जिस रोज मैं रेलगाड़ी में सवार हुआ, उसी शाम देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान की घोषणा हुई. मैं जहां जा रहा था, उस इलाके से इस सूची में दो नाम शामिल थे. एक नाम भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित भारतरत्न के लिए नानाजी देशमुख का, दूसरा नाम पद्मश्री के लिए एक ठेठ गंवई किसान बाबूलाल दहिया का. इन दोनों के कामों को देखने का मौका मुझे पहले भी मिला, लेकिन इन पुरस्कारों ने यात्रा को और महत्वपूर्ण बना दिया.
नानाजी देशमुख ने सक्रिय राजनीति से अवकाश लेकर जो क्षेत्र चुना, उसमें सतना का मझगवां इलाका भी है. यहां उनकी संस्था ने कृषि विज्ञान केन्द्र की स्थापना की. यह इलाका चित्रकूट से 30 किलोमीटर दूर है. चित्रकूट में ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की. उस वक्त इस इलाके में डाकुओं का खासा आतंक था. इस क्षेत्र में उन्होंने ग्रामीण विकास का जमीनी काम शुरू किया.
मझगवां से कोई सात किलोमीटर की दूरी पर बसी देवलहा पंचायत और इससे ठीक दो किलोमीटर दूर पटनी पंचायत ऐसे दो गांव थे, जिन गांवों को नानाजी देशमुख ने गोद लिया था. यहां इनके ग्रामशिल्पी दंपति स्थायी रूप से रहते थे और गांव के विकास में योगदान देते थे. यहां बड़ा काम सूखे से निपटने के लिए पानी की संरचनाएं विकसित करना था. इन दोनों गांवों में सैकड़ों जलसंरचनाएं बनाकर पानी को रोकने का काम किया गया.
इसके दो साल बाद तत्कालीन राष्ट्र्रपति डॉ एपीजे अब्दुल कलाम ग्राम पटनी डाड़िन में तालाब का लोकार्पण करने आए थे. इस पंचायत की 90 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है. उन्होंने प्रोटोकॉल तोड़कर यहां ग्रामीणों के साथ जमीन पर बैठकर भोजन किया. ग्रामीण गद्गद् हो गए. पहले प्रधानमंत्री और फिर स्वयं राष्ट्र्रपति. यह संभवत: देश का अकेला ऐसा दूरदराज का गांव होगा, जिसे एक प्रधानमंत्री और एक राष्ट्र्रपति की मेहमाननवाज़ी का मौका मिला.
ऐसा होने से तो इन गांवों की सूरत ही बदल जानी थी, सूरत बदली भी, लेकिन उस वक्त जब इन हस्तियों का आगमन होना था. इन गांवों में रातोंरात सड़कें बनवाई गईं. लेकिन अब तकरीबन 14 साल गुजर जाने के बाद अब गांव को देखकर आप कह नहीं सकते कि देश के नक्शे पर यह इतना महत्वपूर्ण होगा.
आप उस शिलालेखों को देखकर ही जान पाएंगे कि कभी इस गांव में देश के पहले व्यक्ति पधारे थे. उसके अलावा इन गांवों का चेहरा अब भी एक बदहाल हिन्दुस्तान जैसा ही है. अब भी यहां पर स्थानीय संगठन कुपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, रोजगार जैसे मसलों पर संघर्ष कर रहे हैं. पटनी पंचायत के डाडिन टोले में तो मिनी आंगनवाड़ी तक नहीं खुल पाई. इस इलाके की सूरत अब भी दुखद है.
नानाजी देशमुख की गोद ली पंचायत देवलहा में उस दिन सोशल ऑडिट चल रहा था. यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 का वह प्रावधान है, जिसमें ग्राम के लोग खाद्य सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं का ऑडिट कर सकते हैं, जैसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली, मध्याह्न भोजन, आंगनवाड़ी वगैरह. इस गांव के सोशल ऑडिट से पता चला कि उनकी राशन दुकान पर तीन महीने में जितना अनाज सरकार से आया और जितना बंटा, उसमें 40 क्विंटल का अंतर है. गांव में ऐसे चार लोग मिले, जिनके मरने के बाद भी राशन मिल रहा है, और ऐसे लोग भी निकले, जिनका नाम पात्र होने के बावजूद पात्रता सूची में नहीं है.
मसलन, इस पंचायत के अहिरान टोला के राजाराम यादव और रामधनी, गोडानटोला के संपत गोंड और उमरिहा के बादे कोल का निधन हो चुका है. मंच पर बैठे पंचायत के लोग हैरान थे कि यह सब कैसे पता चला. सोशल ऑडिट करने वालों ने बताया कि आजकल इंटरनेट पर सब आ जाता है, वह पूरी तैयारी से आए हैं, सोशल ऑडिट के लिए कागजों की पूरी फाइल टेबल पर सामने रख दी गई. इसको देखा-परखा, तो यह भी पता चला कि देवलहा गांव के प्यारे मवासी, किशोरी मवासी और रोहनिया गांव के के दादा गोंड भाई और बुल्लारे गोंड गांव से पलायन करके चले गए हैं, लेकिन उनके नाम भी राशन बांटा गया है, जबकि वह उस अवधि में गांव में हैं ही नहीं.
इस गांव में 18 महिलाएं उस प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना की पात्र मानी गईं, जिसकी घोषणा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 31 दिसंबर, 2016 को की थी. इस योजना का लाभ गांव में केवल एक महिला को मिला है, उसे भी महज तीन हजार रुपए का ही भुगतान हुआ है.
मध्य प्रदेश में बच्चों का कुपोषण सबसे बड़ी चुनौती है. पता चला कि केवल नौ प्रतिशत बच्चों को आंगनवाड़ी में सुबह का नाश्ता और गर्म पका हुआ भोजन मिला है, 91 प्रतिशत बच्चे इन तीन माहों में आंगनवाड़ी की इस सेवा से वंचित हैं, और तीसरा भोजन तो एक भी बच्चे को नहीं मिला. कमाल की बात यह है कि आंगनवाड़ी में पका हुआ भोजन मिल नहीं रहा, लेकिन जब टेक होम राशन, यानी घर ले जाने वाले पैकेट की बात आती है, तो छह माह से तीन साल तक के बच्चों को 453 पैकेट, गर्भवती माताओं को 67 पैकेट ज्यादा बांट दिए गए.
कुपोषण दूर करने के लिए आंगनवाड़ी में अंडा खिलाने की मांग स्वयंसेवी संगठन करते रहे हैं. इस मांग को सरकार ने कभी नहीं माना, यह अलग बात है कि सरकार अपनी पर्यटन होटलों में खुलेआम मांसाहार परोसती है. अंडे के विकल्प के रूप में यहां पर बच्चों को दूध वितरित करने का प्रावधान शिवराज सिंह चौहान ने किया था. पिछले तीन महीनों से इस गांव के एक भी बच्चे को मिड डे मील और आंगनवाड़ी में दूध नसीब नहीं हुआ है.
गांव के सरपंच इंद्रकुमार यादव यह सब कुछ देख-सुन हैरान थे, उन्होंने कहा कि यह अपनी सभा है और इससे निकली बातों को वह हल करेंगे. सचिव महोदय ने सभी बिंदुओं को नोट भी किया.
गांव की ओर से इस सभा को संचालित करने वाले ग्रामीण मानिक विश्वकर्मा से जब सभा के बाद हमने पूछा कि पिछले 20-30 सालों में गांव में क्या बदला. वह कहते हैं, 'थोड़ी-बहुत खेती-किसानी ठीक हुई, लेकिन स्वास्थ्य और शिक्षा का तो वही हाल है. गांव के बच्चे आगे पढ़ने बाहर नहीं जा पाते और और शराब खुद चलकर गांव तक आ जाती है...'
यह उस आदर्श गांव की स्थिति है, जहां एक राष्ट्र संत अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा लगाते हैं, उनको भारतरत्न भी दिया जाता है, लेकिन उस गांव में भ्रष्टाचार का दैत्य तो अब भी अट्टहास करता नजर आता है, सवाल यह है कि आखिर इन समस्याओं से लड़ने के लिए और कितना और किस स्तर का काम करना होगा, जब हिन्दुस्तान अपने इन कलंकों से मुक्त हो पाएगा.
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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