहता। कांग्रेस एक अपवाद है जहां यह पद रिक्त नहीं लेकिन वहां आजकल पार्टी के शीर्ष नेतृत्‍व के लिए असंतोष अब तेजी से शब्दों और बयानों की शक्ल लेता जा रहा है। शायद असंतोष के स्वर बोलने वालों को पार्टी से निलंबन या बर्खास्तगी का भी डर नहीं रह गया है। यानी जिन दलों में अपेक्षाकृत आतंरिक लोकतंत्र है, उन्ही में ऐसे अस्वीकरण की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि वहीं नेताओं की हिम्मत पड़ेगी कि वे पार्टी के नेतृत्‍व या नीतियों के इतर कुछ बोलने या करने का सोच भी सकें।

यह स्थिति उचित है या नहीं? क्या पार्टियों में आस्था रखने वाले सभी पदाधिकारियों या निर्वाचित सदस्यों से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वे एकमत से पार्टी की लाइन में ही रहें? या वे बिना निलंबन या बर्खास्तगी के डर से अपने मन की बात कह सकते हैं? और यदि यह मत एक पार्टी पर लागू हो सकता है तो सभी पर क्यों नहीं?  अन्य पार्टियों की तरह भाजपा के लिए अपने सांसदों-विधायकों से यह उम्मीद रखना बहुत मुश्किल दिख रहा है कि वे सभी पार्टी की नीतियों या इसके राष्ट्रीय या प्रदेश अध्यक्ष के निर्देशों का पालन करें, क्योंकि भाजपा की पिछले कुछ सालों की लोकप्रियता का आधार वे निर्देश नहीं, बल्कि समाज के एक वर्ग की सोच में आया बदलाव है जिसके चलते भाजपा को लोगों का समर्थन मिल रहा है। यह अब अन्य पार्टियों के जिम्मे है कि वे इन लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें।

रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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