स्कूल से घर लौटी कीर्ति कुशवाहा ने हमें देखकर अपनी पीड़ा इस उम्मीद के साथ रख दी कि शायद कुछ हो जाए। बाकी बस्ती वालों को भी अपने घर और ज़िन्दगी का ज़रूरी सामान जुटाने की चिंता थी, लेकिन कीर्ति की चिंता का केंद्र उसकी किताबें ही थीं। सच है, जब कभी बाढ़ या सब कुछ तहस-नहस कर देने वाली आपदाएं आती हैं, राहत और पुनर्वास की प्राथमिकताओं में बड़ों की दुनिया ही अधिक आती है, लेकिन बच्चे, जो सबसे मासूम अवस्था में भारी विपदाओं को झेलते हैं, के लिए क्या हमारा समाज सोच पाता है... कीर्ति की पीड़ा इसी की बानगी लेकर आती है।
कीर्ति कुशवाहा विदिशा जिले के उसी रंगई पंचायत की छात्रा है, जिसका ज़िक्र मैंने अपने पिछले ब्लॉग में किया था। कीर्ति 10 भाई-बहनों में छठे नंबर पर है। आरती, भारती, पूजा, लक्ष्मी, वर्षा, शोभा, नेहा, अभिषेक और अनिकेत, ये कीर्ति के भाई-बहनों के नाम हैं। पिता इमरतलाल कुशवाहा एक दुर्घटना में विकलांग हो गए। वह सब्जी का ठेला लगाकर घर चलाते हैं। मां रेखाबाई कुशवाहा मजदूरी करती हैं। घर में एक छोटी-सी रेखाबाई किराना दुकान है, जो शिव स्वसहायता समूह के सहयोग से खोली गई है। 10 भाई-बहनों के इस परिवार में कीर्ति की किताबों के प्रति ललक हमें अचरज में डाल गई। उसने बताया, 10वीं कक्षा में उसके 62 प्रतिशत नंबर आए थे, यानी प्रथम श्रेणी। वह कॉमर्स विषय से अपनी आगे की पढ़ाई करना चाहती थी, लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण उसे कला संकाय में दाखिला लेना पड़ा।
कहने को यह एक छोटी-सी कहानी है, खोजें तो हर गली-मोहल्ले में ऐसी कहानियां मिल जाएंगी। लेकिन इसमें सोचने का पहलू यह है कि तमाम विकास को पा जाने के बावजूद हमारे समाज की उस मानसिकता का न टूट पाना, जो हजारों नारे पढ़ने के बाद, हजारों टीवी सीरियल देखने के बाद और सैकड़ों भाषण सुनने के बाद भी नहीं बदली है, और लड़कियों को अब भी दोयम दर्जे पर रखती है। उन्हें आगे पढ़ने से रोक देती है। उन्हें अपने सपनों को विराम देकर शादी के फेरों में पड़ जाना पड़ता है। शादी के कुछ ही समय बाद वह मां बन जाती हैं, और फिर पूरी ज़िन्दगी उसी गृहस्थी को बनाते-बनाते निकल जाती है, जिसमें उनकी मर्जी कभी पूछी ही नहीं जाती।
कीर्ति जिस बस्ती में है, उसी में गुड्डी अहिरवार भी रहती है। गुड्डी की बहू प्रीति अहिरवार को दो महीने पहले बेटी हुई है। यह उसकी तीसरी बेटी है। संस्थागत प्रसव के आंकड़े भले ही बढ़ गए हों, लेकिन उसका प्रसव घर पर ही हुआ। इतने से भी उसकी सास संतुष्ट नहीं है, सास गुड्डीबाई को एक लड़के की चाहत है। बहू के खराब स्वास्थ्य और डांवाडोल आर्थिक स्थिति का तर्क भी उनके सामने नही चलता। उनका कहना है, वंश तो लड़के से ही चलता है। सास के इस रवैये पर बहू प्रीति का कोई बस नहीं। वह उनके सामने हमसे बातचीत करते हुए खुलकर अपनी राय भी नहीं रख सकती।
'छोटा परिवार - सुखी परिवार' का नारा अब न टीवी के विज्ञापनों में दिखता है, न अख़बारों में। हम सोचते हैं कि यह अब देश का मुद्दा नहीं रहा। लोग समझदार हो गए हैं, लेकिन ये उदाहरण बताते हैं कि कैसे अब भी लड़के-लड़की में विभेद की मानसिकता समाज में गहराई तक पैठ बनाए हुए हैं। इसका असर भी वैसे ही होता है... हो सकता है, कीर्ति कुमारी न होकर कुमार हो जाती, तो न उसका परिवार इतना बढ़ता और संभव था कि उसकी किताबें भी आ जातीं। इसके बावजूद, लड़की दोहरा संघर्ष करती हैं। घर भी चलाती हैं और पढ़ भी लेती हैं, प्रथम श्रेणी भी हासिल कर लेती हैं, अपने माता-पिता का घर चलाने में मदद भी करवाती हैं, छोटे-छोटे कामों से, लेकिन वंश तो लड़का ही चलाता है।
सो, अब सवाल सिर्फ यह है कि क्या 'डिजिटल इंडिया' और 'स्मार्ट इंडिया' कीर्ति की बाढ़ में बह गई पांच किताबों की व्यवस्था कर पाएंगी...?
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...
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