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This Article is From Jul 20, 2016

सीएम के 'बाढ़ वाले गणेश जी' चकाचक, पास के लोग बेहाल...

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    जुलाई 20, 2016 13:54 pm IST
    • Published On जुलाई 20, 2016 13:53 pm IST
    • Last Updated On जुलाई 20, 2016 13:54 pm IST
कुल 30 घर हैं। बाढ़ के पानी में तीन दिन डूबे रहे। बाढ़ उतरने के बाद इनका संकट घुटने से चढ़कर मुंह तक आ गया। खाएं क्या...? दाना-दाना बह गया, कुछ बचा तो वह गीला हो गया। सोएं कहां...? ज़मीन गीली है। पीने का साफ पानी भी नहीं है। बच्चे उल्टी-दस्त से परेशान हैं। बड़े लोगों ने भी अपनी गृहस्थी बचाने के फेर में घंटों सिर पर पानी झेला, अब कई लोग खटिया पकड़े हैं। सरकार से कुछ मिला नहीं। न ढंग का कोई सर्वे हुआ, न कोई राहत शिविर। एक स्कूल ज़रूर खुलवा दिया गया ठहरने को, जहां पीड़ित परिवार किसी उम्मीद में टिके हुए हैं।

यह विकास की रोशनी से दूर किसी गांव की कहानी नहीं है। यह किसी अनजान जगह की दास्तां नहीं है। यह कोई राजनैतिक हाशिये की ज़मीन नहीं है। यह किसी निष्क्रिय भूभाग की किस्सागोई भी नहीं है। इस हिस्से को दिल्ली-मुंबई रेललाइन के ज़रिये हज़ारों लोग रोज-ब-रोज देखते हैं। इस इलाके से कोई और नहीं, देश की विदेशमंत्री सुषमा स्वराज आती हैं। इस मिट्टी से कोई और नहीं, प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान का अपनापा है। इसी जगह उनकी आस्था का मंदिर भी मौजूद है, जहां मुख्यमंत्री खुद हर महीने हाज़िरी लगाने चले आते हैं।

कई-कई राजनेताओं और राजनीतिक हस्तियों से भरे इस ऐतिहासिक और समृद्ध इलाके की जड़ें इतनी कमज़ोर निकलीं कि तीन दिन की बाढ़ को भी न झेल सकीं... इस विपदा के बाद यहां लोगों का जीवन बदतर हो चला है और इनके आंसू पोंछने वाला भी अब तक कोई नहीं है। सोचिए विदेशमंत्री के, मुख्यमंत्री के, सड़क मार्ग पर बसे, रेल मार्ग पर बसे, सामाजिक-आर्थिक रूप से संपन्न एक छोटे-से मोहल्ले का जब यह हाल है, तो हम और इलाकों की क्या नज़ीर पेश करें, किससे कहें...? किस उम्मीद से कहें...? क्या यह किसी को दिखती नहीं या देखी नहीं जाती... या तभी दिखती है, जब बड़े अधिकारी और नेताओं का दौरा होता है... क्या हमारा सिस्टम इतना संवेदनहीन हो चला है कि ऐसी विपदाओं के समय भी उसे अपनी नैतिकताएं और मानवीय मूल्य नज़र नहीं आते...
 

यह दुखभरी दास्तां है मध्य प्रदेश के विदिशा जिले के पीरिया नाला इलाके बस्ती की। यह बस्ती रेल पटरी के उस पार बसी रंगई ग्राम पंचायत के अंतर्गत आती है। बीच में बेतवा बहती है। इसके नजदीक 'बाढ़ वाले' गणेश जी का मंदिर है। इस मंदिर के प्रति मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बड़ी आस्था है। वह खुद यहां निरंतर आते हैं। एक बार इस मंदिर से गणेश जी के जेवरात की चोरी हो गई थी। यकीन मानिए, एक दिन में ही उन कमबख्त चोरों को सलाखों के पीछे भेज दिया गया। गणेश जी की खंडित प्रतिमा को बदल दिया गया। अब पुराने गणेश जी का एक तैलचित्र मंदिर की दीवार पर चस्पां है, मंदिर में नई मूर्ति विराजमान है, मंदिर और गणेश जी की सुरक्षा में दो बंदूकधारी पुलिसवालों की ड्यूटी है। पीछे टिन के एक अस्थायी शेड में पुलिस चौकी है, बाजू में बेतवा का सुंदर किनारा है। मंदिर के पीछे रंगई गांव की एक बस्ती है। इसमें कुछ अहिरवार और दलित समाज के लोगों के घर हैं। कुछ और लोगों को यहां से हटाकर मोरघाट में बसा दिया गया है। पीलिया नाला और रंगई ग्राम पंचायत में कोई ज्यादा फासला नहीं है। पीरिया नाला गांव एक लाइन में बसा गांव है। ज्यादातर घर मिट्टी के बने हैं। मेहनत-मजदूरी करके घर चलाते हैं।

बीते सप्ताह बेतवा में इतना पानी आया, जितना पिछले 20 सालों से यहां रह रहे लोगों ने कभी नहीं देखा। इन दोनों गांवों के कई परिवारों को रेल की पटरियों के बीच रात गुजारनी पड़ी। घरों में पानी घुस गया। मिट्टी की दीवारें ढह गईं। घरों पर केवल लोहे के दरवाजे खड़े रह गए। दीवारें दरवाजे बन गईं, और दरवाजा दीवार। घर-गृहस्थी सब ढह गया। पीरिया नाले में कुछ बचा, जैसे का तैसा रहा, तो बीच में बसा एक मंदिर। कच्चे घरों और मार्बल जड़ित, पक्के फर्श वाला मंदिर अजब-सा विरोधाभास पैदा करता है।
 

हम यहां पहुंचे तो जानना चाहा कि आंगनवाड़ी कहां लगती है...? कुछ लोगों ने हमें एक घर बताया। इसे देखकर कहीं से भी नहीं लगा कि यह कोई आंगनवाड़ी है। बाढ़ से ठिठुरी हुई इस आंगनवाड़ी को देखकर आगे कुछ पूछने की हिम्मत भी नहीं हुई कि बच्चे कहां हैं...? पोषण आहार कहां हैं...? हां, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता का पूछा तो घर से उसका पति निकलकर आया। उन्होंने बताया कि वह बच्चे को लेकर डॉक्टर को दिखाने गई है। हमने पूछा, क्या हुआ, उल्टी-दस्त। मोहल्ले में और भी बच्चे बाढ़ के बाद इसी तरह पीड़ित हैं। उन्होंने हमें अंदर तक घर दिखाया। कुछ और लोग भी आ गए, और सभी अपनी-अपनी आपबीती हमसे कहने लगे। कुछ मिला क्या, सरकार ने क्या किया, कोई राहत दी क्या...? सभी निराश। किसी को ढंग की कोई राहत नहीं मिली। इस बीच आंगनवाड़ी कार्यकर्ता क्रांतिबाई भी अपने बच्चे को लेकर आ गई।

हमारे पूछने पर बताया कि 'बीमार बच्चों को ओआरएस का पैकेट दिया है...' गांववालों ने बताया कि 'बाढ़ के वक्त तो अधिकारी आए, लेकिन इधर कुछ खास न हुआ। न कोई सर्वे...' 'कुछ साल पहले बाढ़ आई तो कुछ राहत राशि मिली थी,' लेकिन अभी तो ये लोग खुद ही अपने टूटे घरों, कीचड़ से चिपचिपाते फर्श और दरकती दीवारों को हिम्मत की धूप से खुद ही सुखा रहे हैं।
 

उधर रंगई गांव के स्कूल में पड़े पांच बीमार परिवार भी किसी सहायता के इंतजार में हैं। स्कूल की दीवारों पर बाढ़ के निशान अभी सूखे नहीं हैं। वे हमें अपनी शिकायत दर्ज कराते हैं। साहब, कुछ करवाइे। हमारे घर ही ठीक हो जाएं तो बड़ी मदद हो जाएगी। हमने कहा हम मीडिया वाले हैं, केवल लिख सकते हैं। आपकी बात ऊपर साहब लोगों तक ज़रूर पहुंचा देंगे।

बाढ़ वाले गणेश जी भी जलमग्न थे। हमने पंडितजी से पूछा, 'यहां बाढ़ जैसे कुछ निशान क्यों नजर नहीं आ रहे...' मंदिर को देखकर ऐसा लग ही नहीं रहा कि बाढ़ आई थी। मंदिर का कोना-कोना चमक रहा था, न कोई मिट्टी, न पानी। पंडितजी ने बताया, 'बाढ़ आते ही यहां विदिशा से सैकड़ों लोग आ जाते हैं। जैसे-जैसे बाढ़ उतरती जाती है, मंदिर की सफाई होती जाती है। सारी मिट्टी-कचरे को धो दिया जाता है। फायर ब्रिगेड आती है और प्रेशर के पानी से सब चमक जाता है। इतने लोग होते हैं कि मंदिर के बाहर लगे पेड़ों तक की सफाई हो जाती है,' उन्होंने बाहर पेड़ की तरफ इशारा करके हमें बताया भी,' देखिए...' सचमुच, सब चकाचक था।

सच है गणेश जी सरकार पर बड़ी कृपा करते हैं, और सरकार उन पर। लोग तो केवल मतदाता हैं, पांच साल में एक बार वोट भर देते हैं...

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

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