परीक्षा में पास होने के लिए न्यूनतम 33 प्रतिशत अंक होने चाहिए. हमने पिछली लोकसभा में 34 प्रतिशत ऐसे सांसदों को चुन लिया, जिन्होंने अपने घोषणा पत्र में स्वयं पर कोई न कोई आपराधिक मामला दर्ज होना घोषित किया था. 2019 में एक बार फिर यही राजनेता आपके सामने वोट मांगने के लिए आ खड़े हुए हैं. गंभीर बात यह है कि ‘चौकीदार चोर है' और ‘मैं भी चौकीदार' के बीच मतदाता फिर असमंजस में है! चुनावी परिप्रेक्ष्य में भारत की समसामयिकी में जो भी विषय चल रहे हैं, उनमें देखिए कि जनता के असली विषय कहां हैं? अच्छी शिक्षा, सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं, कृषि, रोजगार, बच्चे, महिलाएं और सुरक्षित समाज के तमाम विषयों, जिनमें हम बदतर बने ही हुए हैं, छोड़ चौकीदार जैसी बहसों पर पूरी—पूरी ऊर्जा खर्च की जा रही है. सब जानते हैं कि राजनीति में कम ही लोग दूध के धुले होते हैं, बावजूद इसके राजनीति एक बार फिर आम जनता को उल्लू बनाने पर आमादा है.
भला हो एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) का, जो बहुत मेहनत करके ऐसी रिपोर्ट तैयार करती है, जिससे भारतीय राजनेताओं का सही चेहरा हमारे सामने आ पाता है. इसमें माननीयों की संपत्ति, आपराधिक जानकारियां और बहुत से विश्लेषण होते हैं, जो एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मतदाताओं को जानना बेहद जरूरी है. यह रिपोर्टें मतदाताओं से भी सवाल करती हैं कि वह आखिर ऐसे नेताओं को कैसे चुन लेते हैं, जिनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला दर्ज है, केवल आपराधिक ही नहीं गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, और कई तो इतने कि वह चोरी जैसे अपराधों से भी बहुत ज्यादा गंभीर हैं.
लोकसभा के 2014 के चुनाव में भी 34 प्रतिशत ऐसे ही सांसदों को जिताकर लोकतंत्र के पवित्र स्थल पर पहुंचाया. श्री नरेन्द्र मोदी को भारी बहुमत देकर देश का महत्वपूर्ण पद सौंपा, और उन्होंने भी संसद की देहरी पर माथा टेककर एक नई सुबह का सूत्रपात किया, यह नई सुबह महज अगले चुनाव तक चोर—चोर जैसे विमर्श पर आ टिकेगी, राजनीति का यह अधोपतन किसने सोचा होगा? सोचिए कि दुनिया में क्या सोचा जाएगा जब वह तरक्की की सुनहरी इबारतें लिख रही थी तब भारत जैसे विश्वगुरू का दावा करने वाले देश के राजनेता एक-दूसरे को चोर और चौकीदार कह रहे थे, और भूखी, प्यासी, बीमार और बेरोजगार जनता चुनाव के गंभीर समय में भी राजनीति का यह तमाशा देख रही थी.
देश की जनता ने जिन सांसदों को चुना उनमें से 185 किसी न किसी मामले में अपराध के आरोपी थे, इनमें से 112 पर वह मामले दर्ज थे, जिन पर कोई गंभीर अपराध दर्ज था, यानी भारतीय दंड संहिता के तहत इन अपराधों के लिए कम से कम पांच साल या उससे अधिक की सजा मुकर्रर थी. इनमें से 443 सांसद ऐसे थे, जिनकी संपत्ति करोड़ों में थी, औसतन 14 करोड़ रुपये की घोषित आय थी, यानी उनके पास बाहुबल के अलावा धनबल था.
एडीआर की रिपोर्ट बताती है कि दस सांसद ऐसे थे जिन्होंने अपने पर हत्या का आरोप होना घोषित किया था, और 17 सांसद ऐसे थे, जिन पर हत्या करने का प्रयास वाला मामला दर्ज था. गंभीर बात तो यह है कि इन अपराधों में भारतीय जनता पार्टी जो ‘मैं भी चौकीदार' का नारा दे रही है, उसके सांसद सर्वाधिक थे. हत्या करने का आपराधिक मामला शपथपत्र में देने वाले दस में से चार, और हत्या का प्रयास करने वाले 17 में से 10 सांसद भारतीय जनता पार्टी के थे. दस सांसद ऐसे थे, जिन्होंने अपने पर लूट और डकैती का मामला दर्ज होना भी खुद ही अपने शपथपत्र में बताया इनमें से 7 'चौकीदार' भारतीय जनता पार्टी के थे. सात सांसद ऐसे थे, जिन्होंने कहा कि उन पर अपहरण का मामला दर्ज है, इनमें से 3 भाजपा के थे. याद रखिए केवल भाजपा के नहीं थे, दूसरे दलों के भी थे.
पवित्र संसद में ऐसे लोगों की संख्या पिछले चुनाव से बढ़ गई. 2009 के चुनाव में ऐसे आरोप वाले 30 प्रतिशत सांसद थे. इसलिए सवाल तो भारत की जनता से भी उतना ही होना चाहिए, कि वह किन पैमानों पर अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजती है. क्या हत्या जैसे संगीन अपराध के आरोपियों पर भी आपका विश्वास हो सकता है. एडीआर का ही विश्लेषण बताता है कि 2014 में जिन 165 सांसदों को आपने दोबारा चुनकर संसद में भेजा, इनमें से 71 यानी 43 प्रतिशत पर कोई न कोई अपराध दर्ज था, इनमें से भी 13 प्रतिशत ऐसे थे, जिन पर पहले से दर्ज अपराधों की संख्या बढ़ गई यानी सांसद रहते हुए भी उन पर आपराधिक प्रकरण दर्ज हुए और 30 प्रतिशत सांसदों ने यह भी बताया कि 2009 में जब वह सांसद के रूप में चुने गए तब उन पर कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं था, लेकिन इसके बाद जब 2014 के लिए चुनाव लड़े तब उन पर कोई मामला दर्ज हो गया.
हो सकता है कि इनमें से बहुत सारे मामलों में हमारे प्रिय सांसदों पर झूठे मुकदमे दर्ज करवा दिए गए हों, जिनमें न्यायालय अपना फैसला सुनाएगा, लेकिन 34 प्रतिशत की यह संख्या छोटी नहीं होती, इसलिए 2019 में जब यह सारे माननीय अपना—अपना शपथपत्र चुनाव लड़ने के लिए दाखिल करें, तो इस बात पर भी जरा गौर कर लीजिएगा कि 2019 में जब एडीआर अपनी रिपोर्ट बनाने बैठे तो दुनिया में भारत की भद्द पिटवाने वाले तथ्य न पेश करने पड़ें. किसी भी सोशल मीडिया ट्रेंड को अपनी बुद्धि गिरवी न रखिएगा, सोचिएगा, समझिएगा, पढ़िएगा, जानिएगा, और तब ही अपनी सबसे मजबूत ताकत मतदान का उपयोग कीजिएगा.
राकेश कुमार मालवीय NFI के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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