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This Article is From May 26, 2016

क्या चुनाव के वक्त ही सरकारें बेहतर काम करती हैं ?

Rakesh Kumar Malviya
  • ब्लॉग,
  • Updated:
    मई 27, 2016 10:18 am IST
    • Published On मई 26, 2016 19:52 pm IST
    • Last Updated On मई 27, 2016 10:18 am IST
सांस्कृतिक रूप से एक ही इलाका है, बुंदेलखंड, राजनैतिक रूप से दो राज्यों में बंटा हुआ, विचित्र बात है कि एक ही इलाके में सूखे से निपटने की दो भिन्न परिस्थितियां हैं। एक जगह बेहतर काम हो रहा है, दूसरी जगह वही कछुआ चाल है। जाहिर है जहां बेहतर है वहां चुनाव आने वाले हैं तो क्या हम एक बार फिर यह मान लें कि सरकारें केवल चुनाव के वक्त ही बेहतर काम करती हैं ?  

यूं तो सूखा पूरे देश में कहर ढा रहा है, लेकिन बात ज्यादा या तो बुंदेलखंड की हो रही है या फिर मराठवाड़ा की। इन दोनों ओर-छोर की स्थिति देखने के लिए तकरीबन पांच बड़े जनांदोलन बीती 21 मई से आने वाली 31 मई तक एक पदयात्रा कर रहे हैं। स्वराज अभियान के योगेन्द्र यादव, नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर, डॉ सुनीलम, पानीबाबा राजेन्द्र सिंह और एकता परिषद के पीवी राजगोपाल के नेतृत्व वाली इस यात्रा ने अपने भोपाल पड़ाव के दौरान सरकारों पर कई गंभीर आरोप लगाए। कई तथ्य पेश किए।

इनमें एक तथ्य जो सबसे दिलचस्प था वह यह कि योगेन्द्र यादव की नजर में मप्र से अपेक्षाकृत कमजोर काम करने वाली उत्तप्रदेश सरकार ने अप्रैल के महीने में सूखा प्रभावित इलाकों में जबर्दस्त काम किया। वहां इस दौरान सूखा से निपटने की सबसे कारगर योजना महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार योजना में अनुमान की अपेक्षा 132 प्रतिशत अधिक काम दिया गया, जबकि मध्यप्रदेश सरकार इसी अवधि में अपने हिस्से के सूखा प्रभावित इलाके में अनुमान से केवल 29 प्रतिशत काम ही मुहैया करा पाई। उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि हो सकता है कि यह आने वाला चुनाव का असर हो, लेकिन काम तो हुआ है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।

क्या सरकारें देर से चेतीं
मानसून के जाने की घोषणा के बाद सरकार का मौसम विभाग खुद ही वर्षा के संबंध में स्थिति पत्र जानी कर देता है यानी सरकार को 1 अक्टूबर को ही इस बात का पता चल गया था कि इस साल देश में सूखे की स्थिति बनेगी। पिछले तीन सालों से मौसम की बेरूखी इसकी भयंकरता को और बढ़ाने वाली हैं, यह भी किसी रॉकेट साइंस का हिस्सा नहीं था। बावजूद इसके सरकारें तब चेतीं जबकि आईपीएल के मुद्दे पर पानी के लिए एक विवाद ने जन्म लिया। इससे पहले तक अपनी योजनाओं को चाकचौबंद करने की बजाए हाथ पर हाथ रखे बैठ जाने से तकरीबन सभी इलाकों में स्थितियां और गंभीर हो गई हैं।

सुधरवाए ही नहीं गए हैंडपंप
मध्यप्रदेश के जिन जिलों में अभियान ने सर्वे किया गया (टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना और दतिया) वहां जल संकट गंभीर है। तकरीबन 40% गांवों की रिपोर्ट है कि हर गाँव में चालू हैंडपंपों की संख्या घटकर 0,1 या 2 हो गयी है। तीन महीने पहले जो आँकड़े आए थे उसमे 16% की बढ़ोतरी है। सिर्फ़ 18 ऐसे गाँव हैं जो सुरक्षित जोन में हैं और वहाँ 10 से ज्यादा हैंडपंप चालू स्थिति में हैं। उत्तरप्रदेश की स्थिति बेहतर है, वहाँ 55% गाँव में 10 से ज्यादा चालू हैंडपंप की सीमा रेखा के ऊपर हैं। लेकिन यूपी में भी 14% गाँव ऐसे हैं जहाँ दो या उससे भी कम हैंडपंप चालू स्थिति में हैं। जब पीने के पानी की स्थिति में सुधार के लिए सरकारों द्वारा किये गए उपाय के बारे में पूछा गया तो दोनों राज्य के लोगों का जवाब निराशाजनक ही था। पिछले तीन महीने के कठिन दौर में यूपी के 72% गांवों और एमपी के 74% गांवों में सरकार द्वारा कोई काम न होने की रिपोर्ट है।

भूख और कुपोषण का भी खतरा
पीने के पानी की कमी के अलावा सूखा के कारण भूख और कुपोषण का खतरा भी रहता है। यह चुनौती पूरे क्षेत्र में है और एमपी से ज्यादा यूपी में है। यूपी के बुन्देलखंड के 59% गांवों में 10 से ज्यादा परिवारों को दो समय का भोजन भी नहीं मिलने की रिपोर्ट है। यही आँकड़ा एमपी में 35% गांवों का है। भोजन के लिए भीख माँगने और निम्न स्तर के अनाज जैसे फ़िकार (इस क्षेत्र में होने वाले जंगली घास के बीज) खाने की रिपोर्ट भी सामने आई है। हालाँकि स्थिति अभी ख़तरे के जोन में नहीं है लेकिन अक्टूबर में अगली फ़सल आने तक स्थिति पर लगातार नज़र रखने की जरुरत है।

पशुओं के लिए अकाल की स्थिति
पशुओं के लिए तो लगता है जैसे अकाल आ गया है। अभियान के पिछले सर्वे में यह आया था कि परेशान किसान अपने घरेलू पशुओं को खुला छोड़ रहे हैं। यूपी के 78% गाँव और एमपी के 62% गाँव से रिपोर्ट है कि पहले की तुलना में इस प्रक्रिया में काफ़ी बढ़ोतरी हुई है। पिछले हफ़्ते यूपी के 56% गांवों और एमपी के 44% गांवों में पशु चारा और पीने के पानी की भारी कमी है। अधिकांशतः गांवों में पशुओं की मौत की संख्या में असामान्य बढ़ोतरी हुई है। पिछले एक महीने में यूपी के बुन्देलखंड क्षेत्र के 41% गांवों और एमपी के बुन्देलखंड क्षेत्र के 21% गांवों में भूखमरी या ज़हर के कारण 10 से ज्यादा पशुओं के मौत की रिपोर्ट है।

बहुसंख्यक समाज अपना मुंह क्यों लटकाए है
अब देखना यही होगा कि आने वाले कुछ दिनों में इस स्थिति से सरकार, समाज और संगठन कैसे मिलकर निबटते हैं। यह तो एक त्वरित समस्या है जिससे किसी भी तरह पार जाना है, लेकिन असली सवालों पर भी सोचा ही जाना चाहिए कि आखिर यह समस्या किसकी बनाई है। विकास के जिन प्रतिमानों पर हम चल रहे हैं, जीडीपी सहित आ​र्थिक सूचकांकों की बुलंदी का डंका दुनिया में पीटते हैं, यदि वे सचमुच सफल हैं तो देश का बहुसंख्यक समाज अपना मुंह क्यों लटकाए है। इन चुनौतियों से निपटने में हम इस तरह लाचार क्यों हैं ?

राकेश कुमार मालवीय एनएफआई के फेलो हैं, और सामाजिक मुद्दों पर शोधरत हैं...

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति एनडीटीवी उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार एनडीटीवी के नहीं हैं, तथा एनडीटीवी उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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