कहते हैं, दुनिया का सबसे खूबसूरत संविधान हिन्दुस्तान का है। इस संविधान के सूत्रधार बाबा साहेब अंबेडकर थे। इस संविधान को तैयार करने से पहले जब बाबू जगजीवन राम बापू का आशीर्वाद लेने पहुंचे थे तो उन्होंने एक बेहद खूबसूरत ताबीज़ उन्हें दिया था... "मैं तुम्हें एक ताबीज़ देता हूं... जब भी दुविधा में हो या जब स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए, तो इसका प्रयोग करो... उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो, जिसे तुमने कभी देखा हो, और अपने आप से पूछो - जो कदम मैं उठाने जा रहा हूं, क्या वह उस गरीब के कोई काम आएगा...? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा...? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा...? दूसरे शब्दों में क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा...? तब तुम पाओगे कि तुम्हारी सारी शंकाएं और स्वार्थ पिघलकर खत्म हो गए हैं..."
आज जब हम एक दलित छात्र रोहित वेमुला को याद करते हैं, तो पाते हैं कि गांधी का ताबीज़ हमने सचमुच गिरवी रख दिया है। आज जब देश की योजनाओं पर निगाह डालते हैं तो पाते हैं कि सचमुच हमारी निगाह में वह गरीब आदमी है या नहीं। ऑक्सफैम की रिपोर्ट भले ही दुनिया में 62 लोगों की संपत्ति की रिपोर्ट हमारे सामने प्रस्तुत करती है, लेकिन हमारे अपने देश में भी अमीरी-गरीबी की खाई सचमुच और गहरी होती लग रही है। क्या हम इस सच को स्वीकार कर रहे हैं कि आज भी 80 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे ही बसर कर रहे हैं।
हम डिजिटल इंडिया का सपना देख रहे हैं। सवाल यही है कि जो भारत अभी भूखा है, उसके हिस्से में क्या है...? भूखा भारत स्टार्ट अप कैसे करे...? उसके पास इसके क्या रास्ते हैं...? गांव-खेड़ों में स्टार्ट अप की क्या संभावनाएं हैं, वहां तो मनरेगा तक ठीक से काम नहीं कर पा रहा।
देखना यह भी होगा कि आज के दौर में यदि कोई युवा अपना अपना स्टार्ट अप करना चाहता है तो उसके लिए क्या मुफीद माहौल है...? सिस्टम की जड़ तक फैले भ्रष्ट आचरण और भ्रष्ट व्यवहार से निपटने का रास्ता तो दिखाई ही नहीं दे रहा, जबकि मोदीजी की सरकार से पहले यही तो उनके एजेंडे का सबसे पहला बिंदु था। अब भी देश के तमाम कोनों से तीसरे वर्ग के कर्मचारियों तक के घरों से करोड़ों रुपये का काला धन सामने आ रहा है। लेकिन उसे रोकने के तमाम उपाय ऐसे हैं, जो नई तकनीक आधारित हैं।
नई तकनीक बिजली से चलती है, गांव-खेड़ों और कस्बों में पर्याप्त बिजली नहीं है। नई तकनीक का अपना ढांचा और लागत है और उस तक सभी की पहुंच नहीं है। नई तकनीक अब एक नए धंधे में तब्दील हो गई है, थोड़ा-सा घूमेंगे तो पता चल जाएगा कि किसी भी योजना का हितग्राही बनने के लिए लोगों को लाभ लायक रकम तो पहले ही खर्च कर देनी पड़ रही है... और एक बहाना भी बन गया है, काम नहीं करने या टालने का। दरअसल ऐसे भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए जिस प्रेरणा की ज़रूरत है, मौजूदा वक्त में वही गायब है।
"हम अपना घर तो बना रहे हैं, अपना देश बना रहे हैं या नहीं...?" संविधान की आत्मा पूछ रही है...
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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