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This Article is From Dec 21, 2016

"पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है, उसकी 'पुण्याई' पर हम जैसे जी रहे हैं"

Prabhash Joshi
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    दिसंबर 21, 2016 19:44 pm IST
    • Published On दिसंबर 21, 2016 10:43 am IST
    • Last Updated On दिसंबर 21, 2016 19:44 pm IST
ये कागज़ मैं उन्हीं अनुपम मिश्र और उनके काम पर काले कर रहा हूं, जिनका जिक्र आपने इस जगह पर कई बार देखा और पढ़ा होगा. खतरा है कि आप में से कई लोग मुझ पर पक्षपात करने, यानी अपने ही लोगों में रेवड़ी बांटने जैसा अंधत्व होने का आरोप लगा सकते हैं, लेकिन इसलिए कि आप पर कोई आरोप लगा सकता है, आप वह करना और कहना छोड़ दें, जो आप को करने और कहने को प्रेरित कर रहा है, तो आपके होने-करने का मतलब क्या रह जाएगा?

लोकलाज या आरोप लगने का डर अगर आप को वह करने और कहने से रोकने लगे, जो आप को अपने तई सच्चा बनाता है तो देखते-देखते आप मुखौटे हो जाएंगे. फिर आप को खुद ही समझ नहीं पड़ेगा कि आप वही हैं, जो अंदर हैं या वह, जो मुखौटे से दिखते हैं? मुखौटों के बिना दुनिया और जीने का काम नहीं चलता. लेकिन जो आदमी मुखौटा हो जाए, उसका जीना अपना नहीं रहता. वह दूसरों के बताए जीवन को जीता है और ऐसे जीने से खोखला कोई जीना नहीं होता.

यह सफाई नहीं है. भूमिका भी नहीं. आगे जो कह रहा हूं, उसका निचोड़ भी नहीं है. यह जीने का रवैया है, जिसे पहले समझे बिना अनुपम मिश्र के काम और उसे करने के तरीके को समझना मुश्किल है. जो बहुत सीधा, सपाट और समर्पित दिखता है, वह वैसा ही होता तो ज़िन्दगी रेगिस्तान की सीधी और समतल सड़क की तरह ऊबाऊ होती. आप हम सब एक पहलू के लोग होते. और दुनिया लंबाई, चौड़ाई और गहराई के तीन पहलुओं वाली बहुरूपी और अनंत संभावनाओं से भरी नहीं होती. विराट पुरुष की कृपा है कि जीवन संसार अनंत और अगम्य है. कितना अच्छा है कि अपने हाथों की पकड़, आंखों की पहुंच और मन की समझ से परे कितना कुछ है कि अपनी पकड़, पहुंच और समझ में कभी आ ही नहीं सकता. ऐसा है, इसीलिए तो जीना, करना और खोजना है. ऐसा न हो तो जीने और संसार में रह क्या जाएगा?

मन में कहीं बैठा था कि अनुपम से मुठभेड़ सन इकहत्तर में हुई. लेकिन यह गलत है. गांधी शताब्दी समिति की प्रकाशन सलाहकार समिति का काम संभालने के बाद देवेंद्र भाई, यानी राष्ट्रीय समिति के संगठन मंत्री ने कहा कि भवानी भाई ने गांधी पर बहुत-सी कविताएं लिखी हैं. वे उनसे लो और प्रकाशित करो. उन्हें लेने के जुगाड़ में ही भवानी मिश्र के घर जाना हुआ और वहीं उनके तीसरे बेटे, यानी माननीय अनुपम प्रसाद मिश्र, अनुपम मिश्र या पमपम से मिलना हुआ. भवानी भाई की ये कविताएं गांधी पंचशती के नाम से छपीं - पांच सौ से ज्यादा कविताएं हैं.

गांधी शताब्दी समाप्त होते-होते एक दिन देवेंद्र भाई ने कहा कि अनुपम आने वाले हैं. उन्हें हमें गांधी मार्ग और दूसरे प्रकाशनों में उपयोग करना है. फिर राधाकृष्ण जी ने कहा कि किसी को भेज रहा हूं, ज़रा देख लेना. अनुपम को देखा हुआ था. लेकिन किसी के भी भेजे हुए को अपन ज़रा दूर ही रखते हैं. जब तक भेजा हुआ आया हुआ नहीं हो जाता, तब तक वह अपनी आंखों में नहीं चढ़ता. बहरहाल अनुपम ने काम शुरू किया – सेवक की विनम्र भूमिका में. सर्वोदय में सेवकों और उनकी विनम्र भूमिकाओं का तब बड़ा महत्व होता था. सीखी या ओढ़ी हुई विनम्रता और सेवकाई को मैं व्यंग्य से ही वर्णित कर सकता हूं. विनम्र और सेवक होते हुए भी अनुपम सेवा को काम की तरह कर सकता था.

सेवा का पुण्य की तरह ही बड़ा पसारा होता है. विनम्र सेवक का अहं कई बार तानाशाह के अहं से भी बड़ा होता है. तानाशाह तो फिर भी झुकता है और समझौता करता है, क्योंकि वह जानता है कि ज्यादती कर रहा है. लेकिन विनम्र सेवक को लगता है कि वह गलत कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि अपने लिए तो वह कुछ करता ही नहीं है न! अनुपम में अपने को सेवा का यह आत्म औचित्य नहीं दिखा, हालांकि काम वह दूसरों से ज्यादा ही करता. लादने वाले को न नहीं करता था और बिना यह दिखाए कि शहीद कर दिया गया है - लदान उठाए रहता. तब उसकी उम्र रही होगी इक्कीस-बाईस की. संस्कृत में एमए किया था और समाजवादी युवजन सभा का सक्रिय सदस्य रह चुका था. संस्कृत पढ़ने वाले का पोंगापन और युवजन सभा वाले की बड़बोली क्रांतिकारिता – माननीय अनुपम प्रसाद मिश्र में नहीं थी.

भवानी प्रसाद मिश्र के पुत्र होने और चमचमाती दुनिया छोड़कर गांधी संस्था में काम करने का एहसान भी वह दूसरों पर नहीं करता था. ऐसे रहता, जैसे रहने की क्षमा मांग रहा हो. आपको लजाने या आत्म दया में नहीं, सहज ही. जैसे उसका होना आप पर अतिक्रमण हो और इसलिए चाहता हो कि आप उसे माफ कर दें. जैसे किसी पर उसका कोई अधिकार ही न हो और उसे जो मिला है या मिल रहा है, वह देने वाले की कृपा हो. मई बहत्तर में छतरपुर में डाकुओं के समर्पण के बाद लौटने के लिए चंबल घाटी शांति मिशन ने हमें एक जीप दे दी. हम चले तो अनुपम चकित! उसे भरोसा ही न हो कि अपने को एक पूरी जीप मिल सकती है. सच इस जीप में अपन ही हैं और अपने कहने पर ही यह चलेगी! ऐसे विनम्र सेवक का आप क्या कर लेंगे? समझ न आए तो अचार भी डालकर नहीं रख सकते. अनुपम मिश्र को बरतना आसान नहीं था. अब भी नहीं.

बहरहाल गांधी शताब्दी आई गई हो गई और गांधी संस्थाओं ने उपसंहार की तरह गांधी का काम फिर शुरू कर दिया. विनोबा क्षेत्र संन्यास लेकर पनवार के परमधाम में बैठे और बी से बाबा और बी से बोगस कहकर ग्राम स्वराज्य कायम करने की निजी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए. सब को लगता कि अब यह काम जेपी का है. और जेपी को लगने लगा कि ग्राम स्वराज्य सर्वेषाम अविरोधेन नहीं आएगा. संघर्ष के बिना आंदोलन में गति और शक्ति नहीं आएगी और अन्याय से तो लड़ना ही होगा. बाबा के रास्ते से जेपी कुछ हटना चाहते थे, लेकिन लक्ष्य उनका भी ग्राम स्वराज्य ही था. मुसहरी में जेपी ने नक्सलवादी हिंसा का सामना करने का ऐलान किया. फिर बांग्लादेश के संघर्ष और चंबल के डाकुओं के समर्पण में लग गए.

सर्वोदयी गतिविधियों का दिल्ली में केंद्र गांधी शांति प्रतिष्ठान हो गया और अनुपम और मैं – आंदोलन के बारे में लिखने, पत्रिकाएं निकालने और सर्वोदय प्रेस सर्विस चलाने में लग गए. उसी सिलसिले में अनुपम का उत्तराखंड आना-जाना होता. भवानी बाबू गांधी निधि में ही रहने आ गए थे, इसलिए कामकाज दिन-रात हो सकता था. फिर चमौली में चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी ने चिपको कर दिया. चिपको आंदोलन पर पहली रपट अनुपम मिश्र ने ही लिखी और चूंकि सर्वोदयी पत्रिकाओं की पहुंच सीमित थी, इसलिए वह रपट हमने रघुवीर सहाय को दी और दिनमान में उन्होंने उसे अच्छी तरह छापा.

चिपको आंदोलन को बीस से ज्यादा साल हो गए, लेकिन अनुपम का उत्तराखंड से संबंध अब भी उतना ही आत्मीय है. जिसे हम पर्यावरण के नाम से जानते हैं, उसके संरक्षण का पहला आंदोलन चिपको ही था और वह किसी पश्चिमी प्रेरणा से शुरू नहीं हुआ. पेड़ों को काटने से रोकने के लिए शुरू हुए इस आंदोलन और इससे आई पर्यावरणीय चेतना पर कोई लिख सकता है तो अनुपम मिश्र. लेकिन कोई कहे कि वही लिखने के अधिकारी हैं तो अनुपम मिश्र हाथ जोड़ लेंगे. अपना क्या है जी, अपन जानते ही क्या हैं - उनकी छोटी बहन डॉक्टर नमिता (मिश्र) शर्मा भी इसी लहजे में कह सकती हैं.

जनसत्ता निकला तो रामनाथ जी (गोयनका) की बहुत इच्छा थी कि अनुपम उसमें आ जाए. अपन ने भी समझाने-पटाने की बहुत कोशिश की, लेकिन अनुपम बंदा लौटकर पत्रकार नहीं हुआ.

लेकिन इसके पहले कि अनुपम मिश्र पूरी तरह पर्यावरण के काम में पड़ते, बिहार आंदोलन छिड़ गया. हम लोग गांधी प्रतिष्ठान से एवरीमैंस होते हुए एक्सप्रेस पहुंच गए और 'प्रजानीति' निकालने लगे. तब भी दिल्ली के एक्सप्रेस दफ्तर में कोई विनम्र सेवक पत्रकार था तो अनुपम मिश्र. सबकी कॉपी ठीक करना, प्रूफ पढ़ना, पेज बनवाना, तम्बाकू के पान के ज़रिये प्रेस को प्रसन्न रखना और पत्रकार और आंदोलनकारी होने की हवा भी न खाना, झोला लटका के पैदल दफ्तर आना और जब भी काम पूरा हो, पैदल ही घर जाना. प्रोफेशनल जर्नलिस्टों के बीच अनुपम मिश्र विनम्र सेवक मिशनरी पत्रकार रहे. इमरजेंसी लगी, 'प्रजानीति' और फिर 'आसपास' बंद हुआ तो अनुपम को इस मुश्किल भूमिका से मुक्ति मिली.

प्रोफेशनल पत्रकार हो सकने की तबीयत अनुपम मिश्र की नहीं है. क्यों नहीं है, यह आगे समझ में आएगा. इमरजेंसी में एक्सप्रेस से भी बुरे हाल 'गांधी शांति प्रतिष्ठान' के थे. बाबूलाल शर्मा की सेवाएं अब भी वहीं थी, वह वहां चले गए. मैं भी किसी तरह वहीं लौटा. लेकिन अनुपम मिश्र फ्रीलांसर हो गए. आपने बहुतेरे फ्रीलांसर देखे होंगे. अनुपम उनकी छवि में कभी फिट नहीं हो सकता. लेकिन इमरजेंसी के उन दिनों में जो भी करने को मिल जाए, अच्छा और काफी था. अनुपम और उदयन शर्मा इधर-उधर लिखकर थोड़ा-बहुत कमा लेते. अनुपम फोटोग्राफी भी कर सकता है. लेकिन फोटो-पत्रकारिता से कोई आमदनी नहीं होती.

इमरजेंसी उठी और चुनाव में जनता पार्टी की हवा बहने लगी तो कई लोग कहते कि अब हम लोगों के वारे-न्यारे हो जाएंगे. किसी को यह भी लगता कि प्रभाष जोशी तो चुनाव लड़के लोकसभा पहुंच जाएगा. जेपी से निकटता को भला कौन नहीं भुनाएगा. लेकिन अपन एक्सप्रेस में चुनाव सेल चलाने में लगे और अनुपम वहां भी मदद करने लगा.

जनता पार्टी जीती तो गांधी शांति प्रतिष्ठान से सरकारी दमन का साया हटा. अनुपम आखिर प्रतिष्ठान में काम करने लगा. अपना एक पांव एक्सप्रेस में और दूसरा शांति प्रतिष्ठान में. उन्हीं दिनों नैरोबी से राष्ट्रसंघ के पर्यावरण कार्यक्रम का पत्र मिला कि गांधी शांति प्रतिष्ठान भारत की स्वयंसेवी संस्थाओं का एक सर्वे कर के दे सकता है? हम इतने डॉलर सर्वे के लिए दे सकेंगे. यह भी ख्याल रखिए कि क्या ये संस्थाएं पर्यावरण का काम करने में रुचि ले सकती हैं. राधाकृष्णजी और मुझे लगा कि यह सर्वे तो अनुपम ही सबसे अच्छा कर सकता है. उसे दिया गया और निश्चित समय में वह न सिर्फ पूरा हुआ, जितना खर्च मिला था, उसका एक तिहाई भी खर्च नहीं हुआ. उस सर्वे से अनुपम का देश की स्वयंसेवी संस्थाओं और पर्यावरण के काम में लगी विदेशी संस्थाओं से जो संपर्क हुआ, वह न सिर्फ कायम है, बल्कि जीवंत चल रहा है.

लेकिन एक बार राधाकृष्णजी ने अनुपम से कहा कि फलां-फलां विदेशी संस्था से इतना पैसा इस प्रोजेक्ट के लिए मिला है और हमारी इच्छा है कि इसमें से तुम पांच-छह हज़ार रुपये महीना ले लो. तब अनुपम के मित्र इससे ज्यादा वेतन सहज ही पाते थे और प्रोजेक्ट करने वाले को तो वे पैसे मिलने ही थे. लेकिन अनुपम घबराया-सा मेरे पास आया. वह प्रतिष्ठान की सात सौ रुपट्टी के अलावा कहीं से एक पैसा लेने को तैयार नहीं. विदेशी पैसा है. मैं जानता हूं, इफरात में मिलता है. इसे लेने वालों का पतन भी मैंने देखा है. अपने देश का काम हम दूसरों के पैसों से क्यों करें? अगर आप अनुपम को जानते हों तो उसका संकोच एकदम समझ आ जाएगा. नहीं तो उस के मुंह पर तारीफ और पीठ पीछे बुद्धू कहने वालों में आप आसानी से शामिल हो सकते हैं.

पिछले तीन साल से होशंगाबाद में नर्मदा किनारे उसके लिए पर्यावरण की कोई संस्था खड़ी करने के जुगाड़ में हूं. इसलिए भी देश के पर्यावरण के लिए नर्मदा योजना आरपार की साबित हो सकती हैं. लेकिन अनुपम को सरकारी जमीन और पैसा नहीं चाहिए. विदेशी पैसे को वह हाथ नहीं लगाएगा. और तो और, गांधी शांति प्रतिष्ठान छोड़कर अपना बनाया गांधी शांति केंद्र चला रहे राधाकृष्णजी से भी वह संस्था खड़ी करने के लिए एकमुश्त पैसा नहीं लेगा. कुछ उद्योगपतियों से पैसा ला सकता हूं, लेकिन मुझे मालूम है कि वे पैसा क्यों और कैसे देते हैं. और वह लाना अनुपम के साथ छल करना होगा.

पर्यावरण का काम आजकल विदेश यात्रा का सबसे सुलभ मार्ग है. अनुपम एकाध बार तो नैरोबी गया, क्योंकि वहां पर्यावरण संपर्क केंद्र के बोर्ड में निदेशक बना दिया गया था. कुछ और यात्राएं वैसे ही कीं, जैसे आप-हम मेरठ या अलवर या चड़ीगढ़ हो आते हैं. झोला टांगा और हो आए. मैं नहीं जानता कि बाहर बैठक में अंग्रेज़ी कैसे बोलता होता? बोलना ही नहीं चाहता. मुंह टेढ़ा कर अमेरिकी स्लैंग में अंग्रेजी बोलना तो अनुपम के लिए पापकर्म होगा. धीरे-धीरे उसने बहुत ज़रूरी विदेश यात्राएं भी बंद कर दीं.

इस साल (1993) रियो में हुए विश्व सम्मलेन का कार्यक्रम तय करने के लिए पिछले साल फ्रांस सरकार की मदद से पर्यावरण संपर्क केंद्र ने पेरिस में सम्मलेन किया था. अनुपम को ही लोग भेजने थे. उसने भेजे, पर खुद ऐन मौके पर न कर गया. रियो भी नहीं गया. भारत सरकार या राज्य सरकारों को पर्यावरण पर सलाह वह नहीं देता. कमेटियों और प्रतिनिधिमंडलों में शामिल नहीं होता. गांधी शांति प्रतिष्ठान में चुपचाप सिर गड़ाए मनोयोग से काम करता रहता है. उसकी पुरानी कुर्सी के पीछे एक स्टिकर चिपका है – पॉवर विदाउट परपस – सत्ता बिना प्रयोजन के. अनुपम के पास प्रयोजन ही है, सत्ता का तो स्पर्श भी नहीं है. अभी तक वैसे ही तंगी में यात्रा करता है. जैसी हम जेपी आंदोलन के समय झोला लटकाए किया करते थे. और ज्यादातर यात्राएं बीहड़ सुनसान या रेगिस्तान या जंगलों में.

अनुपम को लड़कपन में गिल्टी की टीबी हुई थी. अब फिर कोई टीबी हुई है. इस बीच उसके दिल ने भवानी बाबू वाला रास्ता पकड़ लिया था. नाड़ी कभी पचास हो जाए और कभी एक सौ पचास. दिल का चलना इतना अनियमित हो गया कि सब परेशान, कौन जाने, कब-क्या हो जाए. लड़-झगड़कर डॉक्टर खलीलुल्ला को दिखाया. उन्होंने गोली दी और कहा कि पेसमेकर लगवा लो. मन्ना, यानी भवानी बाबू को लगा ही था. लेकिन अनुपम ने न गोली ली, न पेसमेकर लगवाना मंजूर किया. निमोनिया कभी-भी हो जाए. मुझे और बनवारी (जो अनुपम के कॉलेज के दोस्त हैं) को लगे कि अनुपम में शहीद होने की इच्छा है, लेकिन अनुपम अपनी बीमारी से पर्यावरण का काम करते हुए और किताबें निकालते हुए लड़ रहा है.

'देश का पर्यावरण' उस ने कोई नौ साल पहले निकाली. संपादित है. लेकिन क्या जानकारी, क्या भाषा, क्या सज्जा और क्या सफाई. जिस दिलीप चिंचालकर ने जनसत्ता का मास्टहेड बनाया, अखबार डिज़ाइन किया, उसी दिलीप ने इस किताब का लेआउट, स्केचिंग और सज्जा की है. हिन्दी में ही नहीं, इस देश में अंग्रेजी में भी ऐसी किताब निकली हो तो बताना. लेकिन अनुपम ने किताब निकालने में भी शांति प्रतिष्ठान का पैसा नहीं लगाया. फोल्डर छपाया. संस्थाओं और पर्यावरण में रुचि रखने वाले लोगों से अग्रिम कीमत मंगवाई. उसी से कागज खरीदा, छपाई करवाई. फिर खुद ही चिट्ठी लिख-लिखकर किताब बेची. दो हजार छपवाई थी. साठ हजार लागत लगी. दो लाख कमाकर अनुपम ने प्रतिष्ठान में जमा करवा दिए. चार साल बाद 'हमारा पर्यावरण' निकाली, 'देश का पर्यावरण' से भी बेहतर. इसका भी फोल्डर छपवाकर अग्रिम कीमत इकट्ठी की. इस बार डेढ़ लाख के आसपास आई. छह हजार छपवाई. बिना किसी मदद से खुद चिट्ठियां लिखकर बेचीं. शांति प्रतिष्ठान को कमाकर दिए नौ लाख रुपये.

अब ये दोनों किताबें दुर्लभ हो गई हैं. पर्यावरण मंत्री कमलनाथ को किसी को भेंट करने के लिए चाहिए थी. उनके दफ्तर ने बहुत फोन किए, मुश्किल से दो प्रतियां जुटीं. और मजा यह है कि पर्यावरण मंत्रालय ने इन पुस्तकों को नहीं खरीदा. हिन्दी के किसी भी राज्य ने किताबों की सरकारी खरीद में इसे नहीं लिया. किसी प्रकाशक ने वितरण और बिक्री में कोई मदद नहीं की. पिछले दस साल के देश के पर्यावरण पर हिन्दी में ऐसी किताबें नहीं निकलीं. अनुपम ने न सिर्फ लिखीं और छापीं, बेचीं भी और कोई 10 लाख कमाकर संस्था को दिया. हिन्दी के किसी प्रकाशक को चुल्लूभर पानी चाहिए तो पर्यावरण की ये दो पुस्तकें दे सकती हैं.

और अब अनुपम मिश्र ने 'आज भी खरे हैं तालाब' निकाली है. यह संपादित नहीं है. सीधे अनुपम ने लिखी है – नाम कहीं अंदर है छोटा सा. लेकिन हिन्दी के चोटी के विद्वान ऐसी सीधी, सरल, आत्मीय और हर वाक्य में एक बात कहने वाली हिन्दी तो ज़रा लिखकर बताएं. जानकारी की तो बात ही नहीं कर रहा हूं. अनुपम ने तालाब को भारतीय समाज में रखकर देखा है. सम्मान से समझा है. अद्भुत जानकारी इकट्ठी की है और उसे मोतियों की तरह पिरोया है. कोई भारतीय ही तालाब के बारे में ऐसी किताब लिख सकता था. लेकिन भारतीय इंजीनियर नहीं, पर्यावरणविद नहीं, शोधक विद्वान नहीं – भारत के समाज और तालाब से उस के संबंध को सम्मान से समझने वाला विनम्र भारतीय.

ऐसी सामग्री हिन्दी में ही नहीं, अंग्रेज़ी और किसी भी भारतीय भाषा में आप को तालाब पर नहीं मिलेगी. तालाब पानी का इंतज़ाम करने का पुण्यकर्म है तो इस देश के सभी लोगों ने किया है. उनको, उनके ज्ञान को और उनके समर्पण को बता सकने वाली एक यही किताब है. आप चाहें तो कलकत्ते के राष्ट्रीय ग्रंथागार देख लें. यह किताब भी इसी तरह निकाली है. तीन हजार छपवाई थीं. तीन महीने में दो हजार एक सौ बेच दी हैं. कोई डेढ़ लाख कमाकर जमा करवा दिया है. वृक्ष मित्र पुरस्कार जिस साल चला, अनुपम को दिया गया था. पर्यावरण का अनुपम, अनुपम मिश्र है. उस के जैसे व्यक्ति की पुण्याई पर हमारे जैसे लोग जी रहे हैं. यह उसका और हमारा - दोनों का सौभाग्य है.

प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र पर यह लेख वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी ने 'अपने पर्यावरण का यह अनुपम आदमी' शीर्षक से 1993 में 'जनसत्ता' में लिखा था. इस आलेख को आज 'सत्‍याग्रह' ने प्रकाशित किया है. हम अपने पाठकों के लिए इसे 'सत्‍याग्रह' की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं.

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