उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव का देश की राजनीति में क्या महत्व है इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल के हालिया विस्तार तक को इसी के परिप्रेक्ष्य में देखा गया। जहां प्रदेश में सत्ताधारी समाजवादी पार्टी अपनी और मुख्यमंत्री की छवि बदलने की कोशिश में व्यापक प्रचार अभियान चला रही है, वहीं बीजेपी प्रदेश भर में रैली और सभाएं आयोजित कर लोगों को अपनी खूबियां बता रही है। लेकिन इन सब के बीच कांग्रेस में चुनाव की तैयारियों को लेकर जो कुछ भी हो रहा है वह वास्तव में आश्चर्यजनक है।
कुछ माह पहले कांग्रेस नेतृत्व ने यूपी चुनाव के लिए बेहतर रणनीति बनाने के लिए प्रशांत किशोर को सलाहकार के रूप में जोड़ा है, उनकी टीम ने 2014 के लोकसभा चुनाव और पिछले साल के बिहार चुनाव में जिस तरह से विजयी पक्ष के लिए अभियान तैयार किया था कुछ वैसी ही अपेक्षा उनसे उत्तर प्रदेश के लिए भी है। अख़बारों में कई बार प्रशांत की टीम की बैठकों, उनमें हुई चर्चाओं, कांग्रेस कार्यकर्ताओं से उनकी वार्ता, पार्टी के लोगों का उनके प्रति रवैया और प्रशांत की ओर से दिए गए सुझावों के बारे में अनगिनत खबरें आ चुकी हैं। लोकसभा और बिहार के चुनाव की तैयारियों के दौरान प्रशांत की कार्य प्रणाली के बारे में इस तरह की खबरें नहीं आती थीं और न ही यह पता चलता था कि उनकी बैठकों में किस बात पर चर्चा हुई।
बड़े चुनाव को लेकर बड़े सियासी दल का रवैया हैरानी भरा
बहरहाल अब स्थिति यह है कि उत्तर प्रदेश के जो भी वरिष्ठ कांग्रेस नेता हैं वे चुनाव से जुड़ी गतिविधियों के प्रति अपने राजनीतिक विचार या प्रतिक्रिया देने के बजाए प्रशांत किशोर (या ‘पीके’) की सलाह का इंतजार करते हैं। किसी भी राजनीतिक दल में एक बड़े चुनाव के प्रति ऐसा रवैया हैरान करने वाला है। यही नहीं, चूंकि पीके के हवाले से बार-बार यह खबर दी गयी कि उन्होंने इस बार सवर्ण जातियों और विशेषकर ब्राह्मण वर्ग से किसी नेता को चुनावी चेहरा बनाने का सुझाव दिया है, उसके बाद तो जैसे प्रदेश भर के कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं में यह साबित करने की होड़ लग गयी कि ब्राह्मण वर्ग को सामने लाने में कितना लाभ है। और चूंकि प्रदेश में इस वर्ग का कोई सर्वमान्य नेता उपलब्ध नहीं था, इसलिए दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का नाम सामने आते देर नहीं लगी।
मूलतः पंजाब में कपूरथला के पंजाबी खत्री (कपूर) परिवार में जन्मीं शीला वरिष्ठ कांग्रेस नेता स्व. उमा शंकर दीक्षित की बहू हैं (उनके पति स्व. विनोद दीक्षित यूपी में वरिष्ठ आईएएस अधिकारी थे) और इस नाते उन्हें उत्तरप्रदेश की बहू और खुद भी एक ब्राह्मण नेता माना जाने लगा है। हालांकि कांग्रेस के प्रथम परिवार से नजदीकियां होना उनकी महत्वपूर्ण योग्यता है जबकि 15 वर्षों तक दिल्ली का मुख्यमंत्री बने रहने को उतनी प्रमुखता नहीं दी गयी है। उनके नाम के चर्चा में आते ही पहले तो उनका नाम दिल्ली के किसी घोटाले में उछाला गया और उन्होंने स्वयं भी इस तरह के किसी निर्णय से इनकार किया लेकिन कुछ समय बाद ही उनकी ओर से चिर-परिचित बयान आया कि वे “पार्टी द्वारा दी गयी किसी भी जिम्मेदारी के लिए तैयार हैं।”
ऐसे कैसे आएंगे कांग्रेस के अच्छे दिन ?
इसी के दौरान कांग्रेस के परिचित चेहरे गुलाम नबी आज़ाद को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाया गया लेकिन पूर्व प्रभारी मधुसूदन मिस्त्री को कोई नई जिम्मेदारी नहीं दी गई, और अब प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष निर्मल खत्री के इस्तीफा देने की खबर भी आ गई है। ऐसे संकेत हैं कि शीला दीक्षित को प्रदेश अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी जा सकती है। इतना सब होने के बीच प्रियंका (गांधी) वाड्रा को उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के चुनाव प्रचार का जिम्मा दिए जाने की भी खबर आई, और एक बार फिर प्रदेश के कांग्रेस नेताओं-कार्यकर्ताओं में ख़ुशी की लहर दौड़ गई – कहा गया कि “प्रियंका में इंदिरा गांधी की छवि दिखती है”, “वे महिलाओं और युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं”, “उनके प्रचार करने से तो कांग्रेस को बड़ी जीत हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता” आदि, और कांग्रेस के प्रवक्ताओं और नेताओं ने टीवी बहस वगैरह में मजबूती से कहना शुरू कर दिया है कि अब कांग्रेस के अच्छे दिन आने ही वाले हैं।
...तो बेहतर ढंग से चल सकता है प्रियंका का जादू
सूत्र बताते हैं कि प्रियंका वाड्रा खुद भी शीला दीक्षित को बहुत सम्मान देती हैं और उनकी इच्छा है कि शीला उत्तर प्रदेश में बड़ी भूमिका निभाएं। कांग्रेस के ही कुछ नेता दबे स्वरों में यह भी बताते हैं कि राहुल गांधी को इस बार चुनाव प्रचार बहुत बड़ी भूमिका न दी जाए तो प्रियंका का जादू और बेहतर ढंग से चलेगा। एक ओर अमित शाह और अखिलेश यादव पूरे उत्तर प्रदेश में जोर-शोर से अपनी पार्टी का प्रचार शुरू कर चुके हैं, भाजपा में प्रचार करने वाले नेताओं की सूची बहुत लंबी है, सपा में अखिलेश के अलावा कई मंत्री भी प्रचार करेंगे और अपने क्षेत्रों में प्रभाव डालेंगे। केवल मायावती अपवाद हैं जिनके पास अब पार्टी का आक्रामक ढंग से प्रचार करने वाले नेता नहीं बचे हैं। और इन के सामने है कांग्रेस, जहां प्रदेश अध्यक्ष पद पर कोई नामित नहीं है, प्रभारी बनाये गए नेता अभी नीति बना रहे हैं, प्रचार का चेहरा कौन बने, इस पर मंथन हो रहा है और राजनीतिक रणनीतिकार की ओर से एक कार्यनीति का इंतजार है।
कांग्रेस को खुद को विकल्प के तौर पर पेश करना होगा
पार्टी के नेता यह तो मानते हैं कि प्रदेश के लोगों का काफी हद तक बसपा और सपा से मोहभंग हुआ है लेकिन इसका कोई कारण नहीं दे पाते कि लोग बीजेपी के बजाए कांग्रेस की ओर क्यों देखेंगे, विशेष तौर पर जब कांग्रेस को सपा का परोक्ष समर्थक माना जाता है। क्या केवल प्रियंका की लोकप्रियता और “उत्तर प्रदेश की बहू” की उपस्थिति कांग्रेस को एक विकल्प के तौर पर स्थापित कर पायेगी? जहां एक ओर सभी पार्टियां पिछड़े, अति पिछड़े, मुस्लिम, दलित और अन्य अल्पसंख्यकों को आकर्षित करने के जुगत में हैं, वहीं ब्राह्मण वर्ग को अपने साथ लेकर चलने की कवायद क्या सफल होगी? क्या सपा सरकार के अपराध-नियंत्रण, कानून-व्यवस्था से जुड़े और अन्य आरोपों पर कांग्रेस आक्रामक रवैया अपनाएगी?
पीके के लिए पिछले चुनावों में नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार ऐसे चेहरे थे जिनके बल पर चुनाव प्रचार की रणनीति बनाने में मदद मिली थी। प्रदेश कांग्रेस में अभी तक ऐसा कोई चेहरा सामने नहीं आया है। ऐसे में क्या केवल एक जाति को वरीयता देने के अलावा पीके के पास कोई अन्य सुझाव है? यदि है, तो उसे सामने लाने का समय बीता जा रहा है...।
रतन मणिलाल वरिष्ठ पत्रकार हैं...
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This Article is From Jul 12, 2016
यूपी चुनाव: कांग्रेस को अभी भी प्रचार नीति की तलाश...
Ratan Mani Lal
- ब्लॉग,
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Updated:जुलाई 12, 2016 18:19 pm IST
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Published On जुलाई 12, 2016 16:01 pm IST
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Last Updated On जुलाई 12, 2016 18:19 pm IST
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