बचपन से जिन कुछ बातों पर हम गांव के दोस्त इतराते थे, उनमें एक यह कि हमारे गांव में एक भारतीय आत्मा माखनलाल चतुर्वेदी ने गुरुकुल 'सेवा सदन' स्थापित किया था, जिसे बचपन से 'सौराज' सुनते आए. बहुत बाद में समझ आया कि 'स्वराज' ही होते-होते 'सौराज' हो गया है. इसलिए, क्योंकि क्रांतिकारी यहां आज़ादी की गुप्त बैठकें किया करते थे.
इतराने का दूसरा बहाना यह कि गांव से 13 किलोमीटर की दूरी पर सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म हुआ था. पाठ्यपुस्तकों में जब लेखक परिचय पढ़ाया जाता, उसमें यह पढ़कर बहुत अच्छा लगता, अरे, यह तो अपने बाजू का ही गांव 'जमानी' है.
तीसरी बात यह भी कि हमारे ही गांव से 15-20 किलोमीटर की दूरी पर नर्मदा किनारे एक और छोटा-सा गांव है टिगरिया, जिसे हम सतपुड़ा के घने जंगल वाले भवानी प्रसाद मिश्र के गांव से जानते हैं. इसलिए भी जानते हैं, क्योंकि यह गांव 'आज भी खरे हैं तालाब' वाले अनुपम मिश्र से भी जुड़ा. वह वहां पैदा तो नहीं हुए, लेकिन हर हिन्दुस्तानी का एक गांव तो होता ही है. न तो उस वक्त पत्रकारिता की कोई समझ थी, साहित्य अपने लिए उतना ही था, जितना हिन्दी की किताबों में पढ़ रहे थे, लेकिन अपने आसपास तीन-तीन सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक विभूतियों का जन्म गर्व करने का एक मौका तो देता है, बिना मिले-देखे ही. वक्त ने 'मन्ना' के योग्य बेटे अनुपम जी के साथ थोड़ा-बहुत समय गुज़ारने-बातचीत करने और सीखने का मौका ज़रूर दिया, ऐसे वक्त में, जब हमारे पास आदर्शों का बड़ा संकट है, वह हमें रोशनी दिखाते थे. 'मन्ना' के जीवन आदर्शों का विस्तार अनुपम थे.
वैसे अनुपम जी को पहली बार ग्राम सेवा समिति में सुनने को मिला. होशंगाबाद में यह गांधीवादी संस्था उस जमाने में बनी थी, जब अनुपम जी ने प्राइमरी स्कूल में दाखिला भी नहीं लिया होगा. इस संस्था से भवानी भाई, गांधीवादी बनवारीलाल चौधरी आदि का जुड़ाव बना था. सत्तर के दशक में जब तवा बांध तैयार हुआ और उसने पूरे जिले में दलदल की भयावह समस्या पैदा कर दी, तब अनुपम मिश्र ने देश में पहली बार बड़े बांधों के खतरों से आगाह कराते हुए 'मिट्टी बचाओ आंदोलन' शुरू किया था. बांधों के विरोध में यह 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' से भी पहले का अभियान था, जिसने पर्यावरणीय मसलों पर यह आवाज़ उठाई थी. इसी जुड़ाव के चलते भवानी भाई और उनके पिता भी हर साल होने वाले कार्यक्रम में आते रहे. वह हमेशा अपने से लगे.
इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि अपने काम के दायरे को सर्वश्रेष्ठ स्तर पर पहुंचाने के बावजूद इतनी सरलता प्रायः कम ही देखने को मिलती है. 'कठिन लिखना आसान है, लेकिन आसान लिखना कठिन है' की परिभाषा को किसी के व्यक्तिव के मामले में भी लागू किया जा सकता है, लेकिन वह सचमुच आसान थे. इतने कि यदि उन्हें बिना दाढ़ी-मूंछों वाला संत कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. उन्हें करीब से जानने वाले समझते हैं, क्योंकि उनके मुंह से किसी की निंदा सुनना मुश्किल ही था.
जिस वक्त रायपुर में रहकर एक मीडिया संस्थान में काम कर रहा था, उनका रायपुर आना हुआ. उनसे मैंने एक मीडिया प्रतिनिधि के रूप में ही साक्षात्कार के लिए समय लिया था. तय वक्त पर वीआईपी गेस्ट हाउस पहुंचा. उस वक्त वह भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) नेता नंदकुमार साय से लंबी चर्चा कर रहे थे. चर्चा कुछ ज्यादा लंबी हो गई. मेरा नंबर आया तो एक-दो सवालों के बाद मेरा अपना गांव का परिचय निकल आया, क्योंकि दोपक्षीय संवाद का यह पहला मौका था उनके साथ. तब तो उन्होंने मुझे 'घर का मोड़ा' बताकर मेरा इंटरव्यू टाल ही दिया और अधिकारपूर्वक कहा कि अपन दोपहर में बात करते हैं. उन्हें कार्यक्रम के लिए देर भी हो रही थी, और यह उनका एक सहज और आत्मीय भाव था. बाद में वह इंटरव्यू नहीं हो सका, लेकिन मैं अवाक रह गया, जब 10 दिन बाद उन्होंने फोन करके कहा कि अपनी तो उस दिन पूरी बात ही नहीं हो पाई. ऐसा हम कितने लोग कर पाते हैं. हम लोग की जेब में अब महंगे फोन तो हैं, इंटरनेट का फ्री जियो डेटा पैक भी है, पर संवाद के मामले में तो हम कंगाल हुए जा रहे हैं.
वह जेब में बिना मोबाइल फोन डाले भी खूब संवाद कर लेते थे, सबके साथ संवाद कर लेते थे, भैया-भैया की भाषा में संवाद कर लेते थे. ऐसा नहीं था कि उन्हें तकनीक से परहेज़ था. कठिन दौर की फोटोग्राफी कर उन्होंने अपने पानी के काम में खूब प्रयोग किया, पानी के काम को दूर-दूर तक पहुंचाने, उसे लोगों तक समझाने में वह अर्से से अपने स्लाइड शो का इस्तेमाल करते रहे, लेकिन सोशल मीडिया के भेड़ियाघसान से बचते हुए वह संवाद की एक समृद्ध परंपरा को हमारे लिए इस दौर में भी दिखाकर गए हैं.
आज लगातार यात्रा करते हुए वह याद इसलिए भी आते रहे, क्योंकि उनसे दिल के बहुत करीब से जुड़े सर्वोदय प्रेस सर्विस के संपादक चिन्मय मिश्र के साथ यात्रा करता रहा. जिनसे हर 10 दिन में वह घंटों संवाद किया करते थे. सर्वोदय प्रेस सर्विस देश की सबसे पुरानी समाचार और विचार सेवा है, जिसे विनोबा भावे ने एक रुपये का दान देकर शुरू करवाया था. संसाधनों के अभाव में यह आज भी निरंतर है, अनुपम जैसे ही कुछ लोगों के कारण. उन्होंने खुद भी तो अपने को वैसा ही ढाला था. दिल्ली जैसे क्रूर शहर में 12,000 रुपये की पगार पर कौन कितने दिन ज़िन्दा रह पाता है.
अनुपम हमारे लिए बहुत कुछ छोड़ गए हैं. एक जीवनशैली, एक लेखनशैली, एक विचारशैली, एक व्यक्तित्वशैली. वह हमें इस दौर में भी कभी निराश नहीं करते. हमेशा उम्मीद बंधाते हैं. जैसे कि लोगों ने उनकी किताब पढ़कर लाखों तालाबों के पाल बांध दिए. उनमें एक तालाब मेरे गांव का भी है, वह नया नहीं है, हज़ारों साल पुराना गोमुखी तालाब है, जिसके बारे में वह खुद भी बताते थे. कहीं-कहीं बातचीत में उसका ज़िक्र भी करते. तालाब हमें आत्मनिर्भरता देता है, अपनी आज़ादी देता है, अपने पानी के साथ अपना जीवन देता है, समृद्धि देता है. हमारे अपने तालाबों का बचना, अपनी आत्मनिर्भरता और अपनी अस्मिता का बचना बेहद ज़रूरी है इस दौर में.
उनके जीवन का आकाश बहुत बड़ा था. उसका एक छोटा-सा टुकड़ा हमें मिल पाया, लेकिन यह छोटा भी विशाल है. वह हमेशा हमारी प्रेरणाओं में रहेंगे. नमन...
राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के पूर्व फेलो हैं, और सामाजिक सरोकार के मसलों पर शोधरत हैं...
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This Article is From Dec 20, 2016
अनुपम मिश्र : खुद भी उतने खरे, जितने उनके तालाब...
Rakesh Kumar Malviya
- ब्लॉग,
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Updated:दिसंबर 20, 2016 12:32 pm IST
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Published On दिसंबर 20, 2016 12:32 pm IST
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Last Updated On दिसंबर 20, 2016 12:32 pm IST
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